दौर है विनिवेश का
यह दौर ही संभवत: विनिवेश का है। अत: एयर इंडिया के विनिवेश के भारत सरकार के निर्णय पर अब कोई हैरानी नहीं है। देखना अब सिर्फ इतना है कि यह दौर आखिर कितना लंबा चल पाएगा? कारण एक सामान्य बुद्धि भी यही कहती है कि निवेश था तो आज हमने विनिवेश कर लिया, जब यही नहीं बचेगा तब क्या बेचने वाले हैं?
यह दौर ही संभवत: विनिवेश का है। एयर इंडिया के विनिवेश की बात थोड़ा आगे चलकर। अभी तो यह लग रहा है कि हम शायद चिंतन के स्तर पर भी कहीं न कहीं विनिवेश के दौर में है। हम मूल्यों का विनिवेश कर रहे हैं, संस्कारों का विनिवेश कर रहे हैं, विश्वास का विनिवेश कर रहे हैं और माफ कीजिए यह सिर्फ सरकार के स्तर पर नहीं हो रहा है, हमारी जीवन शैली का एक अनिवार्य हिस्सा बन चुका है-विनिवेश। हम अपनी जमीन धीरे-धीरे, आहिस्ता-आहिस्ता खोते जा रहे हैं। याद आ रहे हैं दुष्यंत-
तुम्हारे पांव के नीचे कोई जमीन नहीं
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यकीन नहीं।
थोड़ा ठहरकर आप हम सब विचार करेंगे तो ध्यान में आएगा कि तेजी से आगे बढ़ने की इस अंधी दौड़ में हर तरफ विनिवेश ही विनिवेश है। अत: ऐसे संक्रमण काल में केन्द्र सरकार एयर इंडिया को भी सरल भाषा में बेचने की तैयारी करे तो कोई अचरज नहीं।
यह दौर ही विनिवेश का है। यह दौर ही बेचने का है। जाहिर है केन्द्र सरकार भी बेच-बेच कर अच्छे दिन लाने की तैयारी में है। मैं अर्थशास्त्र का सामान्य सा विद्यार्थी हूं। समझ में सिर्फ इतना सा नहीं आ रहा कि एयर इंडिया को 64 साल पहले भारत सरकार ने टाटा समूह से खरीदा था। सरकारी आंकड़े कहते हैं एयर इंडिया 50000 करोड़ के घाटे में है और 52 हजार करोड़ का कर्ज भी है। पर इतने बड़े घाटे के उपक्रम को टाटा समूह क्या ‘चैरिटी’ के लिए खरीदना चाहता है? विचार करें। यही नहीं एयर इंडिया के अधिकारी अभी इसे बेचने के पक्ष में नहीं हैं। उड्डयन मंत्री जयंत सिन्हा की मानें तो वर्ष 2015-16 में 105 करोड़ का परिचालन लाभ एयर इंडिया को हुआ है। ऐसे में विनिवेश की यह जल्दबाजी क्यों?
लिखना प्रासंगिक होगा कि भारतीय अर्थ व्यवस्था में विनिवेश शब्द मनमोहन सिंह जब वित्तमंत्री थे तब पहली बार 91-92 में आया। यह आर्थिक उदारीकरण के दौर की शुरुआत थी। 90 के दशक में शुरु हुआ यह दौर प्रारंभ में तेजी से चला पर बाद में इसमें गति अवरोधक भी लगे। आंकड़े बताते हैं 2008 तक सरकार ने लगभग 54 हजार करोड़ का विनिवेश किया। वर्तमान केन्द्र सरकार ने 69500 करोड़ रुपए विनिवेश का लक्ष्य रखा है। इसके तहत नीति आयोग ने 74 सरकारी उपक्रमों में से 34 उपक्रमों में विनिवेश की सलाह दी है। प्रारंभ में विनिवेश उन उपक्रमों का किया जाता था जो घाटे में चल रही है। पर वर्तमान केन्द्र सरकार इंडियन आइल का दस फीसदी बेचकर 9500 करोड़ एनएचपीसी का 11.31 प्रतिशत बेचकर 2700 करोड़ और कोल इंडिया का 10 फीसदी बेचकर 21.137 करोड़ जुटाना चाहती है। ये सिर्फ कुछ उदाहरण है। यही नहीं रेलवे भारतीय जीवन बीमा निगम सहित भारतीय उपक्रमों की चरणबद्ध आंशिक बिक्री पर विचार कर रही है। बेशक केन्द्र सरकार की नीयत देश के सर्वांगीण विकास की हो और वह प्रयास भी कर रही है। बेशक सरकार का काम कारोबार करना नहीं है, पर आज इस प्रश्न पर विचार सूची लंबी की जा सकती है करना आवश्यक होगा कि कहीं यह जल्दबाजी एक महंगा सौदा न हो जाए।
देश को एक बड़े आर्थिक सुधार की आवश्यकता है। खेती मरघट बन चुकी है। विमुद्रीकरण एवं अंतरराष्ट्रीय मंदी के चलते उद्योग धंधे चौपट हैं। रोजगार सृजन लगभग ठप है। जीएसटी एक क्रांतिकारी पहल है पर यह भी सच है कि देश अभी इसके लिए तैयार पूरी तरह से नहीं है। आधी रात का जश्न अब कुछ ही घंटों की दूरी पर है।
चलते-चलते एक सवाल : रात को जब भारत में 12 बजते हैं तब लंदन में सुबह के 6 बजते हैं। 15 अगस्त 1947 को देश की आजादी का जश्न इसीलिए रात 12 बजे ही हुआ था कारण लंदन में सुबह थी। आज 2017 है क्या देश की आजादी का यह जश्न ( (उत्सव) सूर्योदय के समय नहीं हो सकता था? या यह भी एक पुरानी परम्पराओं के विनिवेश की अगली कड़ी है?
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