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भारत की राष्ट्रीयता

भारत की राष्ट्रीयता
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-डॉ. मनमोहन वैद्य

इस समय राष्ट्र, राष्ट्रीयता, राष्ट्रवाद जैसे विषयों पर काफी चर्चाएं चल रही हैं, लेकिन भारतीय संदर्भ में इन शब्दों को न समझते हुए पाश्चात्य अवधारणा के आधार पर इन संकल्पनाओं को समझने के कारण ही इसे लेकर काफी असमंजस की स्थिति निर्मित होती है। पाश्चात्य देशों में ‘नेशन’ की संकल्पना 15 वीं शताब्दी के बाद की है। वहां के ‘नेशन्स’ ने अपनी भौगोलिक सीमा का विस्तार करने के लिए काफी अत्याचार किये, यहां तक कि युद्ध भी किये। यह उनका इतिहास रहा है। इसी के चलते ‘नेशनलिज्म’ शब्द यानी ‘राष्ट्रवाद’ शब्द प्रचलन में आया। पश्चिम के ‘इज्म’शब्द में एक अहंकार, अभिनिवेश, जबरदस्ती थोपना, जबरदस्ती विस्तार करना और तर्क का कमजोर होना अन्तर्निहित हैं। कम्युनिज्म, केपिटलिज्म, सोशलिज्म, फासिज्म, नाजीज्म आदि में यह सब दिखाई भी देते हैं।

हमने (पश्चिम के लोगों ने) ऐसे अत्याचार, आक्रमण किये, इसलिए आप (हिन्दुओं) ने भी ऐसा किया ही होगा, वरन किया ही था ऐसा झूठ वे चलाते रहते हैं और इसे सिद्ध करने के लिए हेतुपूर्वक मिथ्या इतिहास लिखने का प्रयास भी इनके द्वारा किया गया। ‘आर्यों का भारत पर आक्रमण,’ यह निराधार सिद्धांत इन्हीं प्रयासों में से एक है। हिंदुत्ववाद, हिंदुत्ववादी इस तरह के शब्दों का प्रचलन भी ऐसे ही प्रयासों में से हैं। हिंदुत्ववाद यह भारत का शब्द नहीं है। यहां हिंदू (समाज) हैं और हिंदुत्व (Hinduness, not Hinduism) है। भारतीय संदर्भ में राष्ट्रवाद शब्द पाश्चात्य (Nationalism) के कारण भारत में आया।

भारतीय संदर्भ में राष्ट्र का उल्लेख वेदकाल से है। पाश्चात्य देशों में राष्ट्र की संकल्पना राज्य आधारित है जबकि भारत में राष्ट्र की संकल्पना सांस्कृतिक जीवन मूल्यों पर आधारित है। यहां पर अहंकार, अभिनिवेश, दूसरों पर थोपना, जबरदस्ती विस्तार करने जैसा कुछ भी नहीं है। इसलिए राष्ट्रवाद शब्द भारत के संदर्भ में उचित नहीं है। यहां राष्ट्र है और उसकी राष्ट्रीयता है। इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद के स्थान पर भारत की राष्ट्रीयता कहना ज्यादा उचित होगा और इसलिए राष्ट्रीयता जैसे विषय पर चर्चा करने से पहले राष्ट्र क्या है, इसे समझना होगा। हिंदू विचार परम्परा के अनुसार राष्ट्र का अर्थ लोक से है। लोक का अर्थ केवल मनुष्य ही नहीं है। मनुष्य, उसका रहन-सहन, उसका जीवन के प्रति दृष्टिकोण, प्रकृति और प्रकृति की ओर देखने का उसका दृष्टिकोण, इतिहास, परम्परा आदि का मतलब ही लोक है। जिससे मिलकर ही समाज बनता है।

