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अहमियत बढ़ी लेकिन खास उपलब्धियों से दूर

अहमियत बढ़ी लेकिन खास उपलब्धियों से दूर

डॉ. रहीस सिंह


प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जब अपनी 5 दिनी विदेश यात्रा पर रवाना हुए थे तो उस समय विदेश मंत्रालय की तरफ से मिले अपडेट में कहा गया था कि इस यात्रा का मुख्य मकसद ऊर्जा, पर्यावरण, रक्षा और सुरक्षा जैसे विभिन्न क्षेत्रों में हुयी प्रगति का जायजा लेना और भविष्य में आपसी सहयोग की गति तेज करना है। ऐसा लगता है कि पिछले दो वर्षों में प्रधानमंत्री ने जिस 'नेबरहुड फस्र्टÓ को भारतीय विदेश नीति के फास्ट ट्रैक पर लाने, पूर्वी एशिया के साथ एक्ट की नीति पर बल देने तथा शेष विश्व के साथ संतुलन के साथ आगे बढऩे की जो कोशिशें हुयीं थीं, उनके मिले-जुले परिणाम ही सामने आ पाए। इसलिए अब भारतीय राजनय के समक्ष पहला विषय इन नीतियों की समीक्षा का तो था जिससे देश की दिशा और उपलब्धियां स्पष्ट हो सकें। लेकिन विषय नये अनुसंधानों का था ताकि नयी आवश्यकताओं के अनुरूप भारत की विदेश नीति को आगे बढ़ाया जा सके और नए संयोजनों के जरिए राजनय की स्थायी उपलब्धियां हासिल हा सकें-विशेषकर संयुक्त राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता, एनएसजी की सदस्यता और एमटीसीआर की सदस्यता। क्या यह सब इस यात्रा से हासिल हुआ?

