आरक्षण को तर्कसंगत बनाएं

आरक्षण को तर्कसंगत बनाएं

राजनाथ सिंह 'सूर्य'

पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने हरियाणा विधानसभा द्वारा सर्वसम्मति से पारित निपट तथा कुछ अन्य समुदायों को दस प्रतिशत आरक्षण प्रदान करने के विधेयक के अमल पर रोक लगा दी है। उच्च न्यायालय का यह निर्णय अस्वाभाविक नहीं है। पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के बाद अब गुजरात उच्च न्यायालय का भी इसी प्रकार के निर्देश आने की प्रतीक्षा है जहां पाटीदार समुदाय के साथ कुछ अन्य वर्गों को अलग से आरक्षण देने का प्रस्ताव है। संविधान में आरक्षण के दायरे में आने के लिए जो पात्र हैं उनका उल्लेख किया गया है। उस दायरे के बाहर यदि आरक्षण देना है तो संविधान में संशोधन करना होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने उन्चास प्रतिशत से अधिक आरक्षण को अमान्य घोषित कर रखा है। हरियाणा और गुजरात के पूर्व कई राज्यों ने जिनमें महाराष्ट्र और संयुक्त आंध्र प्रदेश शामिल हैं, मुसलमानों के लिए अलग से चार प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया था, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध करार कर दिया था। संविधान में स्पष्ट उल्लेख और सर्वोच्च न्यायालय के बार-बार फैसले के बाद भी आरक्षण की परिधि में अन्य लोगों को शामिल करने के निर्णय के लिए विभिन्न सरकारें बाध्य हो रही हैं। गुजरात और हरियाणा में जो हिंसात्मक घटनायें हुईं हैं उसमें जाट और पाटीदार समुदाय ने जो हिंसात्मक तरीके अपनाये हैं, वह चिंताजनक है। राजस्थान में गूजरों ने पिछड़ा वर्ग कोटे से अलग अपने लिए आरक्षण की मांग के दौरान जिस प्रकार रेलों के आवागमन को बाधित किया उससे अरबों रूपये की हानि हुई। गुजरात और हरियाणा में भी तोड़-फोड़ और हिंसा की अकल्पनीय घटनाएं घटित हुई है। ऐसा लगता है आरक्षण का मुद्दा राजनीतिक विशेषाधिकार का पर्याय बन गया है। प्रोन्नति में भी आरक्षण के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को निष्प्रभावी करने के लिए संविधान में संशोधन के लिए जहां दबाव बना हुआ है वहीं आरक्षण दायरे से बाहर वर्ग ने हर कदम पर आरक्षण के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। आरक्षण बचाओ और आरक्षण हटाओ वालों के बीच कई राज्यों-विशेषकर उत्तर प्रदेश में जो तनाव पूर्ण स्थिति है वह टकराव तक न पहुंचे इसके लिए आवश्यक सतर्कता की जहां आवश्यकता है, उसी के साथ इस बात की भी समीक्षा करने की कि इस मानसिकता का प्रशासनिक दायित्व निर्वहन कितना प्रभावित हो रहा है। उत्तर प्रदेश में इस विवाद के चलते निचले स्तर पर प्रशासनिक दायित्व का निर्वहन ठप सा हो गया है।

आरक्षण का प्रावधान दस वर्ष के लिए पिछड़ी हुई जातियों के लिए किया गया था, जिनको सूचीबद्ध कर दिए जाने के कारण अनुसूचित नाम दिया गया है। इस सूची में कुछ वृद्धि अवश्य हुई है। इसी के साथ मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू कर उसमें जिन लोगों को पिछड़ा माना गया था, उन्हें भी सत्ताईस प्रतिशत आरक्षण दिया गया। विभिन्न राज्यों में पिछड़ों की अलग-अलग परिभाषा है। मसलन उत्तर प्रदेश, बिहार आदि में क्षत्रिय पिछड़ों में नहीं आते लेकिन कुर्मी आते हैं, लेकिन गुजरात तथा दक्षिण के राज्यों में शामिल पिछड़े वर्ग में शामिल हैं। गुजरात के पाटीदार जो कुर्मी माने जाते हैं, पिछड़ों में शामिल नहीं हैं। गूजर प्राय: सभी राज्यों में पिछड़े वर्ग में आते हैं लेकिन जाट किसी भी राज्य में उस श्रेणी में नहीं रखे गए। बाद में कुछ राज्यों जिनमें उत्तर प्रदेश भी शामिल है राज्य की शिक्षा संस्थाओं और सेवाओं के लिए जाट समुदाय को भी पिछड़ा मान लिया। जातियों के आधार पर कतिपय मुस्लिम जातियां भी अनुसूचित या पिछड़े वर्ग में शामिल है। वोट बैंक की राजनीति के चलते सावधि आरक्षण व्यवस्था को न केवल चिरन्तर कर दिया गया, बल्कि यह भी कहा जाने लगा कि जो वर्ग आरक्षण परिधि में नहीं हैं, उनमें आर्थिक आधार पर पिछड़ों को आरक्षण प्रदान किया जाय। हरियाणा में जाट तथा कुछ अन्य जातियों को इसी तर्क के आधार पर दस प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया था जिस पर न्यायालय ने रोक लगा दी है। मजहबी आधार पर आरक्षण पर कई बार न्यायालय रोक लगा चुका है। लेकिन आरक्षण की आग फैलती जा रही है जिन्हें आरक्षण प्राप्त है वे उस वर्ग को उसके समुचित अपने लिए अलग से-आर्थिक आधार पर-आरक्षण की मांग कर रहे हैं। इस मसले पर देश में बढ़ रहे तनाव के कारण ही कुछ महानुभावों ने हाल ही में आरक्षण नीति की समीक्षा करने की आवश्यकता पर बल दिया जिन्हें राजनीतिक स्वार्थपरता के कारण किसी वर्ग विशेष का 'अधिकार' छीनने वाला करार देकर समाज को गुमराह करने का प्रयास किया गया। उसके तात्कालिक परिणाम उनके लिए राजनीतिक लाभकारी भले ही साबित हुए हो, समाज में विशेषकर युवा वर्ग में इस मुद्दे को लेकर तनाव बढ़ रहा है जो विभिन्न प्रकार से प्रगट हो रहा है। युवा वर्ग इससे गुमराह हो रहा है। जो आरक्षण की यथावत व्यवस्था के पक्ष में हैं वे इस बात की भी समीक्षा के लिए तैयार नहीं हैं कि लाभ उठा चुके लोगों के लिए क्रीमीलेयर का फार्मूला लागू किया जाय ताकि वंचित रह गए लोग लाभान्वित हो सकें। पिछड़ा वर्ग में जो क्रीमीलेयर का फार्मूला लागू है वह अत्यंत हास्यास्पद है क्योंकि उसमें जो प्रावधान है उससे एक भी 'पिछड़ा' अगड़ा नहीं बन सकता फिर उसकी आय और समाज में मान्यता की चाहे जो स्थिति हो।