प्राचीन काल से ही ‘आसेतुहिमाचल’ इस भारत भूमि में रहने वाले लोग, उनकी भाषा, जाति, उनकी पूजा पद्धति भौगोलिक परिस्थितियों के चलते उनका खानपान, वेशभूषा आदि विविध होते हुए भी उनका जीवन की ओर देखने का दृष्टिकोण, जीवन का लक्ष्य, जीवन का आदर्श, प्रकृति, समाज व सम्पूर्ण मानव जाति के बारे में सोचने का दृष्टिकोण सैकड़ों वर्षों से एक ही है। इस तरह से यह समाज, इसमें इतनी सारी विविधताएं होते हुए भी, इन विविधताओं के साथ ‘एक’ ही है। अर्थात यह राष्ट्र (समाज) प्राचीन काल से एक है। हमारे समाज का जीवन के प्रति चिंतन समग्र और एकात्म है और इसका कारण इस चिंतन का अध्यात्म आधारित होना है। इसी आध्यात्मिक चिंतन के कारण यहां मान्यता है कि एक ही चैतन्य चराचर में व्याप्त है यानि एक ही चैतन्य पूरे जगत के कण-कण में व्याप्त है। ‘ईशावास्यम् इदं सर्वम्’। यह चैतन्य ही अनेक रूपों में अभिव्यक्त होने के कारण ही यहां विविधता में भी एकता देखने की दृष्टि सहज है। भारत विविधता को भेद नहीं मानता है। यही विविधता सनातन भारतीय संस्कृति की शक्ति रही है।

सभी प्राचीन सभ्यताएँ जो कर्मकांडी कट्टरता व ग्रंथप्रामाण्य को प्रोत्साहन देने वाली थी, वे या तो नष्ट हो गर्इं या फिर शक्तिहीन हो गर्इं। उनमें से एक भारतीय, हिंदू संस्कृति ही सबसे पुरानी और साथ-साथ सबसे आधुनिक संस्कृति है। प्राचीन से आधुनिक तक का यह सफर आध्यात्मिक एकता व तज्जनित सांस्कृतिक विविधता के कारण ही संभव हुआ है। यह विविधता भेदमूलक न होकर शक्तिमूलक है। पश्चिम में plurality की कल्पना व भारत में ‘विविधता में भी एकता’ इन विचारों में मूलभूत अंतर है। वहां मूलत: अलग अलग चीजों में एकता लाने का प्रयास होता है जबकि भारत में ऐसा माना जाता है कि एक ही तत्व अनेक रूपों में अभिव्यक्त हुआ है। Here in Bharat, instead of ‘all are one’ we say ‘all is one’.

दूसरा महत्वपूर्ण पहलू यह है कि ईश्वर (चैतन्य) जो कि एक ही है, उसके कई नाम हो सकते हैं। उस तक पहुंचने के मार्ग भी अलग-अलग हो सकते हैं और ये सभी मार्ग एक समान हैं। इसलिए भारत सहिष्णुता से भी आगे बढ़कर सभी मार्ग एक हैं, सभी मार्ग सत्य है, ऐसा मानता है।‘We go beyond tolerance and accept all ways to be true.’ ऐसा स्वामी विवेकानंद जी ने शिकागो की परिषद में डंके की चोट पर कहा था।

तीसरा महत्वपूर्ण पहलू मनुष्य का अस्तित्व जो कि चार ईकाई शरीर, मन, बुद्धि व आत्मा से मिलकर बना हुआ है। प्रत्येक मनुष्य में ईश्वर (चैतन्य) का वास है। सच तो यह है कि यह ईश्वर (चैतन्य) मनुष्य के माध्यम से ही व्यक्त हुआ है, इसलिए मनुष्य को ‘व्यक्ति’ कहा गया है। इस अन्तर्निहित ईश्वर के अंश को पूर्णरूप से व्यक्त कर मुक्त होना, यही मनुष्य जीवन का अंतिम लक्ष्य है। ऐसा भारत मानता है। अपने अंतर्गत व बाह्य प्रकृति का नियमन करते हुए इस ईश्वर (चैतन्य) के अंश को पूर्णत: व्यक्त होने के प्रयास के विविध मार्ग हैं। किसी भी प्रकार का मार्ग अपनाने का अवसर व स्वतंत्रता सबको है। यह मार्ग ही (अंग्रेजी) ‘Religion’ है। Everyone in Bharat has the liberty and freedom to choose one’s religion or ways of spiritual enlightenment. Hence there is spiritual democracy in Bharat. यह हिंदुत्व है।

