उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन और कांग्रेस

उत्तराखंड में राजनीतिक भंवर में फंसी कांगे्रस की हरीश रावत सरकार को बर्खास्त करके राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया। इससे पूर्व विगत लगभग दस दिन से उत्तराखंड में जो राजनीतिक हालात निर्मित हुए, उससे उबरने के लिए मुख्यमंत्री हरीश रावत ने अपनी राजनीतिक चाल चलकर साजिशें रचने का काम किया। कांगे्रस के बारे में हमेशा से ही यह कहा जाता है कि वह येन-केन प्रकारेण सत्ता में बने रहना चाहती है। फिर चाहे इसके लिए कोई भी रास्ता क्यों न अपनाना पड़े। मुख्यमंत्री हरीश रावत ने यही किया। एक स्टिंग आपरेशन में यह बात भी सिद्ध हो चुकी है कि उन्होंने विधायकों की खरीद फरोख्त करने का मार्ग अपनाया था। हालांकि मुख्यमंत्री हरीश रावत ने उस सीडी को फर्जी करार दिया है, लेकिन इससे सवाल तो यह उठता है कि जब मुख्यमंत्री हरीश रावत के विरोध उनकी ही पार्टी के विधायक खड़े हो गए, तब यह बात आसानी से कही जा सकती है कि कांगे्रस द्वारा उत्तराखंड की सरकार को बचाने के भरपूर प्रयास किए गए होंगे। इन प्रयासों में विधायकों को खरीदने के प्रयास कोई नई बात नहीं है। कांगे्रस ने उत्तराखंड में आई भीषण आपदा के समय उस समय के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को बदलकर प्रदेश की सत्ता की कमान हरीश रावत को सौंप दी थी। विजय बहुगुणा को इस प्रकार से प्रदेश की सत्ता से बेदखल करना पूरी तरह से अलोकतांत्रिक ही कहा जाएगा। हालांकि यह पूरा मामला कांगे्रस पार्टी का आंतरिक विषय है, लेकिन राजनीतिक रूप से यह स्वाभाविक ही कहा जाएगा कि विजय बहुगुणा अपने उस अवसान को बर्दाश्त नहीं कर सके और विरोध करने का मार्ग अपनाया। इस प्रकार के विरोध के चलते कांगे्रसियों ने वर्तमान केन्द्र सरकार पर आरोप लगाए हैं कि उन्होंने राज्य को अस्थिर करने के लिए राजनीति की है। लेकिन कांगे्रस के इतिहास पर नजर डाली जाए तो यह बात सामने आती है कि प्रदेश सरकार को बर्खास्त करने वाली धारा का सबसे ज्यादा दुरुपयोग अगर किसी ने किया है तो वह केवल कांगे्रस ही है। इस दुरुपयोग में भारतीय जनता पार्टी की सरकारें ही मुख्य लक्ष्य थीं। कांगे्रस ने जब ऐसा किया उस समय उन प्रदेश सरकार के राज्य में किसी प्रकार की राजनीतिक अस्थिरता का वातावरण नहीं था। केवल आशंकाओं के आधार पर किसी राज्य की सरकार को बर्खास्त कर देना ही कारण नहीं माना जा सकता। उत्तराखंड में जो कुछ भी राजनीतिक वातावरण निर्मित हुआ है, वह स्वयं कांगे्रस की ही देन कही जाएगी। इससे कांगे्रस के प्रति एक संदेश यह भी गया है कि केन्द्रीय नेतृत्व के प्रति कांगे्रस के नेता भले ही कुछ नहीं बोल पाते हों, लेकिन अंदर ही अंदर कांगे्रस के नेताओं में बहुत बड़ा विरोधाभास है। राज्यों में कांगे्रस ने इतने नेता पैदा कर दिए हैं कि सभी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठना चाहते हैं। उत्तराखंड में हालात कुछ ऐसे ही माने जा सकते हैं। वहां पर समूहों में विभाजित कांगे्रस पार्टी ने एक -दूसरे को नीचा दिखाने की राजनीति करके प्रदेश में अस्थिरता का वातावरण निर्मित किया। यही राजनीतिक अस्थिरता उत्तराखंड की सरकार के लिए राजनीतिक अवरोध का निर्माण करती हुई दिखाई दे रही थी। कांगे्रस शासन में किस प्रकार से अधिकारों का दुरुपयोग किया जाता है, इसका साक्षात उदाहरण भी उत्तराखंड में देखने को मिला। कांगे्रस ने अपने जिम्मेदार नेताओं के माध्यम से संवैधानिक मर्यादाओं को ताक पर रखकर प्रदेश सरकार को बचाने का भरपूर प्रयास किया। उत्तराखंड के राज्यपाल कृष्णकांत पाल ने जब कांगे्रस सरकार को बहुमत साबित करने के लिए दो या तीन दिन का समय देने की बात कही, तब विधानसभा अध्यक्ष द्वारा उन्हें 28 मार्च तक का लंबा समय क्यों दिया गया। क्या कांगे्रस का यह चरित्र संवैधानिक रूप से कार्य कर रहे राज्यपाल का अपमान नहीं है। अगर है तो यह मुद्दा भी सरकार की बर्खास्तगी के लिए पर्याप्त है। ऐसी स्थिति में सरकार ने यह प्रयास किया कि वह राज्यपाल की अनदेखी कर रही है। हम जानते हैं कि संवैधानिक रूप से राज्यपाल ही मुखिया होता है, इसलिए सरकार की संवैधानिक मर्यादा यही है कि वह राज्यपाल के आदेश का पालन करे, लेकिन उत्तराखंड की सरकार ने ऐसा नहीं किया। इसके अलावा सरकार का एक गलत कदम यह भी था कि उसने खारिज विधेयक को पारित मान लिया। यह कदम राज्य सरकार की ओर से अलोकतांत्रिक ही कहा जाएगा। कांगे्रस केन्द्र सरकार की भूमिका के बारे में कुछ भी कहे, भले ही आरोप लगाए, लेकिन उत्तराखंड में जो कुछ भी हुआ वह वहां के राज्यपाल की रिपोर्ट के आधार पर ही हुआ। राज्यपाल कृष्णकांत पाल ने अपनी रिपोर्ट में शासन की नाकामी को आधार बनाया। उसके बाद केन्द्र सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह राज्यपाल की रिपोर्ट के आधार पर केन्द्रीय कैबिनेट की बैठक में विचार विमर्श करके निर्णय ले। इस बैठक में उत्तराखंड के हालातों को सही ठहराया गया और राज्य सरकार की बर्खास्तगी की कार्यवाही हेतु रिपोर्ट राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को भेज दी। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने रिपोर्ट को सही मानते हुए प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू करने का निर्णय लिया।