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हिन्दुत्व के ध्रुवतारा युगदृष्टा गुरूजी

हिन्दुत्व के ध्रुवतारा युगदृष्टा गुरूजी
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भारत माता की कोख से समय-समय पर अनेक महान व्यक्तियों ने जन्म लिया है। फिर भी श्रीराम, श्रीकृष्ण, महाराणा प्रताप, क्षत्रपति शिवाजी, गुरू गोविन्द सिंह, रामकृष्ण परमहंस, समर्थ रामदास और स्वामी विवेकानन्द जैसे हिन्दुत्व रक्षक अनेक महात्माओं की परंपरा में 20वीं सदी के प्रथम चरण में जन्मे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के द्वितीय सरसंघ चालक पूज्य माधवराव सदाशिवराव गोलबलकर उपाख्य श्री गुरूजी का नाम अविस्मरणीय है। तब बी.बी.सी. से समाचार आता था कि भारत की जनता में पंडित नेहरू के बाद अगर कोई व्यक्ति सबसे ज्यादा प्रिय है तो वे तत्कालीन सरसंघ चालक माधव राव सदाशिवराज गोलबलकर अर्थात श्री गुरूजी हैं। आखिर ऐसा क्या था आकर्षण इस व्यक्ति में? धोती, कुर्ता और चप्पल के सादे वेश में काली सफेद लहराती दाढ़ी, कन्धे पर झूलते बाल, उनकी मोहनी किन्तु गम्भीर मूर्ति, गहरी आखें ,तेज चाल और विलक्षण बुद्धि यह उनकी विशेषता थी। संघ के सरसंघचालक गुरूजी के सम्पर्क में जो एक बार भी आया वह उनसे प्रभावित होकर ही गया। बिखरे हुए बालो के जाल में जिसका मन एक बार उलझा वह कभी सुलझ न सका निष्कपट हृदय को व्यक्त करने वाला स्नेह और प्रेम से भरा वह अट्टहास जिसने सुना, वह उसको आजीवन भूल न सका। प्रेम की प्रतिमूर्ति श्री गुरूजी, ‘‘गुरूजी‘‘ इस नाम से ही अधिक प्रसिद्ध हैं। छोटे, बडे, बूढ़े, परिचित - अपरिचित सभी उन्हे गुरूजी कहते हैं। बहुतों को भ्रम है कि संघ के प्रधान नेता होने के कारण वे गुरूजी कहलाते हैं किन्तु वे संघ के सरसंघचालक नियुक्त हेाने के पहले भी गुरूजी थे।

संघ की बागडोर हाथ में लेने पर भी गुरूजी रहे, संघ पर प्रतिबंध लगने पर भी गुरूजी थे, प्रतिबन्ध हटने के बाद भी गुरूजी थे, और भविष्य में भी गुरूजी ही रहेंगे। संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार जी के संकल्पों को साकार रूप देने वाले पूज्य श्री गुरूजी का जन्म मध्य प्रान्त की राजधानी नागपुर में 19 फरवरी 1906 सेामवार विजया एकादशी प्रातः 04:30 पर माता श्रीमती लक्ष्मी बाई; ताई तथा पिता श्री सदाशिवराव; भाऊ की गोद इस बालक के जन्म लेने से धन्य हो गयी। नागपुर के भोसले राजाओं के महल में प्रातः कालीन दुन्दुभि और नगाड़े बज रहे थे, मानो वे घोषणा कर रहे थे कि यह बालक केवल अपने परिवार के लिए ही नहीं, सम्पूर्ण हिन्दू समाज एवं देश के लिए शुभदायक सिद्ध हेागा। उनके पिता भाऊजी ज्ञानमार्गी थे तो माता ताई भक्तिमार्गी थीं। भाऊजी शान्ति प्रकृति के थे तो ताई वाक्प्रिय थीं। भाऊजी एकान्तवासी थे, तो ताई