भारतीयता को प्रतिगामी साबित करने की कुत्सित मानसिकता
भारतीयता को प्रतिगामी साबित करने की कुत्सित मानसिकता
-राजनाथ सिंह 'सूर्य'
पश्चिम बंगाल विधानसभा निर्वाचन में कांग्रेस और माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के बीच बनी साझेदारी अचानक या एकाएक नहीं है। नेहरू परिवार के वर्चस्व वाली कांग्रेस और साम्यवादियों के बीच लंबे अर्से से चली आ रही अघोषित समझदारी का यह मात्र प्रगटीकरण भर है। साम्यवादियों ने सदैव नेहरू परिवार का साथ दिया तथा कांग्रेसी नेताओं की छवि धूमिल करने की सदैव मुहिम चलायी। चाहे वह नेताजी सुभाषचंद्र बोस हों सरदार बल्लभ भाई पटेल या कांग्रेस को आर्थिक संजीवनी के लिए निस्वार्थ सेवा करने वाले चन्द्रभानु गुप्त, एस.के. पाटिल या आतुल्य घोष। इन तीनों ने-जो अविवाहित रहे-अपनी निजी सम्पत्तियां अपने परिवार के लिए ट्रस्ट बना देने के बजाय जनहित में बने ट्रस्टों को सौंप दिए जबकि नेहरू परिवार ने न केवल पारिवारिक सम्पत्ति को परिवार वालों का ट्रस्ट बनाकर सुरक्षित रखा बल्कि निजी सम्पत्तियों में इजाफा किया। न्यायालय में लंबित बहुत से मामले इसके साक्षी हैं। साम्यवादियों ने तो महात्मा गांधी तक को हीन साबित करने का भी भरसक प्रयास किया। जवाहरलाल नेहरू के समय से ही स्वतंत्रता संगाम के घटनाक्रम का ऐतिहासिक संकलन का दायित्व उन 'विद्वानों' को सौंपा गया जो साम्यवादी विचारधारा के वशीभूत थे। के.एम. पाणिक्कर, नितिन चन्द्रपाल, रोमिला थापर या इरफान हबीब जैसे 'इतिहासकार' उसी श्रेणी में आते हैं जिन्होंने अपने संकलन में महात्मा गांधी को महज ''गुजराती बनिया' के रूप में उल्लेख किया है।
अंग्रेज वाइसराय को पत्र लिखकर स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के खिलाफ मुखबिरी करने की साम्यवादी पार्टी के जिस महामंत्री पी.सी. जोशी ने पार्टी की सेवा अर्पित करने का प्रस्ताव किया था, उसके अनुकूल इन ''इतिहासकारों" ने संकलन में कांग्रेस की भूमिका को न्यूनतम बताते हुए स्वतंत्रता के लिए मुख्य रूप से साम्यवादी ट्रेड यूनियनों को श्रेय प्रदान किया है। शायद लोगों की स्मृति से यह तथ्य उतर गया होगा कि कम्युनिस्ट समाचार पत्र न्यू एज ने 1942 में जापानी तानाशाह को एक कुत्ते का कान पकड़कर उठाते हुए दिखाया गया था और कुत्ते का चेहरा नेताजी सुभाषचंद्र बोस का दिखाया गया था। स्वतंत्रता संग्राम के लिए सर्वाधिक उत्पीडऩ सहने वाले चाहे स्वतंत्र वीर सावरकर हों या बलिदान देने वाले चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह आदि इन इतिहासकारों की नजर में आतंकवादी थे। नेहरू परिवार ने उन सांस्कृतिक और शैक्षणिक संस्थाओं में इन्हीं ''प्रबुद्ध" लोगों को वर्चस्व बनाये रखने का अवसर प्रदान किया जो समय-समय पर अपने महापुरूषों की छवि बिगाडऩे राष्ट्रवाद को कमजोर बनाने और परिवार की भक्तमंडली को महिमा मंडित करते रहते हैं।
