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अमरनाथ हमला:बहुलतावादी भारत के विचारों पर चोट

अमरनाथ हमला:बहुलतावादी भारत के विचारों पर चोट
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File Photo - अमरनाथ यात्रा मार्ग का एक दृश्य

अमरनाथ यात्रा पर गए गुजरात के निहत्थे तीर्थ यात्रियों पर हमले से आहत और आक्रोशित देश ‘निंदा’, ‘कड़ी निंदा’ और ‘भर्त्सना’ जैसे शब्दों से संतुष्ट नहीं होगा। ये सारे शब्द अब अपने अर्थ खो चुके हैं। इस प्रकार की हिंसा बहुत भयानक और खतरनाक है। बर्बरता का इससे बड़ा क्या प्रमाण हो सकता है? निर्दोष की हत्या मानवता के प्रति अपराध है। यह हर दृष्टि से बहुत बड़ा पाप है। अब किसी भी तरह आतंकियों को पकड़ा जाए और उन्हें कड़ी से कड़ी सज़ा दी जाए। सुरक्षा प्रबंध और कड़े किये जायें और पूरे देश के कोने - कोने को फ्लश करके इन राष्ट्रद्रोही तत्वों का सफाया किया जाय । यदि, ईंट का जवाब पत्थर से अब नहीं दिया जायेगा तो कब दिया जायेगा? अब सारा देश उन छद्म सेक्युलरवादियों को भी देख रहा है कि वे अमरनाथ यात्रियों पर हुए कातिलाना हमलों को किस तरह से लेते हैं। हालांकि वे तो यही कहेंगे कि आतंक का कोई धर्म नहीं होता। अब वे लेखक भी नदारद हैं,जो दादरी में अखलाक के मारे जाने के बाद अपने पुरस्कार वापस करने लगे थे। कोई माने या ना माने, पर कश्मीर में अलगाववादी तो भारत विरोधी थे ही। लेकिन, जब से कश्मीर में वहाबियत परवान चढ़ी है, कश्मीर अब काफिर विरोधी हो गया है। अब ऐसा दिख रहा है कि कश्मीर घाटी में हिन्दुओं के लिए कोई जगह बची ही नहीं है।

अमरनाथ यात्रा को वहाबी देवबंदी कुफ्र मानते हैं। इस तरह की घटना बिना अंदर के गद्दारों के संभव नहीं है। वो गद्दार जिन्हें अपने देश से प्रेम नहीं या वो जो राष्ट्र में विश्वास ही नहीं करते। दुनिया में कोई ऐसा देश नहीं जहां विविधता नहीं, समस्या नहीं, जहाँ धार्मिक मतभेद नहीं। फिर भी,जब काफिरों को मारना किताबों में जायज सिद्ध किया जाएगा, मदरसों में पढ़ाया जायेगा, तब ऐसी घटनाओं को बढ़ावा मिलेगा ही। सरकार को चाहिए कि पोटा से भी कड़ा कानून बनाकर बिना जाति और मजहब देखे मानवता के दुश्मनों का समूल नाश करें। कश्मीर में हालात खराब भले ही दिख रहे हों, पर देश को कतई विचलित होने की आवश्यकता नहीं है। कश्मीर में देश विरोधी ताकतों को सख्ती से कुचला जा रहा है। क्या आप समझते हैं कि सरकार हाथ पर हाथ रखकर बैठी है? नहीं, ऐसी बात नहीं है। देश विरोधी शक्तियों की कमर अब तोड़ दी गई है। अब ये कायरतापूर्ण तरीके से अपने नापाक इरादों को अंजाम दे रहे हैं। सारा देश अमरनाथ यात्रियों के हत्यारों को कुचलना चाहता है। सरकार को भी देशव्यापी जनभावनाओं की जानकारी है। सरकार इन सारी स्थितियों से कत्तई अनभिज्ञ नहीं है।