लेागों से मेलजोल रखना पसंन्द करती थीं। उनका जीवन एक दूसरे का परस्पर पूरक व पोषक था। लक्ष्मीबाई गृहलक्ष्मी होने के साथ गुण लक्ष्मी भी थीं। भाऊ व ताई की नौ संतानें हुईं जिनमें से सात तो अल्पआयु में ही चल बसीं। तीसरा पुत्र अमृत 15 वर्ष में चल बसा। संतानों में माधव का क्रम चौथा रहा और यही एकमात्र नौ रत्नो में एक रत्न बचा। सभी उसे शुभ लक्ष्यों से उक्त समझने लगे। भाऊ उसे प्रेम से सवाई माधवराज कहते थे। बालक का नाम रखा गया माधव परन्तु मां तो सदैव प्यार से मधु कहकर बुलाती थी, मामा श्री बालकृष्ण राव के घर जन्मे बालक माता-पिता की नौवीं व अंतिम संतान थे।

बालक माधव की बुद्धिमत्ता के अनेक किस्से उनके विद्यालय में विख्यात थे। गणित का सवाल हल करना तो उनके लिये हंसी का खेल था । शिक्षक श्यामपट में प्रश्न लिखता और माधव खड़ा होकर उत्तर बता देता था। एक बार विद्यालय के निरीक्षण करने निरीक्षक महोदय आने वाले थे। संयोग कि उस दिन गुरूजी बीमार हेा गये और स्कूल न जा सके। हेडमास्टर सूचना पाते ही चिन्तित हेा गये, क्योकि उन्हे विश्वास था कि यदि माधव स्कूल में होगा तो निरीक्षक महोदय स्कूल से अवश्य प्रभावित हेाकर जायेंगे। पांच- छः बच्चों को माधव के घर भेजा। माधव को चारपाई सहित विद्यालय उठा लाये। निरीक्षक महोदय माधव के उत्तरों एवं योग्यता से बहुत प्रभावित हुए, तथा चार रुपये मासिक छात्र वृत्ति की घोषणा की। शैशव का मधु, किशोरावस्था का माधव, प्रबुद्ध व प्रौढ़ अवस्था के गुरूजी ने 1924 में इन्टरमीडियट की परीक्षा उत्तीर्ण की। अंग्रेजी विषय में प्रथम पारितोषित प्राप्त किये। 1926 में उन्होने बी.एस.सी. की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की, 1928 में एम.एस.सी. की परीक्षा प्राणि शास्त्र में उत्तीर्ण की, एल.एल.बी. की परीक्षा पूर्ण की। मेधावी छात्र के रूप में संस्कृत, अंग्रेजी, हिन्दी, मराठी, बांग्ला आदि अनेक भाषाओ के ज्ञाता होने के साथ साथ रामायण , गीता, बाइबिल आदि ग्रन्थों का भी पाठन किया। स्वामी अखण्डानंद जी, स्वामी अमूर्तानन्द जी आदि अनेको अाध्यात्मिक विभूतियो का प्यार व सानिध्य प्राप्त था। दीक्षा देते समय 13 जनवरी 1937 मकर संकाति के पावन पर्व पर स्वामी विवेकानन्द के गुरू भाई स्वामी अखण्डानंद जी ने कहा माधव तेरा यह जीवन डॉ. हेडगेवार द्वारा प्रारम्भ संघ के उदान्त लक्ष्य के लिये कार्य करने हेतु है। आध्यात्म साधना पाने संघ की नित्य शाखा जीवन का साधना मार्ग मिल गया। हिन्दू विश्वविद्यालय काशी में विद्यार्थियों व मित्रों द्वारा प्राप्त नाम गुरूजी तथा सिर व दाढ़ी के केशों को जीवनपर्यन्त संजोकर रखने का आशीर्वाद भी अखण्डानन्द महाराज जी से मिला।