भारतीय वैदेशिक नीति पिछले लम्बे समय से स्टैंडबाइ मोड पर दिख रही थी, इसलिए देश की अपेक्षाएं नयी सरकार से कुछ अधिक थीं। हालांकि उन अपेक्षाओं पर शत-प्रतिशत खरे उतरने का श्रेय तो नेतृत्व को नहीं दिया जा सकता लेकिन कूटनीतिक सक्रियता से मिले परिणामों को अनदेखा भी नहीं किया जा सकता। रही बात प्रधानमंत्री की वर्तमान 5 दिनी यात्रा की तो उसके दो प्रमुख उद्देश्य थे। पहला आर्थिक और दूसरा सामरिक। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की इस यात्रा में अफगानिस्तान, कतर, स्विट्जरलैंड और अमेरिका के साथ भारत का जो सांस्कृतिक, आर्थिक, सुरक्षात्मक और सामरिक संयोजन किया है, उसे प्रथम दृष्टया सामरिक कूटनीतिक के लिहाज से लाभदायक माना जा सकता है। लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारतीय राजनय को आर्थिक ट्रैक पर कहीं ज्यादा तेजी से बढ़ाने की कोशिश की है क्योंकि उनके महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट इसके केन्द्र में थे। इस दृष्टि से उम्मीद थी उनकी महत्वाकांक्षी योजनाओं, विशेषकर मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया, स्मार्ट सिटी योजना, स्वच्छ ऊर्जा आदि के लिए कतर और स्विट्जरलैंड से धन मिलने की संभावनाएं अवश्य बढ़ेंगी। अफगानिस्तान में सलमा बांध का उद्घाटन कर पड़ोसी के साथ सांस्कृतिक जीवंतता को सार्थक करते हुए प्रधानमंत्री जब कतर पहुंचे तो वहां भारत और कतर के साथ कई समझौतों पर हस्ताक्षर हुए। भारत और कतर ने वित्तीय खुफिया जानकारी के आदान प्रदान, धन शोधन और आतंकवाद के वित्तपोषण को रोकने तथा गैस संपन्न खाड़ी देश से बुनियादी ढांचे में विदेशी निवेश आकर्षित करने सहित 7 समझौतों पर हस्ताक्षर किये। कौशल विकास और शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यटन और खेल के क्षेत्रों में सहयोग और निवेश अन्य समझौते हैं जिन पर भारत और कतर के अधिकारियों ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमीर शेख तमीम बिन हमद अल थानी की मौजूदगी में हस्ताक्षर किये। इसके साथ ही बहु क्षेत्रीय साझेदारी और भारत-कतर संबंधों को मजबूत करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी और शेख तमीम के बीच आधिकारिक वार्ता हुई और इसके बाद समझौतों और सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर हुए। खाड़ी क्षेत्र में भारत के लिए कतर एक अहम व्यापारिक साझेदार है जिनके बीच वर्ष 2014-15 में द्विपक्षीय व्यापार 15.67 अरब डॉलर था। राष्ट्रीय निवेश और बुनियादी ढांचा कोश में निवेश को लेकर कतर निवेश प्राधिकरण और विदेश मंत्रालय के बीच एक सहमति पत्र (एमओयू) पर भी हस्ताक्षर हुए। ध्यान रहे कि कतर एक गैस बहुल खाड़ी देश है जहां विदेशी निवेश की संभावनाएं पर्याप्त हैं। यानि कतर भारत की ऊर्जा और आर्थिक जरूरतों को एक साथ पूरा करने में सहायक हो सकता है। इसके साथ ही वित्तीय खुफिया इकाई भारत और कतर वित्तीय सूचना इकाई (क्यूएफआईयू) के बीच हुए एक एमओयू पर हस्ताक्षर से धन के प्रवाह का पता लगाने और कतर से भारत में निवेश में मदद मिलेगी। इससे अधिकारियों को धन शोधन, आतंकवाद वित्त पोषण और अन्य आर्थिक अपराधों का पता लगाने में भी मदद मिलेगी। कतर का शीर्ष नेतृत्व पहले ही भारतीय अर्थव्यवस्था पर भरोसा जता चुका है इसलिए कतर से निवेश आकर्षित करने की संभावना अधिक थी। कितना हासिल होगा यह भविष्य पर निर्भर करेगा। आतंकवाद पर साझेदारी पर संदेह अवश्य होता है क्योंकि कतर शासन द्वारा दोहा में अफगान तालिबान को एक दफ्तर खोलने की अनुमति दी जा चुकी है। ऐसी स्थिति में आतंकवाद को संरक्षण व आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष की बातें अपने आप में विपरीत प्रकृति की हो जाती हैं, जिनसे उम्मीद करना सार्थक नहीं लगता।

स्विट्जरलैंड में महत्वपूर्ण उपलब्धि न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप में भारत के शामिल किए जाने के लिए समर्थन सम्बंधी रही। हालांकि स्विट्जरलैंड के साथ टैक्नोलॉजी और निवेश के साथ-साथ काले धन के मसले पर बातचीत की संभावनाएं थीं क्योंकि स्विट्जरलैंड भारतीय टैक्नोलॉजी के आधुनिकीकरण और बड़े पूंजी निवेश के लिए तैयार हो सकता था। हालांकि काले धन पर ऐसा कोई आश्वासन नहीं मिला है, सम्भवत: मिल भी नहीं सकता है (क्योंकि स्विट्जरलैंड स्वयं एक कानूनी प्रक्रिया से गुजर रहा है जिसमें खाताधारकों के नाम के खुलासे की अनुमति नहीं होगी)। इस यात्रा में अमेरिका में प्रधानमंत्री की पहल कदमी सबसे महत्वपूर्ण रही। जहां प्रधानमंत्री ने अमेरिकी संसद को सम्बोधित कर भारतीय लोकतंत्र की समृद्धता और गतिशीलता की अनुभूति करायी और मिसाइल प्रौद्योगिकी नियंत्रण व्यवस्था में प्रवेश पाकर ग्लोबल स्ट्रैटेजिक आम्र्स व्यवस्था का हिस्सा बना। विशेष बात यह है कि मिसाइल प्रौद्योगिकी नियंत्रण व्यवस्था (एमटीसीआर) ंमें भारत के शामिल होने के बाद अब भारत अपनी ब्रह्मोस जैसी उच्च तकनीकी मिसाइलें मित्र देशों को बेच सकेगा, अमेरिका से ड्रोन विमान खरीद सकेगा......आदि। यही वजह है कि एमटीसीआर की घोषणा के बाद भारत और अमेरिका भारतीय सेना को प्रीडेटर शृंखला के मानवरहित विमान बेचने से जुड़ी अपनी चर्चा को तेज कर सकते हैं। उल्लेखनीय है कि 1987 में अस्तित्व में आई एमटीसीआर का उद़देश्य उन बैलिस्टिक मिसाइलों और दूसरे ऐतिहासिक आपूर्ति तंत्रों के प्रसार को सीमित करना है, जिनका इस्तेमाल रासायनिक, जैविक और परमाणु हमलों के लिए किया जा सकता है। एमटीसीआर अपने 34 सदस्यों से अपील करता है कि 500 किलोग्राम के पेलोड को कम से कम 300 किलोमीटर तक ले जा सकने वाली मिसाइलों और संबंधित प्रौद्योगिकियों को और सामूहिक तबाही वाले किसी भी हथियार की आपूर्ति बंद करें।

