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दिग्गी की नर्मदा परिक्रमा बनाम राजनीतिक परिक्रमा

दिग्गी की नर्मदा परिक्रमा बनाम राजनीतिक परिक्रमा
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गुना। हालांकि समय बहुत हो चुका है, पर वह भी एक दौर था जब पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की न सिर्फ कांग्रेस बल्कि समूचे प्रदेश की राजनीति में तूती बोला करती थी। अपने राजनीतिक जीवन के उस स्वर्णिम काल में श्री सिंह ने प्रदेश पर 10 साल तक निष्कंटक राज किया, अपने राजनीतिक गुरु अर्जुन सिंह से भी ज्यादा। तब श्री सिंह के राजनीतिक सितारे बुलंद थे और इसी के चलते वह अपने राजनीतिक विरोधियों को जब, जहां, जैसे चाहा, वैसे निपटाने में कामयाब रहे। श्री सिंह की इसी फितरत के चलते राजनीतिज्ञ पंडितों ने उन्हें चाणक्य का संबोधन दिया। इतना ही नहीं, दिग्विजय सिंह की तत्कालीन राजनीतिक बुलंदियों के चलते कहा तो यहां तक जाने लगा था कि जाहि विधि राखे दिग्विजय ताहि विधि रहिए। इसके बाद आए वर्ष 2003 के विधानसभा चुनाव। जिसमें भाजपा की फायर ब्रांड नेत्री उमाश्री भारती का प्रदेश के राजनीतिक पटल पर उदय हुआ। तब तक श्री सिंह के स्वभाव में आश्चर्यजनक परिवर्तन आ चुका था और उनके बयानों और क्रियाकलापों में अहंकार झलकने लग गया था। इसी को आधार बनाते हुए उमाश्री बलि बढ़ो न होए है, समय होत बलवान, भीलन लूटी गोपिकाएं, वही अर्जुन वही बाण का जयघोष करते हुए चुनाव समर में कूंदी और दिग्विजय शासन को न सिर्फ जड़ से उखाड़ फेंका, बल्कि अब तक की सबसे शर्मनाक पराजय का सामना कांग्रेस को करा दिया। तत्समय लगा था कि अब राघौगढ़ किले के इस राजा का कद बौना होना शुरू होगा, किन्तु ऐसा हुआ नहीं। इसके विपरीत राजनीति के यह तत्कालीन चाणक्य और अधिक ताकतवर रुप में सामने आए। न सिर्फ कांग्रेस महासचिव जैसी महत्वपूर्ण और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी में नंबर -2 की जिम्मेदारी उन्हें सौंपी गई, बल्कि उत्तर प्रदेश, कर्नाटक जैसे बड़े राज्यों का प्रभार भी श्री सिंह को सौंप दिया गया। बहरहाल श्री सिंह के वो दिन अब न रहे, तब से लेकर अब तक नर्मदा में काफी पानी बह चुका है। पिछले लंबे समय से कांग्रेस के अंदर और उसके बाहर दिग्विजय सिंह उपेक्षा का शिकार हो रहे हंै। उनके राजनीतिक विरोधी तो उनके ऊपर हावी हो ही रहे हैं, समर्थक भी साथ छोड़ते जा रहे हैं।

हालांकि कांग्रेस महासचिव जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी अभी भी उनके कंधों पर है और प्रदेश कांग्रेस के खास सिपहसलारों में भी वह गिने जाते है, किन्तु बहुत कुछ ऐसा है जो बदल चुका है। गोवा और कर्नाटक का प्रभार तो उनसे छीना ही जा चुका है, साथ ही कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी से नजदीकी भी पहले जैसी नहीं रही, कांग्रेस संगठन में उनके खिलाफ विरोधी स्वर तेज हैं तो चुनाव लड़ने वाले कांग्रेसियों के लिए तो वह अछूत ही हो चुके है। यानि दिग्विजय सिंह नाम का यह सूरज अस्त होने के कगार पर है। यह सिर्फ हम नहीं कह रहे, बल्कि संभवत: खुद दिग्विजय सिंह भी यह भांप चुके हंै। श्री सिंह यह समझ चुके है कि अब भी अगर उन्होंने अपनी सक्रियता दिखाकर राजनीतिक ताकत प्रदर्शित नहीं की तो उनका मध्यम पड़ता राजनीतिक सूर्य वास्तव में दूसरे दिन का सवेरा करने के बजाए सदैव के लिए अस्त हो जाएगा। श्री सिंह की इसी समझ का प्रमाण है उनकी इन दिनों चल रही माँ नर्मदा परिक्रमा। श्री सिंह भले ही लाख दावे करें कि उनकी यह यात्रा राजनीतिक नहीं होकर पूर्ण धार्मिक और आध्यात्मिक है, किन्तु ऐसे एक नहीं, बल्कि कई कारण हंै जिसके चलते राजनीतिक पंडित इस यात्रा को राजनीति से जोड़ रहे है।

पहला : और सबसे महत्वपूर्ण कारण है समय। यह यात्रा ऐसे समय में हो रही है जब प्रदेश में विधानसभा चुनाव साल भर बाद दस्तक देने जा रहे हंै तो उससे कुछ पहले गुजरात विधानसभा का चुनावी समर सजना है। यहां यह भी बताते चलें कि श्री सिंह की 3400 किलोमीटर की यह यात्रा अपनी छह माह की आयु में प्रदेश की 230 में से 110 और गुजरात की 20 विधानसभा सीमाओं को छुएगी।

