'उड़ता पंजाब' पर आखिर क्यों उठा बवाल
'उड़ता पंजाब' पर आखिर क्यों उठा बवाल
'उड़ता पंजाब' नाम से बनी फिल्म को लेकर सेंसर बोर्ड ने आदेश दिया है कि इसके शीर्षक से पंजाबÓ हटा दिया जाए और जो 89 दृश्यों या संवादों को हटाने को कहा है उसमें से एक है कुत्ते का नाम विदेशी अभिनेता जैकी चौन के नाम पर रखने का। फिल्म में क्या कैंची चलाने लायक है और क्या नहीं, यह हममें से किसी को भी मालूम नहीं है, परंतु बढ़ता विवाद साफ दर्शा रहा है कि पूरी दाल काली है। अनुराग कश्यप तानाशाही और उत्तरी कोरिया का उदाहरण दे रहे हैं तो पहलाज निहलानी ने यह आरोप लगाते हुए कि इस फिल्म को बनाने के लिए आम आदमी पार्टी ने धन उपलब्ध कराया है, विवाद को परवान चढ़ा दिया है और यह स्वीकारोक्ति कर कि वह मोदी के चमचे हैं वैचारिक सड़ांध भी फैला दी है। एक जिम्मेदार पद पर बैठे व्यक्ति से यह अपेक्षा नहीं की जाती कि वह प्रधानमंत्री को भी विवाद में घसीट लाएं। परंतु उनके इस बयान ने उनकी वैचारिक सड़ांध को सभी ओर फैला दिया है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर चली यह बहस निश्चित तौर पर महत्वपूर्ण है परंतु यह अत्यन्त खेदजनक है कि अधिकांशत: प्रतिकार या विरोध अपने सहकर्मियों या अपने समाज या हितैषियों के अधिकारों के हनन को लेकर ही सामने आता है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अश्लील फिल्मों (पोर्नोग्राफी) के संबंध में दिए गए निर्णय के खिलाफ की सारी बातें सामने आई थीं। तमाम लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देकर इसके प्रतिबंधित करने का विरोध कर रहे हैं। गौरतलब है इन फिल्मों में सर्वाधिक घिनौना शोषण बच्चों और महिलाओं का होता है, परंतु हमें अपनी अभिव्यक्ति के लिए इतनी ही निर्बाध स्वतंत्रता की आवश्यकता क्यों हैं। यहां पर मीडिया उसके चरित्र उसकी कार्यशैली, प्रतिबद्धता और हितों के संरक्षण पर भी चर्चा करना जरूरी है। पिछले कुछ वर्षों से देश के तमाम राज्यों में पत्रकारों पर जबरदस्त दबाव है और उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बलपूर्वक दबाया जा रहा है। तमिलनाडु में सरकार विरोधी खबरें छापने पर 200 पत्रकारों के खिलाफ राष्ट्रद्रोह तक के मुकदमे दायर किए गए। वहीं छत्तीसगढ़ में पत्रकारों को सरकार की आलोचना और प्रशासन की पोल खोलने के आरोपÓ में जेल में डाल दिया गया है। परंतु मीडिया अपने सहकर्मियों की सहायता में पूरी तरह से सामने नहीं आया। इसके क्या कारण हो सकते हैं उन पर विस्तार से चर्चा होना आवश्यक है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति पढऩे में दोनों शायद एक ही नजर आएं। परंतु लगने लगा है कि जैसे दोनों में अंतर है। संविधान हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कुछ रोक के साथ देता है। इसी प्रावधान का अनेकों बार अनुचित लाभ प्रशासनिकतंत्र उठाता है। राष्ट्रवाद की सिमटती परिभाषा भी इसमें योगदान कर रही है। बस्तर जाकर आम लोगों से मिलकर रिपोर्ट जारी करना भी अब राष्ट्रद्रोह है। विकास योजनाओं पर सवाल उठाना भी राष्टद्रोह हो गया है। इंदौर जैसे शहर के मुख्य मार्गों में वर्षों से प्रतिबंधात्मक धाराएं लगी हैं और विरोध प्रदर्शन करना भी गैरकानूनी है। ऐसा ही दिल्ली में भी है। जंतर मंतरÓ अब विरोध प्रदर्शनों का प्रतीक बन कर रह गया है। केंद्रीय मंत्रालयों में आम जनता का जाना ही गैरकानूनी है। यानी हम