मनुष्य (व्यष्टि), समाज (समष्टि), निसर्ग (सृष्टि) व सर्वव्यापी ईश्वर (परमेष्ठि) ये सब क्रमश: विस्तारित होने वाले अस्तित्व हैं। इसलिए इनमें परस्पर विवाद न होते हुए संवाद व समन्वय है। इस संतुलन को स्थायी बनाये रखने को ही भारत में ‘धर्म’ कहा गया। धर्म की कल्पना रिलीजन से काफी अलग व व्यापक है। इसलिए भारत में धर्म रक्षा का तात्पर्य व्यष्टि, समष्टि, सृष्टि व परमेष्ठी के बीच परस्पर संवाद व समन्वय स्थापित करना, उसकी रक्षा करना व उसका संवर्धन करना है। यह धर्म व उसकी रक्षा करना किसी भी रिलीजन का विरोध करना नहीं हैं। लेकिन इस संतुलन (संवाद व समन्वय) को बिगाड़ने का प्रयास करने व इसका विरोध करने वाले तत्वों का विरोध करना, धर्म रक्षा का कार्य हो सकता है। इसी के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने ‘धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे’ ऐसा कहा है। यह वही धर्म है। यह कोई रिलीजन नहीं है।

भारत में रहने वाले हर एक की भाषा जाति, प्रांत, पूजा पद्धति सैकड़ों वर्षों से अलग अलग होने के बावजूद भी सभी की यही जीवनदृष्टि है। इसलिए यहां सैकड़ों वर्षों से रह रहे सभी लोगों की या समाज की विश्व में एक अलग पहचान बनी हुई है। इस अध्यात्म आधारित समग्र व एकात्म जीवनदृष्टि को ही हिंदू जीवनदृष्टि व इस समाज को हिंदू समाज यह नामाभिधान प्राप्त हुआ है। इसलिए यह समाज, उसका बना यह राष्ट्र जिस विशिष्ट जीवनदृष्टि के कारण पहचाना जाता है, उसे ही हिंदू जीवनदृष्टि कहा जाता है। इसलिए इस समाज की यानि की भारत की राष्ट्रीयता हिन्दू है। यह हिंदू राष्ट्र है। इस जीवनदृष्टि की विशेषता का उल्लेख करने वाली डा. सर्व पल्ली राधाकृष्णन की पुस्तक का नाम "hindu view of life" है। कविवर रवीन्द्र नाथ टैगोर की ‘स्वदेशी समाज’ नाम की पुस्तक में किया गया एक उल्लेख भी इस दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। वे कहते हैं...

‘अनेकता में एकता देखना व विविधता के बीच ऐक्य प्रस्थापित करना, यही भारत का अंतर्निहित धर्म है। भारत विविधता को विरोध नहीं मानता व दूसरों को शत्रु के रूप में नहीं देखता है। किसी का भी विनाश किए बिना, एक बृहत व्यवस्था में वह सबको स्थान देता आया है। सभी पंथों को वह स्वीकार करता है और सभी के महत्व को भी वह बखूबी समझता है।’

‘भारत के इसी गुण के कारण किसी भी समाज को अपना विरोधी मानते हुए हम भयभीत होने वाले नहीं हैं। प्रत्येक नये संघात के साथ हम अपने विस्तार की ही कामना करेंगे। हिन्दू, बौद्ध, मुसलमान और इसाई भारत भूमि पर परस्पर लड़कर मरेंगे नहीं। वे यहां एक सामंजस्य खोजने में यशस्वी होंगे ही। यह सामंजस्य अहिंदू नहीं होगा। वह होगा विशेष भाव से हिंदू, उसका अंग प्रत्यंग भले ही देशी विदेशी हो, लेकिन उसके प्राण, उसकी आत्मा भारतीय ही होगी। इसी कारण से हिंदुत्व यानि की अध्यात्म आधारित समग्र व एकात्म जीवनदृष्टि भारतीय समाज की विशेष पहचान रही है। सारे विश्व का अनेक वर्षों का यह अनुभव रहा है। अनेक विदेशी पर्यटक व चिंतकों ने इसका उल्लेख किया हुआ है। यही हिंदू जीवनदृष्टि यहां के समाज की, राष्ट्र की विशिष्ट पहचान है। इसलिए हिंदू, यह गुणवाचक विशेषण इस समाज की, राष्ट्र की विशिष्ट पहचान बनी है। अर्थात यह हिन्दू राष्ट्र है, इसमें किसी प्रकार का कोई विवाद नहीं है और प्राचीन काल से चला आ रहा यह सत्य है।