अपने हाथों ही बद्रिकाश्राम, बद्री धाम यात्रा में पिन्डदान किया। गुरू जी ने राष्टीय स्वयंसेवक संघ के माध्यम से मात्रभूमि की सेवा का व्रत लिया। हिन्दू समाज के संगठन के विना भारत मां पुनः गौरवान्वित नहीं होगी, यह अच्छी तरह समझ कर उन्होंने डॉ. हेडगेवार जी के द्वारा 26 सितम्बर 1925 में रोपे गये संघ वृक्ष को पल्लवित पुष्पित करने में जीवन का एक-एक क्षण आस्थापूर्वक खपा डाला। गुरूजी के आध्यात्म चिंतन जीवन से प्रेरणा लेकर लाखों स्वयंसेवकों ने संघ कार्य के लिए स्वयं को समर्पित किया । 21 जून 1940 को शुक्रवार के दिन प्रातः नौ बजकर 27 मिनट पर डॉ. हेडगेवार जी की मृत्यु हेा गयी। रेसिंग बाग का संघ स्थान डॉ. हेडगेवार जी की प्रिय कर्मभूमि थी। उसी जगह तीन जुलाई 1940 को सायंकाल पूज्य श्री गुरूजी को सरसंघचालक घोषित कर प्रणाम किया गया। उस दिन श्री गुरूजी का बौद्धिक बहुत ही प्रभावी व प्रेरक रहा।
मा. सरस्वती के साक्षात दर्शन - गोवर्धन पीठ के शंकराचार्य पूज्य श्री भारती कृष्ण तीर्थ जी एक वार नागपुर प्रवचनों के लिये आये थे। श्री गुरू जी उन्हें सुनने नित्य जाया करते थे। उन्हें लगा श्री गुरूजी एक अच्छे श्रोता हैं, अतः उनसे भेंट करने की इच्छा हुई। श्री गुरूजी ने उन्हें कार्यालय आने को कहा। श्री गुरूजी से आध्यात्म विषयक चर्चा होते उन्हे लगा कि गुरूजी की साधना उनसे बहुत आगे है। वह विष्मित होकर यह पूछ ही बैठे कि गुरूजी क्या आपने भगवान के दर्शन किये हैं? श्री गुरूजी कुछ बोले नहीं। उनके आग्रह पर श्री गुरूजी ने कहा- आप वचन दें कि इसे किसी से आप नहीं कहेंगे तो मैं कुछ कह सकता हॅू। वचन मिलने पर श्री गुरूजी ने कहा कि संघ के प्रतिबन्ध के समय जब मै बैतूल कारागार में बन्द था, वहां मैने करुण स्वर में मैंने भगवान से प्रार्थना की थी कि परम पूज्य श्री डॉ. साहब ने संघ कार्य का भार मुझे सौंपा है परन्तु आज संघ के असंख्य स्वयंसेवक देश की विभिन्न जेलों में बन्द हैं। संघ शाखां भी बन्द हैं। क्या संघ की समाप्ति मेरे ही कार्यकाल में होगी? तो वहां मुझे मां भगवती के साक्षात दर्शन हुए। उनका शुभाशीष प्राप्त हुआ। बैतूल के जेलर श्री गुरूजी को यह बताने आये कि केन्द्र सरकार संघ से प्रतिबन्ध न हटाकर और कठोर कार्यवाही करने वाली है। श्री गुरूजी के मुख से निकला कि मै कल ही छूटने वाला हॅू। जेलर को आश्चर्य हुआ, रिलीफ वारेन्ट दूसरे दिन आ गया। गुरूजी के लिए जगन्नाथ मंदिर के बन्द दरवाजे खोले गये। पूज्यनीय गुरूजी 1958 में पहली बार जगन्नाथपुरी पधारे। साथ में आचार्य गिरिराज किशोर, प्रान्त प्रचारक श्री बाबूलाल पालभीकर भी थे, मंदिर का पट बन्द हेा गया था। एक दिन पहले उड़ीसा के राज्यपाल श्री सुखटकर जी एवं मैसूर के नरेश चरमराज वाडियार विलम्ब से आये, इसलिये वे दर्शन नहीं कर सके थे। वहां के पुजारी से चर्चा की तो उसने तत्काल जगन्नाथ जी की नियमावली ले कर देखा और कहा कि नियम की