इससे पहले अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने एमटीसीआर और तीन अन्य निर्यात नियंत्रण व्यवस्था- ऑस्ट्रेलिया समूह, परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह और वासेनार समझौते में भारत की सदस्यता का कड़ा समर्थन किया था। वहीं भारत के परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह का सदस्य बनने के मामले में ओबामा प्रशासन फिलहाल सब अच्छा रहने की ही कामना कर रहा है। हालांकि चीन इस समूह में भारत की सदस्यता का विरोध कर रहा है। चीन का तर्क है कि भारत न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप में प्रवेश पाने की योग्यता नहीं रखता क्योंकि उसने एनपीटी (परमाणु अप्रसार संधि) पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं। हाल ही में चीन की ओर से एक बयान आया था जिसमें कहा गया था कि वह भारत की सदस्यता का विरोध नहीं करता है लेकिन परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) पर हस्ताक्षर करने वाले देश ही एनएसजी के सदस्य होने चाहिए। उसने अवरोध के इस तरीके के साथ ही अपने सदाबहार मित्र (आलवेदर फ्रेंड) पाकिस्तान को भी एनएसजी में प्रवेश के लिए अर्जी दिलवा दी। दरअसल चीन का कहना है कि एनएसजी की सदस्यता के मामले में भारत और पाकिस्तान के बारे में 'समानता के आधारÓ पर फैसला किया जाना चाहिए। ऐसे में यह संभव है कि चीन अब भारत का विरोध इस्लामाबाद के साथ सौदेबाजी के आधार के अनुसार करे। ऐसे में दो विकल्प होंगे-एक यह कि भारत और पाकिस्तान दोनों को ही एनएसजी की सदस्यता प्राप्त हो और द्वितीय यह कि बिना एनपीटी पर हस्ताक्षर के भारत एनएसजी में प्रवेश की योग्यता नहीं रखता इसलिए उसे सदस्यता नहीं मिलनी चाहिए। इस प्रतिमान पाकिस्तान अपने आप ही भारत के साथ एनएसजी में प्रवेश के लिए अयोग्य हो जाएगा। ऐसे में एनएसजी में भारत के प्रवेश की डगर थोड़ी कठिन हो गयी।

फिलहाल भारत 02 जून 2016 को वैश्विक बैलिस्टिक मिसाइल प्रसार व्यवस्था में शामिल हो गया था और आशा की थी कि मिसाइल प्रौद्योगिकी नियंत्रण व्यवस्था में भारत को प्रवेश मिल जाएगा। इसमें प्रवेश पाकर भारत ने एक सामरिक उपलब्धि तो हासिल कर ली है, लेकिन अभी एनएसजी और सुरक्षा परिषद में प्रवेश का प्रश्न बरकरार है, जो भारत अंतर्राष्ट्रीय हैसियत के लिए अहम है इसलिए उपलब्धि अभी अधूरी है।

Updated : 13 Jun 2016 12:00 AM GMT
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