पिछले दिनों संसद में दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास पाठ्यक्रम में शामिल विपिनचन्द्र पाल द्वारा लिखित भारत का स्वतंत्रता संग्राम पुस्तक जिसमें भगत सिंह सहित कई शहीदों को क्रांतिकारी आतंकवादी की संज्ञा प्रदान की गई है। संसद या वैचारिक जगत में इन घृणित प्रयासों को पहली बार नहीं उठाया गया है लेकिन ''हिन्दुत्व" से भयभीत कांग्रेस ने अपने को भी हीन बताए जाने वाले पक्ष को उजागर किए जाने तक का विरोध किया। इन्हीं ''इतिहासकारों" का दिल्ली विश्वविद्यालय हो या जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय-बोलबाला रहा है। जे.एन.यू. में प्राध्यापकों के चयन का एकमात्र मापदंड रहा है वाम पंथी विचारधारा का होना जिसकी आज भी यह मान्यता है कि इस्लाम में मतावलम्बी विदेशी हमलावर ''स्वदेशी" शासक थे।
उन्होंने सिंध के राजा दाहिर पर हमला होने से लेकर नादिर शाह और अहमद शाह अब्दाली के भयावह कल्बे आम की कहीं भी भत्र्सना नहीं की जबकि महाराणा प्रताप शिवाजी गुरू गोविन्द सिंह आदि की आलोचना करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उनके लिखे ''इतिहासÓÓ में तो यहां तक उल्लेख है कि गुरू तेग बहादुर का सिर मुगल बादशाह ने नहीं काट पाया पारिवारिक कलह में उन्होंने स्वयं अपना सिर काट डाला था। जिन गुरू तेग बहादुर के ''सिर बदया पर सार न दियाÓÓ उद्घोष से अनुप्राणित होकर हजारों लोगों ने अपना बलिदान कर विदेशी दासता के खिलाफ स्वतंत्रता की मशाल जलाए रखी उनको ही साबित करने वाले अख्यानों से पाठ्य पुस्तकें भरी पड़ी हैं। नेहरू परिवार के चहेते शिक्षा मंत्री नुरूल हसन का देश को दिया गया यह ''अमूल्य उपहारÓÓ है। इन इतिहासकारों ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का उल्लेख गदर या सिपाही विद्रोह के रूप में किया है और उस अभियान को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की संज्ञा प्रदान करने वाले सावरकर के विरूद्ध घृणित अभियान आज तक जारी रखा है। नेहरू परिवार ने सदैव ऐसे लोगों को प्रगतिशील माना है जो भारतीय संस्कृति इतिहास पूर्व पुरूषों के योगदान और भारतीयता को प्रतिगामी साबित करने की मुहिम चलाते रहे हैं। उनकी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सत्ता को असहिष्णुता साबित करने के लिए बेनकाब हो चुका है और भारत के टुकड़े-टुकड़े करने का नारा लगाने वालों के पक्षधर होने से शिक्षा संस्थाओं में उनके आचरण की पोल खुल चुकी है, इसलिए यह अपेक्षा करनी चाहिए कि अब इन गाल बजाऊ इतिहासकारों की काली करतूतों की छाया से भारत की युवा पीढ़ी को मुक्ति मिल सकेगी।