एक धारा के अनुसार नेपाल नरेश, पुरी नरेश, एवं हिन्दू परिब्राजक जब भी आयें भगवान के दर्शन उनकेा कराये जायं। गुरूजी परिब्राजक हैं , इसलिए गुरूजी सहित तीनों लोग महाप्रभू के दर्शन कर सके। वे संकट को भांप लेते थे। सात नवम्बर, 1966 के दिन बहुत बड़ी संख्या में संत -महात्मा व अन्य लोग भाग लेने के लिए दिल्ली आए। यह आश्चर्य हुआ कि सभी प्रमुख आ गये परन्तु श्री गुरूजी क्यों अनुपस्थित हैं। थोडी देर बाद रहस्य खुल गया कि गौ हत्या के समर्थकों ने एक बडा षडयंत्र रचा। संसंद भवन से लगे जो भी वाहन खड़े थे, उनको आग लगाकर इस आन्दोलन पर पुलिस बल द्वारा आंसू गैस के गोले तथा रायफल की गोली चलाकर महात्माओं को मारने की योजना बनाई गयी और पहला शिकार श्री गुरूजी को ही बनाने का षडयंत्र था। श्री गुरूजी के आयोजन में भाग न लेने से उनकी सारी योजना असफल हेा गई ।
पांच जून, 1973 को प्रातः ही उन्हें अपने महाप्रयाण का पूर्वाभास हेा गया था। अपने मित्र सहयोगी तथा निजी सचिव डॉ. आबाजी थन्ते से उन्होने कहा आबा आज घंटी बज रही है। लगता है बुलावा आने वाला है, रात्रि नौ बजकर पांच मिनट पर श्री गुरूजी ने दीर्घ श्वास लेकर मन ही मन अपने गुरू स्वामी अखण्डानंद तथा अपने मार्ग दर्शक डॉ. हेडगेवार का पावन स्मरण किया और भारत माता की जय बोलते हुए देह त्याग दिया। इस तरह 33 वर्षो की वह अखण्ड प्रवास की साधना आज ही के दिन पूर्ण हेा गई। सारे देश में शोक की लहर छा गई। उनके अंतिम दर्शन के लिए नागपुर कार्यालय पर भीड़ उमड़ पड़ी। जिस महापुरूष ने सैदव फूल माला से और पैर छुआने से परहेज रखा, आज उनके पार्थिव शरीर पर फूल चढाकर तथा उनके चरणो में मस्तक रखकर बड़ बड़े लेाग अपने को धन्य मान रहे हैं। छह जून सायंकाल उनकी अंतिम यात्रा प्रारम्भ हेाने के पूर्व उनके तीन पत्र पढ़े गये जो उन्होंने दो माह पूर्व ही लिखकर रख दिये थे। पहले पत्र के अनुसार उन्होने तत्कालीन सरकार्यवाह श्री बाला साहब देवरस को नवीन संरसंघचालक का दायित्व सौंपा, दूसरे पत्र में अपने कार्य को व्यक्ति पूजक नहीं अपितु ध्येय पूजक बताते हुए अपना कोई स्मारक न बनाने का निवेदन किया और तीसरे पत्र में सभी स्वयंसेवकों को सम्बोधित करते हुए उनसे अपनी कभी भी हुई भूल के लिए क्षमा मांगी। पत्रों को सुनकर सभी की आखें नम हेा गयीं, कई सिसकियां लेकर रोने लगे। रेशमबाग संघ स्थान पर डॉ. हेडगेवार की समाधि के सम्मुख उनकी चिता सजाई गई। ध्वजारोहण, प्रार्थना और दिवंगत सरंसघचालक को अंतिम प्रणाम देकर चिता को अग्नि दी गई। अपने जीवन में विश्राम को कभी महत्व न देने वाला भारत माता का वह प्रिय सपूत आज मातृभूमि की गोद में चिर विश्रान्ति हेतु सो गया।

लेखक - राजेंद्र पाण्डेय

Updated : 4 Jun 2017 12:00 AM GMT
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