समाजवादी व वामपंथी लोग इस हिन्दू राष्ट्र की कल्पना के बारे में जानबूझकर मिथ्या प्रचार कर भ्रम फैलाने का प्रयास करते हुए दिखाई देते हैं। उनका एक मात्र यही कहना होता है ये लोक मजहब आधारित राज्य (धर्म राज्य नहीं) माने Theocratic state लाना चाहते हैं। मजहबी राज्य, जहां एक विशिष्ट रिलीजन या संप्रदाय के मानने वाले लोगों को विशिष्ट अधिकार व अन्य लोगों को दोयम दर्जे का अधिकार देने की कल्पना ही अभारतीय है। राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी द्वारा लिखी गई जिस पुस्तक का उल्लेख संघ विरोधी बार बार करते हैं, वह पुस्तक जिस समय लिखी गई, उस समय गुरूजी संघ के पदाधिकारी नहीं थे। संघ के इस विषय की अधिकृत भूमिका श्री गुरूजी ने 1972 में सैफुद्दीन जिलानी नामक पत्रकार को दिए गए, एक साक्षात्कार में स्पष्ट की है। इसका उल्लेख यह झूठ बोलने वाले विरोधी नहीं करते। आज भी संघ की शाखाओं में मुसलमान, ईसाई रिलीजन को मानने वाले स्वंयसेवक हैं। उनके साथ न कोई भेदभाव होता है और न ही उनके प्रति कोई अधिक उदारता दिखाई जाती है। हिन्दू होने के नाते मतांतरण (Conversion) में हमारा विश्वास नहीं होने के कारण उनका मतांतरण (Conversion) का प्रयास भी नहीं किया जाता है। वे अपनी अपनी पूजा पद्धति का पालन करते हुए संघ का भी काम करते हैं। 1998 में जब विदर्भ प्रांत का महाशिविर आयोजित किया गया, तब उसमें तीस हजार स्वयंसेवक तीन दिन तक तंबू में एक साथ रहे। उस समय रमजान का महीना था। इस कारण से रोजा रखने वाले शिविरार्थियों के लिए देर रात रोजा छोड़ने के लिए व्यवस्था की गई थी। उनकी व्यवस्था करने के लिए रोजा रखने वालों की संख्या जब गिनी गई, तब वे 112 लोगों की थी।

मनुवादी कहकर मनुस्मृति के आधार पर छुआछूत को मानने वाले लोग ऐसा मिथ्या प्रचार हिंदुत्व के विषय में किया जाता है। कुछ ऐतिहासिक कारणों के चलते हिंदू समाज में छुआछूत जैसे अत्यंत अमानवीय दोषों का प्रादुर्भाव हुआ, यह दुर्भाग्य से सच भी है। लेकिन संघ ने या संघ के किसी भी अधिकारी ने इसका कभी समर्थन नहीं किया। श्री गुरूजी के आग्रह के कारण ही 1969 में उडुपी में आयोजित हुए धर्म सम्मेलन में सभी धर्माचार्यों ने एक मत से यह प्रस्ताव पारित किया कि छुआछूत को धर्म का कोई प्रश्रय नहीं है, छुआछूत धर्मसम्मत नहीं है। इस तरह की ऐतिहासिक घोषणा इस सम्मेलन में की गई। संघ के तृतीय सरसंघचालक श्री बाला साहेब देवरस ने पुणे के प्रसिद्ध वसंत व्याख्यानमाला में अपने भाषण में कहा कि ‘अगर छूआछूत पाप नहीं है तो फिर इस संसार में कुछ भी पाप नहीं है। छुआछूत का पूरी तरह से निर्मूलन होना चाहिए’ यह सभी जानते हैं।