आरक्षण नीति को अनिश्चितकाल के लिए यथावत जारी रखने और विसंगतियों की समीक्षा तक का विरोध आक्रोश उन लोगों के आक्रोश का कारण बना है, जो उससे वंचित हैं। सीमित समय के लिए किए गए उपाय को स्थायी बना देने के फैसले ने नौकरी को एकमात्र रोजगार बना दिया है। नौकरियों के लिए होने वाली परीक्षाओं में उमडऩे वाली भीड़ को देखकर निसंदेह यह कहा जा सकता है, सैकड़ों वर्ष में भी इसके लिए उमडऩे वाली भीड़ को संतुष्ट नहीं किया जा सकता। इसलिए रोजगार के लिए नौकरी की प्राथमिकता रहते सामाजिक तनाव-संघर्ष-उग्र हिंसात्मक आंदोलन तोड़-फोड़ और सामाजिक विभाजन को कम कर पाना संभव नहीं होगा। मोदी सरकार ने नौकरियों पर से निर्भरता खत्म करने के लिए छोटे-छोटे उद्यम के लिए मुद्रा बैंक से आसान किश्तों पर ऋण की व्यवस्था कर उधर से ध्यान हटाने का एक उपाय अवश्य किया है, लेकिन पिछले साठ पैंसठ साल में नौकरी को रोजगार का पर्याय बनाकर लघु और मध्यम उद्यमियों को नौकर बनने के लिए प्रेरित किया है और एकाधिकार वाली अर्थव्यवस्था ने जकडऩ बढ़ाई है उसे देखते हुए स्वरोजगार की ओर उन्मुख करने के लिए भगीरथ करना होगा। दलित चैम्बर ऑफ कामर्स के पूर्व अध्यक्ष चन्द्रभानु प्रसाद-जो स्वयं एक बड़े उद्यमी हैं-ने अनुसूचित जाति के युवकों को नौकरी के पीछे न भागने की सलाह देते हुए कहा है कि नौकरियों की सीमा सीमित है उसमें सभी का समावेश संभव नहीं है अतएव उन्हें स्वरोजगार की राह पकडऩी चाहिए। लेकिन इसी के साथ यह भी महत्वपूर्ण है कि जब हमारे संविधान और देश के कानून ने जाति, धर्म, लिंग भाषा क्षेत्र आदि के आधार पर नागरिकों में भेद की वर्जना की है और ऐसा आचरण करने वालों के लिए कठोर दंड का भी प्रावधान है तो आरक्षण में जाति या मजहब के आधार पर भेद भाव क्यों? जो पिछड़ा है, गरीब है वही उपेक्षित है, वंचित है तो वंचितों की पहचान का आधार आर्थिक पिछड़ापन क्यों न हो, सभी नागरिकों में समानता भी सैद्धांतिक मान्यता को राजनीतिक स्वार्थपरता की कब तक भेंट चढ़ाने वालों को विघटनकारी मनोवृत्ति का प्रश्रय मिलता रहेगा। इसी मनोवृत्ति की निरंकुशता ने आरक्षण के लिए हिंसात्मक वातावरण बनाया है। न्यायालय का अंकुश वैध और आवश्यक होने के बावजूद आरक्षण के लिए हिंसात्मक आंदोलनों को तब तक रोक पाना संभव नहीं होगा, जब तक लाभार्थियों को लाभ मिलने की समीक्षा न हो और यदि आरक्षण का तात्पर्य वंचितों को लाभार्थी बनाना है तो उसका मापदंड आर्थिक हो। इसलिए आरक्षण नीति पर राजनीतिक स्वार्थपरता नहीं देशहित में पुनर्विचार आवश्यक है।

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