कश्मीर में सुरक्षा बल किसी भी स्थिति से निपटने में पूर्णत सक्षम एवं समर्थ है। सरकार ने उन्हें उचित कार्रवाई की छूट भी दे रखी है। कश्मीर घाटी के भीतरी इलाकों में ही नहीं, एलओसी पर भी सेना ने आतंकी मंसूबों को पूरी तरह नाकाम बनाते हुए कई कुख्यात नामी आतंकियों को हाल के दिनों में मार गिराया है।

कुचले जा रहे हैं

अमरनाथ जैसी हृदयविदारक, जघन्य, बर्बरतापूर्ण घटनाओं के बाद अचानक से एक तबका कहने लगता है कि देश आतंकवाद के खिलाफ जंग में कमजोर पड़ रहा है। यह बिलकुल सच नहीं है। सरकार इन पर कठोर कार्रवाई कर रही है। इन्हें मार गिराया जा रहा है, लेकिन, निर्दोष आम जनता को किसी प्रकार का नुकसान न पहुंचे, यह भी सुनिश्चित करना किसी भी लोकतांत्रिक सरकार की जिम्मेदारी बनती है। अब कश्मीर की जनता को भी राज्य में हालात सामान्य बनाए रखने के लिए सरकार और सेना का साथ देना ही होगा, नहीं तो उन्हें भी आतंकवादियों की श्रेणी में रखा जा सकता है और वे सरकारी कार्रवाई के भागी बनेंगें। वास्तविकता यह है कि देश विरोधी तत्वों की हरकतों के कारण सामान्य कश्मीरी जनता त्राहि-त्राहि कर रही है। राज्य में पर्यटन उद्योग बुरी तरह तबाह हो चुका है। कुटीर उद्योग और हस्त शिल्प के मशहूर काम-धंधे समाप्तप्राय हो गये हैं। इससे आम कशमीरी बर्बाद हो चुका है। उन्हें अब इन देश विरोधी ताकतों से दुबक कर रहने की बजाय उनका खुलकर विरोध करने के लिए सामने आना ही होगा। मारे तो वे वैसे भी जा रहे हैं। अब इसी में उनकी भलाई है और इसी में उनका सुरक्षित और उज्जवल भविष्य भी है कि वे उठ खड़े हों और सरकार का साथ दें। कश्मीर में पाक प्रायोजित आतंकवाद ने तीन पीढियां तो बर्बाद कर ही दीं। आखिर, और कितनी कश्मीरी पीढ़ियों का भविष्य कुर्बान होगा। कश्मीरी अवाम को इन खून के प्यासों से दूर होना होगा और विकास के मार्ग पर आगे बढ़ना होगा।
खाक टक्कर लेंगे

यदि कश्मीरी जनता की कोई समस्या है भी तो लोकतांत्रिक तरीके से अहिंसक आंदोलन करके अपनी मांगों को मनवा सकते हैं। सत्याग्रह का रास्ता अपना सकते हैं। इतना तो कश्मीरी अवाम को समझ ही लेना चाहिए कि यदि वे लोकतंत्र के रास्ते पर चलने को राजी नहीं हैं तो उन्हें भी कठोर सजा मिलेगी , जैसे किसी भी देशद्रोही को मिलती है। क्या ये भारत की राजसत्ता से लोहा लेंगे? भारत की राजसत्ता का मतलब इन्हें समझना होगा। ये नहीं जानते कि तिब्बत के धार्मिक नेता दलाई लामा को वर्षों से भारत ने अपने यहां शरण दे रखी है और चीन भी बारम्बार लाल-पीला होने के बाद भी कुछ नहीं कर पा रहा। बस कसमसा कर रह जा रहा है। उसे भी पता है कि यदि भारत की सरकार और भारत की राष्ट्रप्रेमी जनता डटकर खड़ी हो जाये तो उसका क्या मतलब होता है। भारत की इस सार्वभौम राजसत्ता से ये कश्मीरी आतंकी क्या खाक टक्कर लेगें। ये सरेआम लूट, दादागीरी , बलात्कार और हफ्ता वसूली का धंधा मात्र कर सकते हैं। यही उनकी असली औकात है। उनके आकाओं को भी यह अच्छी तरह मालूम है कि वे भारत की राजसत्ता से लोहा नहीं ले सकते। ये भोले-भाले ग्रामीणों को अपने जाल में फंसाकर उनको जबरदस्ती सामने करके खूनी खेल खेलते रहते हैं। कश्मीर में अमरनाथ यात्रियों के मारे जाने के बाद से मानवाधिकार बिरादरी को सांप सूंघ गया है। ये तीर्थ यात्रियों के खून बहने पर चुप हैं। ये तब भी चुप रहते हैं जब केन्द्रीय अर्धसैनिक बलों के जवान शहीद हो जाते हैं। मानो निर्दोष जवानों और तीर्थ यात्रियों के मानवाधिकार न हों। इनकी किस्मत में पत्थर या गोली खाना ही लिखा हो। डूब मरें ऐसे मानवाधिकारवादी ! ये भी राष्ट्रद्रोहियों की श्रेणी में आ सकते हैं।