हिंदुत्व के पैरोकारों पर महिलाओं के सबंध में भेदभाव एवं दुर्भावना रखने वाला होने के आधारहीन आरोप भी लगाए जाते हैं। प्राकृतिक अंतर को छोड़ कर दोनों के मध्य क्या अंतर है? निश्चित ही किसी प्रकार का भी भेदभाव महिलाओं के साथ नहीं होना चाहिए और उनको समाज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में समान रूप से सम्मान व आदर दिया जाए तथा सभी क्षेत्रों में निर्णय प्रक्रिया में उनकी सामान भागीदारी हो, ऐसा प्रस्ताव राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा का है। हिंदुत्व को मानने वाले अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के विरोधी हैं, यहां खुली चर्चाओं को स्थान नहीं दिया जाता, यह लिबरल नहीं है, ऐसा दुष्प्रचार भी समाजवादी व वामपंथियों द्वारा किया जाता है। किन्तु सत्य यह है कि विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जितनी हिंदू विचारों में है, उतनी शायद ही किसी विचारधारा में हो, यह इतिहास बताता है। इसलिए भगिनी निवेदिता कहती हैं ब्रूनो भारत में रहता तो शायद उसे जलाया नहीं जाता।

प्रसिद्ध समाजसेवक डा. अभय बंग राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के एक किसी कार्यक्रम में बतौर मुख्यअतिथि आने वाले थे। महाराष्ट्र के कुछ तथाकथित उदारवादी व प्रगतिशील लोग डा. अभय बंग को अपने गुट का मानते हुए उनके इस निर्णय पर काफी शोरशराबा व हंगामा किए हुए थे। महाराष्ट्र के यह प्रगतिशील व उदारवादी कहने वाले इन समाजवादी लोगों द्वारा ‘साधना’ नाम का एक साप्ताहिक भी निकाला जाता है। इस साधना साप्ताहिक में डॉ. अभय बंग के इस निर्णय के विरुद्ध अनेक लेख भी प्रकाशित किए गए। डा. बंग का कहना था कि आखिर इस कार्यक्रम में जाकर वे अपने ही विचार रखने वाले हैं तो इसे लेकर इतना विरोध क्यों? लेकिन ध्यान कौन देता? डा. बंग संघ के कार्यक्रम में आए और उन्होंने अपने अनुभवशील विचार सबके सामने रखे। इसे उन्होंने साधना साप्ताहिक में प्रकाशनार्थ भेजा भी, लेकिन साधना ने इसे प्रकाशित नहीं किया। ऐसी इनकी उदारता और विचारों की स्वतंत्रता है।

केरल में संघ कार्यकर्ताओं की हत्या में वहां की सत्ताधारी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं का हाथ है। केरल में संघ के जिन स्वयंसेवकों की हत्याएं हुर्इं, उनमें से अधिकांश कार्यकर्ता कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा फैलाये जा रहे भ्रमों से निराश होकर संघ में शामिल हुए कार्यकर्ता थे या फिर जिनके प्रभाव से कम्युनिस्ट पार्टी छोड़कर नवयुवक संघ में आ रहे ऐसे कार्यकर्ता थे। ऐसे में संकीर्ण-हिंसक वामपंथी जब हिन्दुत्व विचार के स्वभावत: उदार लोगों को विचार स्वातंत्र्य का पाठ पढ़ाते हैं तब आश्चर्य होता है।

मेरे केरल प्रवास के दौरान पी. केशवन नायर नाम के एक गृहस्थ मिले। वे कम्युनिस्ट पार्टी के नेता थे। उन्हें ‘वेद में विज्ञान’ नामक लेख लिखने के कारण पार्टी से निकाल दिया गया था। उन्होंने अपने अनुभव के आधार पर, कम्युनिस्ट विचारधारा व उसकी कार्यशैली कैसी है इस पर टिप्पणी करते हुए Beyond Red नामक एक पुस्तक लिखी है। उसमें वे लिखते हैं कि

“This book is an attempt, a long-needed one in Indian context, where Marxists have been able to suppress all honest analysis of their theory with fundamentalist zeal, to look for theoretical grounds for the failure of communism and its attendant cruelties. Like many totalitarian traditions, both religious and political, the only freedom communism gives others is the freedom to praise it”.

