Home > Archived > लाल आतंक का क्रूर चेहरा

लाल आतंक का क्रूर चेहरा

लाल आतंक का क्रूर चेहरा
X

भागें नहीं, जवाब दें विजयन

22 वर्ष पहले कन्नूर (केरल) के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक सदानंद मास्टर के दोनों पैर कम्युनिस्ट आतंकियों ने काट डाले थे। तब से सदानंद जी संघ का गणवेश नहीं पहन पाते थे। इस वर्ष विजयादशमी पर उन्होंने 22 वर्ष बाद गणवेश पहना था।

केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन की इस बात से सौ फीसदी सहमत हुआ जा सकता है कि उनके खिलाफ मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में हुए विरोध प्रदर्शन के पीछे ‘संघ संस्कृति’ है। नि:संदेह यह संघ अर्थात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ही संस्कृति है, जो विचारों में घोर असहमति के बावजूद सामने वाले पक्ष को अपना मानती है। विजयन यह जानते हैं कि यह संघ संस्कृति ही है कि उनके दामन पर खून के छींटे होने के बावजूद राष्ट्रीय विचारों के प्रतिनिधि उनसे शांतिपूर्वक मिलकर अपनी भावनाओं से, अपनी पीड़ा से उन्हें अवगत कराना चाहते थे। पर विजयन के लिए यह संभव नहीं था, कारण वे जिस विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं उसमें विचारों की असहमति को कुचला जाता है, उसमें वैचारिक विरोध पर हिंसा का सहारा लिया जाता है। जाहिर है, केरल में लाल आतंक का कहर बरसाने वाले विजयन शांति से पराजित हो जाते हैं और बजाय साहसपूर्वक अपने वैचारिक विरोधियों का पक्ष समझने के वे उल्टे पांव अपने बिल (केरल) में घुस कर फिर एक झूठ का पहाड़ खड़ा करने पर आमादा हंै, जो वामपंथियों का मूल चरित्र है।

उल्लेखनीय है कि विगत दिनों केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन राजधानी भोपाल के प्रवास पर थे। भोपाल में एक मलयाली समुदाय का संगठन श्री विजयन का सम्मान करना चाहता था। श्री विजयन की यात्रा को देखते हुए भोपाल में ही राष्ट्रीय विचारों से जुड़े संगठन ने पिनाराई विजयन के खिलाफ एक शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन का निर्णय लिया था। यह निर्णय क्यों लिया इसके लिए पिनाराई विजयन का मात्र केरल के मुख्यमंत्री के नाते परिचय अधूरा है। किसी प्रदेश का मुख्यमंत्री होना एक सभ्य एवं सुसंस्कृत परिचय है पर विजयन को समझने के लिए, उनकी पार्टी लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) का इतिहास एवं वर्तमान जानना जरूरी है। आइए अतीत के पन्नों को पलटें। क्या आप जानते हैं कि 28 अप्रैल 1969 को केरल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक मुख्य शिक्षक श्री वेदिक्कल रामकृष्णन की बर्बरता से हत्या करने वाले प्रमुख आरोपी आज के केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ही हैं? दूसरे आरोपी थे राजू मास्टर जो वर्तमान में सीपीआई (एम) के राज्य सचिव श्री कोडियरी बालकृष्णन के ससुर हैं। यह अलग बात है कि पुलिस की लचर जांच के चलते दोनों ही आरोपी अदालत से बरी हुए।

यह पहली और अंतिम घटना नहीं है। केरल में हिंसा का दौर आजादी से पहले का है। असहमति को किसी भी कीमत पर कुचलना केरल में दशकों पहले शुरु हो चुका था। कांग्रेस मुस्लिम लीग से अपने संबंधों के चलते खामोश रही। वामपंथ की कथित विचार यात्रा का श हिंसा ही है।

थोड़ा और पीछे चलें तो ध्यान में आएगा कि...