शातिरों के मानवाधिकार

निश्चित रूप से भारत जैसे देश में हरेक नागरिक के मानवाधिकारों की रक्षा करना सरकार का दायित्व है। कहने की जरूरत नहीं है कि व्यक्ति चाहे अपराधी ही क्यों न हो, जीवित रहने का अधिकार उसे भी है, यही मानवाधिकारों का एक मूल सिद्धांत है। मानवाधिकार तो मानवों के लिए ही हैं। जो अधिकार अपराधियों के प्रति भी संवेदना दिखाने के हिमायती हों, वह आम नागरिकों के सम्मान और जीवन के तो रक्षक होंगे ही। कभी-कभी लगता है कि इस देश के पेशेवर मानवाधिकारों के रक्षक सिर्फ अपराधियों के प्रति ही संवेदनशील हैं, नागरिकों के प्रति नहीं। जो अमानवीय कृत्यों में लिप्त हों, उनका मानवाधिकार कैसा?

न बचें देशद्रोही

बेशक, सरकार ऐसे देशद्रोही मानवाधिकारवादियों पर भी “राष्ट्रद्रोह” का मुकदमा चलाये। अरुंधति राय उन कथित छद्म सेक्यूलर मानवाधिकारवादी लेखकों के समूह का नेतृत्व करती हैं, जिन्हें भारत विरोध प्रिय है। लेखकों की यह जमात घोर सुविधाभोगी है। ये वही लेखक हैं, जो दादरी कांड के बाद अभिव्यक्ति की आजादी का कथित तौर पर गला घोंटे जाने की घोषणा करने के बाद अपने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा रहे थे। अमरनाथ में मारे तीर्थयात्रियों के बर्बरतापूर्ण हत्या पर अरुंधति राय क्यों नहीं आंसू बहातीं? अरुंधति राय की यासीन मलिक के साथ हाथ में हाथ डाले फोटो देखिए गूगल सर्च करके। मुंबई हमलों के मास्टरमाइंड हाफिज सईद के साथ बैठकर यासीन मलिक इस्लामाबाद में भारतीय हाई कमीशन के बाहर धरना देते हैं। अब जरा अंदाजा लगा लीजिए कि किस तरह के आस्तीन के सांप इस देश में पल रहे हैं। क्या अरुंधति राय भूल गई हैं कि सन 2008 में पाकिस्तान से आए आतंकियों ने मुंबई में करीब 200 लोगों का खून बहाया था? उस सारे अभियान का अगुवा था हाफिज सईद। अरुंधति राय से मैं जानना चाहता हूं कि उन्होंने कौन सी कालजयी पुस्तक लिखी है? क्या उनके लेखन से देश का आम-जन वाकिफ है? जवाब होगा कि कतई नहीं। और यही उनकी सबसे बड़ी असफलता है। अमरनाथ में खूनी खेल खेलने वाले भारत के विचार नहीं मानते। वे बहुलतावादी और विविधता से भरपूर भारत को ठेंगे पर रखते हैं। हमारा देश अब यह स्वीकार नहीं करेगा।


लेखक- आर.के. सिन्हा, राज्यसभा सदस्य

Updated : 14 July 2017 12:00 AM GMT
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