Communists always talk about freedom of speech, freedom of expression etc but as per Marxist ideology, personal likes and dislikes, individuality and value of human life are considered taboos. The individual becomes a sacrificial lamb for the establishment of proletarian dictatorship. Communism offers greater possibilities for absolutism than any other political ideology. Communists suppress all ideas and opinions that are not theirs even if it has strong scientific back-up

हमारे ग्रंथों से जो बाहर है, वह सब मिथ्या है, ऐसे पोथीनिष्ठ लोग ही उदारता व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बातें किया करते हैं। हमारे विचारों को न मानने वाले लोगों को जीने का अधिकार ही नहीं, ऐसा मानने वाले असहिष्णु लोग ही आज सहिष्णुता की बातें करते हैं और सभी प्रकार की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सम्मान देने वाले व सभी प्रकार के विचारों को एक ही सत्य की अभिव्यक्ति मानने वाले उदार हिन्दू विचारों को संकुचित व असहिष्णु ठहराने का प्रयत्न किया जा रहा है। ऐसे लोगों पर दया भी आती है।

पाश्चात्य के नेशन की संकल्पना भूमि से जुड़ी हुई है, इसलिए राज्य को उसका अविभाज्य घटक माना गया है। भारतीय संदर्भ में राष्ट्र यह संकल्पना, समाज की, लोगों की संप्रभुता से जुड़ी है। राज्य केवल लोगों की आंकाक्षाओं को अभिव्यक्त करने का साधन मात्र है। ऐसे ही एक राष्ट्र में अनेक राज्य हो सकते हैं जैसे कि प्राचीन भारत में थे। नर्मदा के उत्तर में हर्षवर्धन का व दक्षिण में पुलकेशी का राज्य था, परन्तु प्राचीन काल से ही राष्ट्र या समाज एक ही था। इसी तरह एक राज्य में अनेक राष्ट्र रह सकते हैं जैसे कि सोवियत संघ में था। वहां राज्य के कमजोर होते ही यह सभी राष्ट्र अलग अलग हो गए।

मानव जीवन का अंतिम उद्देश्य अपनी प्रकृति का नियमन करते हुए अपने सुप्त देवत्व को अभिव्यक्त करते हुए मुक्त (मोक्ष) होना ही है। इसलिए यहां भोगवादी जीवन का गौरव न करते हुए त्याग को अधिक महत्व दिया गया है। हिंदुत्व चिंतन में भौतिक संपन्नता की अवहेलना की गई, निषेध किया गया है, ऐसा दुष्प्रचार किया जाता है। भारत में जिस धर्म के आधार पर जीवन जीने का प्रतिपादन किया गया है, उस धर्म की एक व्याख्या ‘‘यतोरभ्युदयनि: श्रेयससिद्धि: स धर्म:’’ के रूप में की गई है। अर्थात भौतिक समृद्धि व मोक्ष प्राप्ति दोनों को ही समान महत्व दिया गया है। इसलिए यहां धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष, इन चार पुरषार्थों के पालन, साधन व आचरण करने पर जोर दिया जाता है।

समाज को अपने पुरुषार्थ, परिश्रम व पराक्रम से इन सब बातों का साध्य-हासिल करना होगा। यह राज्य की जवाबदारी नहीं है। राज्य की भूमिका समाज अर्थात राष्ट्र द्वारा किए गए प्रयत्नों में सहायक हो और इसके लिए सहायक व्यवस्थाओं का संरक्षण करना इतना ही है। कल्याणकारी राज्य (Welfare State यह भारतीय संकल्पना नहीं है। इस प्रकार का राष्ट्र अर्थात समाज की व्यक्तिगत, पारिवारिक, व्यावसायिक व सामाजिक जीवन में हिन्दुत्व के इन शाश्वत, मानवीय मूल्यों का प्रकटीकरण होना, ऐसा संगठित चरित्रवान समाज का निर्माण होना यही इस राष्ट्र का, समाज का हिन्दुत्व प्रकट होना है। यही हिन्दू राष्ट्र की संकल्पना है, यह किसी के विरोध में होने की कल्पना करना ही अवास्तविक है। व्यक्तिगत स्तर पर शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा और सामूहिक स्तर से व्यष्टि, समष्टि, सृष्टि, परमेष्ठि इन सबमें संवाद, सामंजस्य व संतुलन रखने के लिए जो आवश्यक है, वह धर्म (रिलीजन नहीं) है। इसका विरोध रहने का और इसका विरोध करने का किसी को कोई कारण नहीं होना चाहिए।

(लेखक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख हैं।)

Updated : 13 Oct 2017 12:00 AM GMT
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