संसद में केवल एक पुस्तक भारत के स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास की ही चर्चा हुई है, वह भी भगत सिंह के संदर्भ में लेकिन इन इतिहासकारों द्वारा संकलित, सम्पादित या स्वत: प्रतिपादित जो अन्य प्रारूप पुस्तकें इतिहास और समाजशास्त्र के अध्ययन हेतु मानक पुस्तकें बनी हुई हैं। जिनके बारे में समय-समय पर शिक्षा बचाओ अभियान, विद्यार्थी परिषद तथा अन्य कई संस्था आदि पूरे भारत के शिक्षा मंत्रालय, राष्ट्रीय शैक्षिक पाठ्यक्रम और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का ध्यान आकृष्ट किया जाता रहा है यदि सबको-भगत सिंह संदर्भ के अनुरूप देखा जाय, तब यह समझ में आयेगा कि भारतीयत्व को मलीन बनाने का सुनियोजित षड्यंत्र कांग्रेस के ही संरक्षण में चलता रहा है। उसने यह संरक्षण इसलिए प्रदान किया क्योंकि उसके कुकृत्यों को उजागर करने वालों को प्रतिगामी साबित करने के लिए यह इतिहासकार मंडली सदैव ढपली बजाती रही है। इनमें से एक ने भी देश में नागरिक अधिकार छीनने का हनन नहीं माना और असभ्य भाषा में नरेंद्र मोदी की स्वच्छन्द होकर आलोचना करने के बावजूद न्यायिक विवेचना तक का सहारा न होकर उन्हें जो अभिव्यक्ति की छूट मिली हुई है उसे असहिष्णुता का कारण मान लिया है। संभवत: इस तबके के आंकलन के आधार पर बंगाल में अब तक गुप्त रूप से चल रहे सहयोग को प्रगट करने के लिए चुना गया क्योंकि कांग्रेस और वामपंथ दोनों ही अपना अस्तित्व बचाए रखने में असफल हो चुके हैं। राष्ट्रवाद और ढोंगवाद के संघर्ष में देश की भावना का जो प्रगटीकरण हो रहा है, उसके कारण इन तत्वों को वैदिक जगत में भी लुप्त हो जाना साफ-साफ दिखाई पड़ रहा है। क्योंकि चाहे हैदराबाद के वेमुला के मामले को 'दलित उत्पीडऩÓ आवरण देकर राष्ट्रवाद के खिलाफ सामाजिक भावना को भड़काना हो या हमलावर हत्यारों का फांसी देने का मानवाधिकार के नाम पर विरोध का-जिसके द्वारा युवाओं में वे भगवाकरण की प्रक्रिया को रोकने के नाम पर एकजुटता बनाना चाहते थे, खोखलेपन ने भ्रमित करने के प्रयास को जिस प्रकार से नाकाम बना दिया है, उससे उबरने के लिए राजनीतिक क्षेत्र में अस्तित्ववान रहने की आकांक्षा में बंगाल के चुनाव में दोनों दलों ने भुजबंधन कर प्रच्छन्न चल रहे अभियान की वास्तविकता से अवाम को रू-ब-रू कर दिया है।
कांग्रेस और वामपंथ को हमलावरों आतंकियों भ्रष्टाचारियों से कोई परहेज नहीं है। तमिलनाडु में डीएमके के साथ गिड़गिड़ाकर किया गया चुनाव समझौता इसी का सबूत है। युवा पीढ़ी को इतिहास के सच से वंचित रखने वाले और राष्ट्रवाद तथा समरूपता को खंडित करने का भाव पैदा करने वाले जो-जो अंश प्राथमिक स्तर से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक पाठ्यक्रम में शामिल हैं उनकी समीक्षा करने का काम मानव संसाधन मंत्रालय ने एक विशेषज्ञ समितियों को सोच दिया है। वर्षों से उदाहरण सहित ऐसे अंशों को पाठ्यक्रम से हटाने के लिए किए जा रहे ज्ञापनों को नजरंदाज किया जाता रहा है क्योंकि विपिन चन्द्रपाल जैसे लोगों का उस क्षेत्र में दबदबा रहा है। अब यह समाप्त हो रहा है इसलिए यह अपेक्षा की जानी चाहिए कि वर्षों से ज्ञापन दिए जा रहे हैं उसे समीक्षा का अंग बनाया जायेगा और कुमति और कुफ्र फैलाने वाली सामग्री का स्थान स्वाभिमान और स्वदेशी गौरवयुक्त आख्यानों को प्राप्त होगा।