"केरल के तालिबानीकरण की शुरुआत तो 1921 में हुए मोपला दंगे से ही हो गई थी। लेकिन लाल चश्मे से इतिहास लिखने वाले इतिहासकारों और शर्मनाक गठबंधन की राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों ने इस सच पर पर्दा डाले रखा और ‘सिर्फ एक विद्रोह’ कहकर प्रचारित किया।"

29 नवम्बर 1921 को एनीबेसेण्ट जैसी विदुषी महिला ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था-‘‘The Misery is beyond description’’ वे आगे और लिखती हैं कि ऐसी जघन्यता आज तक उन्होंने नहीं देखी पर दुर्भाग्य देखिए 1921 में हिन्दू महिलाओं और बच्चों की हत्या करने वाले मुख्य आरोपी बरियम कुन्नाथु को सीपीएम ने शहीद का दर्जा दे दिया।

लिखने की आवश्यकता नहीं विजयन इसी विचारधारा की उपज हैं। यह लाल हिंसा की षड्यंत्रपूर्वक योजनाबद्ध शुरुआत थी। केरल के बढ़ते तालिबानीकरण के पीछे एक और बड़ा कारण पेट्रो डालर की बरसात है। पेट्रो डालर मिशनरी मुल्लाओं, वामपंथियों एवं कांग्रेस का राजनीतिक सहारा है जो तथाकथित बुद्धिजीवियों के घर की रसोई भी और देश दुनिया में अय्याशी की जुगाड़ भी। परिणाम सामने है। केरल का गठन 1956 में हुआ था, तब यहां हिन्दुओं की जनसंख्या 61 प्रतिशत थी, आज 50 फीसदी रह गई है। इसी बीच मुस्लिम एवं ईसाई यहां आश्चर्यजनक रूप से बढ़े हैं। आज केरल में एक शुद्ध मुस्लिम जिला ‘मलप्पुरम’ अस्तित्व में आ चुका है। जहां अलीगढ़ मुस्लिम विद्यालय की शाखा केरल सरकार 1000 एकड़ में प्रारंभ कर रही है। इरादे क्या हैं, यह अब भी लिखने की आवश्यकता है?

जनसंख्या असंतुलन, राष्ट्रघाती शक्तियों के इन्हीं षड्यंत्रों पर विगत 24 अक्टूबर 2016 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल की बैठक में एलडीएफ के नेतृत्व में गठित सरकार के बाद केरल में तेजी से फिर बढ़ रही हिंसा पर चिंता भी प्रगट की थी पर इस पर गौर करना देश के निष्पक्ष (?) मीडिया ने जरूरी नहीं समझा। आंकड़े बताते हैं कि इन सात दशक में 250 से अधिक बेकसूर संघ के स्वयंसेवकों की हत्याएं हुई हैं और उन्हें आर्थिक रूप से भी बर्बाद करने के षड्यंत्र आज भी लगातार जारी हैं। ज्यादा पीछे न भी जाएं तो विगत 11 जुलाई 2016 को श्री सी.के. रामचन्द्रन की उनकी पत्नी एवं बच्चों के सामने हुई हत्या बर्बरता का प्रमुख उदाहरण है। रामचन्द्रन भारतीय मजदूर संघ के कार्यकर्ता थे। विगत 3 दिसम्बर 2016 को श्री विनीश की कन्नूर में हत्या हुई।

विनीश एक स्वयंसेवक थे। विगत 12 अक्टूबर को मुख्यमंत्री विजयन के विधानसभा क्षेत्र में रेमिथ उथपन की हत्या उस समय हुई जब वह अपनी गर्भवती बहन के लिए दवाई ले रहे थे। रेमिथ के पिता भी वामपंथी हिंसा के शिकार हो चुके हैं।

जाहिर है सभ्य लिबास में संवैधानिक पद पर बैठकर देश की अस्मिता से खिलवाड़ करने वाले विजयन का विरोध एक युगानुकूल राष्ट्रीय कर्तव्य था, जो राजधानी में राष्ट्रवादी संगठनों ने किया। प्रदेश सरकार ने भी उन्हें सुरक्षा देने से इनकार नहीं किया था बल्कि थोड़ा ठहर कर जाने के लिए कहा था। मुझे लगता है कि राज्य शासन की सदाशयता भी इतनी ही पर्याप्त है।

"केरल का ‘कन्नूर’ जो वामपंथ की हिंसा का गढ़ बन चुका है, आज देशभर में चिंता एवं आक्रोश का विषय है। ‘कन्नूर’ को आतंक का पर्याय बनाने वाले विजयन से आंख में आंख डालकर यह सवाल करने का समय है। जन संगठन अगर यह करते हैं तो उन्हें इसका अधिकार है। इसमें खेद की कोई गुंजाइश नहीं है।"

(लेखक स्वदेश के समूह संपादक हैं)

Updated : 13 Dec 2016 12:00 AM GMT
Next Story
Top