दूसरा: कांग्रेस में श्री सिंह के राजनीतिक विरोधियों की ताकत लगातार बढ़ रही है और उनके समर्थक है कि उनसे दामन छुड़ा रहे है।

तीसरा: कांग्रेस में मुख्यमंत्री पद की दावेदारी को लेकर सिर फुटव्वल तेज है और इसमें भी श्री सिंह के धुर विरोधी एवं प्रदेश कांग्रेस राजनीति के एक और ध्रुव सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया के हाल फिलहाल नंबर बढ़े हुए है।

चौथा: दिग्विजय सिंह करीब 70 साल के हो चुके हंै और इसके चलते उन पर अपना भावी उत्तराधिकारी चुनने का भारी दबाव है। उत्तराधिकारी कौन होगा? इसको लेकर संभावित उत्तराधिकारियों में ही जबर्रदस्त अंदरुनी मतभेद है।

पांचवा: दिग्विजय सिंह दावा तो बार-बार यह कर रहे हैं कि यात्रा राजनीतिक नहीं, बल्कि निजी और धार्मिक है, किन्तु यात्रा के पहले ही दिन कोई मेरी धोती न उठा दे के बयान के जरिए वह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पर कटाक्ष करते हैं।
इन्हीं सब कारणों से श्री सिंह के तमाम दावों के बावजूद उनकी नर्मदा परिक्रमा को राजनीति की थोड़ी सी भी समझ रखने वाला राजनीतिक परिक्रमा मान रहा है। जानकारों का यह मानना है कि नर्मदा परिक्रमा के जरिए श्री सिंह अपनी खोई हुई राजनीतिक जमीन वापस हासिल कर कांग्रेस नेतृत्व को अपनी ताकत का एहसास कराने की मंशा रखते है, किन्तु इससे पहले खुद प्रदेश में अपनी राजनीतिक ताकत को परख लेना चाहते है, जिससे कहीं पासा उलटा ही नहीं पड़ जाए। दिग्गी की इस नर्मदा परिक्रमा को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की नर्मदा यात्रा का जवाब भी माना जा रहा है। शिवराज की वह यात्रा भी प्रचारित तो धार्मिक और प्रदेश कल्याण के लिए ही की गई थी, किन्तु थी विशुद्ध राजनीतिक ही। वैसे पद या रथ यात्राओं का राजनीतिक हथियार नया नहीं है। दिग्गी से पहले भी इस हथियार का इस्तेमाल कई राजनेता कर चुके हैं, संयोग से ज्यादातर बार यह हथियार निशाने पर ही जाकर लगा है। गौर करें : 1990 में भाजपा नेता लालकृष्ण आड़वाणी ने अयोध्या की पावन धरा पर मयार्दा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के मंदिर निर्माण का संकल्प लेकर रथ यात्रा निकाली थी और भाजपा पूरे देश में छाकर अखिल भारतीय स्वरुप ले गई थी। इससे पहले एनटी रामाराव 1982 में आंध्र प्रदेश में यात्रा के जरिए रथ पर ही सवार होकर मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे थे। वायएस राजशेखर रेड्डी भी आंध्र प्रदेश में पदयात्रा करते हुए ही मुख्यमंत्री के पद तक पहुंचे थे। चंद्रशेखर ने भी कदमों से जमीन नापी और उनके नाम के आगे भी प्रधानमंत्री लगा। खुद दिग्विजय सिंह भी इससे पहले 80 के दशक में अविभाजित मध्य प्रदेश के बस्तर से मुरैना तक पदयात्रा कर चुके हैं और इसके बाद ही बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा की कहावत चरितार्थ करते हुए प्रदेश के मुख्यमंत्री बने और फिर 10 साल तक प्रदेश पर एक छत्र राज किया। इतिहास के इन्हीं तथ्यों के चलते अपनी नर्मदा बनाम राजनीतिक परिक्रमा को लेकर श्री सिंह उत्साहित भी है और उम्मीद से भी, खुद को वह मुख्यमंत्री की दौड़ से भले ही बाहर बताएं, किन्तु प्रदेश की राजनीति से उनका मोह बरकरार रहना समय-समय पर जाहिर होता रहा है। अपने इसी मोह के चलते दिग्गी नर्मदा परिक्रमा के माध्यम से माँ नर्मदा से आशीर्वाद लेने निकले हंै, पर वह यह भूल रहे हंै कि माँ नर्मदा से उनसे पहले यह आशीर्वाद प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह लेने का प्रयास कर चुके हंै। मिलता किसे है? इसका पता वर्ष 2018 के विधानसभा चुनाव से चलेगा? फिलहाल की स्थिति में श्री सिंह की इस यात्रा ने उन्हें अपने विवादास्पद बयानों के विपरीत सुर्खियों में भले ही ला दिया हो, किन्तु जमीनी स्तर पर यात्रा कोई हलचल छोड़ती नहीं दिख रही है। यात्रा में न अपने पूरी तरह साथ हंै और न समर्थक, दूरी कांग्रेस के बड़े नेताओं ने भी बना रखी है। साथ है तो सिर्फ जीवन संगिनी।
पुनश्च: पतित पावनी माँ नर्मदा का स्वभाव भी वर्तमान राजनीति की तरह ही है, जहां देश की ज्यादातर बड़ी नदियां पूर्व से पश्चिम की ओर बहती हंै, वहीं माँ नर्मदा पश्चिम से पूर्व की ओर बहती हंै।

Updated : 4 Oct 2017 12:00 AM GMT
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