स्वतंत्रता की अभिव्यक्तिÓ ही नहीं कर सकते तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की तो बात कर पाना ही कठिन है। उड़ता पंजाबÓ में काट-छांट को लेकर उठा विवाद शायद न्यायालयों में जाकर किसी के पक्ष में हो जाए। परंतु इससे यह मूल प्रश्न पाश्र्व में चला गया कि अंतत: प्रत्येक विवाद का निराकरण न्यायालय के माध्यम से ही होगा? यदि किसी बात को लेकर इतना विवाद हो रहा है तो क्या राजनैतिक या सामाजिक स्तर पर कोई ऐसी निर्विवाद इकाई नहीं है जो हस्तक्षेप करने की स्थिति में हो। परंतु यह स्थिति अब अकल्पनीय सी नजर आने लगी है। अपने-अपने हितों के लिए ही संघर्ष करना हमारे विचारों को व्यापक बनाने से रोकता है। इससे धीरे-धीरे ऐसी परिस्थितियां निर्मित हो जाती है जिसमें कि अधिकांश लोग अपने से इतर विषयों पर आंखें मूंद लेते हैं। उड़ता पंजाबÓ से उठे विवाद ने राख के नीचे दबी नशे की विभीषिका को पुन: लपट प्रदान कर दी है। हालिया सर्वेक्षण से सामने आया है कि पंजाब में सर्वाधिक वयस्क (जनसंख्या के अनुपात में) नशे के आदी हैं। वहां के युवाओं में नशे की बढ़ती लत की हकीकत किसी से भी छुपी नहीं है। वहीं दूसरी ओर यह संदेश भी जा रहा है (हो सकता है कि यह असत्य हो) कि नशे का कारोबार करने वालों का साम्राज्य कितना शक्तिशाली और व्यापक है। ये लोग नशे के खिलाफ चल रही पूरी बहस को आपसी छीछालेदर में समेटने का माद्दा रखते हैं। आज पंजाब में राज्य की अर्थव्यवस्था से भी बड़ी अर्थव्यवस्था नशीले कारोबार की होती जा रही है। सारा देश हतप्रभ है कि हमारा राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र क्या इस कदर श्रीहीन हो चुका है कि वह खतरनाक अवैध गतिविधियों को रोक पाने में पूरी तरह से असमर्थ हो गया है?
हम सभी जानते हैं कि आतंकवाद को वित्तीय आधार प्रदान करने के ड्रग माफिया का सबसे बड़ा हाथ रहा है। हम एक ओर स्वयं को उससे पीडि़त बताते हैं और दूसरी ओर उसके आधार को नष्ट कर पाने में घबरा रहे हैं। पाकिस्तान में घुसकर आतंकी ढांचों को नष्ट करने की मांग करने वाली राजनीतिक इकाई आज राज्य और केंद्र दोनों स्थानों पर सत्ता में काबिज है, परंतु हताश और विवश नजर आ रही है। यदि हम अपने देश के भीतर पनप रहे ड्रग माफिया और व्यापार को नहीं रोक पाएंगे तो किस आधार पर विश्वभर में आतंकवाद के विरुद्ध होने वाली लड़ाई की अगुवाई करना चाहते हैं। निंदक नियरे राखियेÓ को आदर्श मानने वाला समाज बुराई को सामने लाने वालों को साथ रखने की बात तो दूर उनसे संवाद तक स्थापित नहीं करना चाहता। इस विवाद ने यह भी सिद्ध कर दिया कि हमें अभी राजनीतिक रूप से परिपक्वता प्राप्त करने में समय लगेगा। वैसे यह विवाद फिल्म उद्योग के लिए संजीवनी बन सकता है क्योंकि उसने यह दिखाया है कि फिल्म ऐसा माध्यम है जो जनता की मानसिकता बदल सकता है। यदि अकाल पर आधारित फिल्म का नाम आपरेशन मराठवाड़ाÓ हो सकता है और महाराष्ट्र और वहां के राजनीतिक दलों ने खासकर सत्ताधारी दलों ने आपत्ति नहीं की तो फिर यही दल उड़ता पंजाबÓ को लेकर इतना बवाल क्यों मचा रहा है। आपरेशन मराठवाड़ाÓ भी तो प्रशासनिकतंत्र की असफलता की कहानी है। इससे तो यही सिद्ध होता है कि पूरा विवाद पंजाब चुनाव को लेकर ही है। वैसे इस विवाद ने यह स्पष्ट कर दिया है कि पंजाब भयानक रूप से नशे के व्यापार की जकड़ में है और सत्ता परिवर्तन भी शायद बहुत आसानी से इसे समाप्त नहीं कर पाएगा।