जटिल है जीवन रहस्यों का ज्ञान

जटिल है जीवन रहस्यों का ज्ञान

जीवन एक पहेली है। भौतिक विज्ञान में बड़ी उन्नति हुई है। अणु, परमाणु से भी आगे बढक़र तरंग और ऊर्जा का रूपायन देखा जा चुका है। पृथ्वी के अलावा अन्य तमाम ग्रहों पर भी जीवन की संभावनाओं की शोध जारी है लेकिन मनुष्य के अंतरंग में उपस्थित भय, ईष्र्या, द्वेष, सुख और दुख आदि के रहस्यों से पर्दा उठना शेष है। जीवन रहस्यों का ज्ञान जटिल है। विज्ञान की सीमा है। वैज्ञानिक उपकरणों से पदार्थ के सूक्ष्मतम घटकों का ही अध्ययन संभव है लेकिन जीवन की गतिविधि का प्रेरक अज्ञात, अदृश्य, अंतरंग तत्व पदार्थ ही नहीं है। यह पदार्थ और ऊर्जा के अलावा भी कुछ और है। विज्ञान प्राकृतिक नियमों की खोज करता है, पृथ्वी, मंगल, बुध, बृहस्पति या शनि ग्रहों की गति आदि के आधार पर नियमों का दर्शन। लेकिन सुख या आनंद के कोई नियम नहीं हैं। पृथ्वी की गति सुस्पष्ट है। यह पांच महाभूतों पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश में से एक है। पांचों महाभूतों में आकाश अतिसूक्ष्म है। आकाश का कोई नियम अभी तक वैज्ञानिक शोध का भाग नहीं बना है। जीवन में आकाश का भी भाग है।

प्रकृति के सभी घटक परस्परावलम्बन में हैं। सब परस्पर आश्रित हैं। हम मनुष्य और सभी प्राणी प्राण वायु के लिए वनस्पतियों के कृपा पात्र हैं। जल के अभाव में जीवन की गति नहीं। जल, ताप, आश्रय के लिए पृथ्वी और शब्द दिव्यता के लिए आकाश प्रसाद पर निर्भर है। गीता में परस्पर निर्भरता के लिए बहुत सुंदर शब्द प्रयोग हुआ है - यज्ञ चक्र। वैदिक पूर्वजों ने प्रकृति के कार्य व्यापार को यज्ञ कहा है। गीता (4.10) के अनुसार प्रजापति ब्रह्मा ने यज्ञ किया, सृष्टि रची। यहां एक सुंदर श्लोक (4.14) में कहते हैं, प्राणी अन्न पर आश्रित हैं। अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है। वर्षा यज्ञ से होती है और यज्ञ नियत कर्तव्य से संपन्न होता है। यहां यज्ञ या हवन साधारण कर्मकाण्ड नहीं है। यहां नियत कर्म कर्तव्य ही यज्ञ है। बताया है कि यज्ञ से देवता प्रसन्न होते हैं। प्रसन्न देवता हम सबको प्रसन्न करते हैं। परस्पर प्रसन्नता के भाव से सबको प्रसन्नता मिलती है। प्रसन्नता का रहस्य परस्पर आत्मीयता से ही जुड़ा हुआ है। परस्पर आश्रय, परस्परावलम्बन और परस्पर प्रीति ही प्रसन्नता के मार्ग हैं। एकाकी को सुख नहीं मिलता। जीवन का सौन्दर्य कर्तव्य में खिलता है और कर्तव्य सामाजिक दायित्व ही है।

जीवन सरल रेखा में नहीं चलता। सुख, दुख हर्ष-विषाद चक्रीय गति में आते जाते हैं। भारतीय चिन्तन में काल को भी चक्र रूप में देखा गया है। साधारण बातचीत में भी ‘समय चक्र’ की चर्चा होती है। परस्परावलम्बन का देव मनुष्य सिद्धांत अनूठा है। हम सबके लिए हैं। सब हमारे हैं। हम सब प्रसन्नता चाहते हैं। स्वयं को प्रसन्न रखने के तमाम साधन जुटाते हैं, अनेक प्रयास भी करते हैं। प्रसन्नता तो भी नहीं आती। हम परस्परावलम्बन का ध्यान नहीं रखते। वैदिक मंत्रों में सर्वे भवन्तु सुखिन: की स्तुतियां हैं। लेकिन हम सामाजिक प्रसन्नता के प्रयास नहीं करते। प्रसन्न समाज ही अपनी प्रसन्नता की वर्षा हम पर करता है। दुखी समाज दुख देगा। उसके पास जो कुछ है, वह हमें वही संपदा लौटाएगा। हम स्वयं संतुष्ट नहीं हैं, हमारे प्रयास भी प्रसन्नता के लिए पर्याप्त नहीं हैं। हम समाज को प्रसन्नता देने की स्थिति में नहीं हैं। मान लें कि हम कुछ भी करने की स्थिति में नहीं हैं। लेकिन हमारे आचरण या व्यवहार से किसी को अप्रसन्नता भी नहीं मिलनी चाहिए। हम सुख नहीं दे सकते लेकिन दुख देने से बचने का प्रयास तो कर ही सकते हैं। समूची प्रकृति के प्रति संवेदनशील होते ही जीवन का दृष्टिकोण बदल जाता है।

जीवन स्वावलम्बन में ही नहीं चलता। स्वतंत्र होना निरपेक्ष नहीं है। जीवन का बड़ा भाग ‘आश्रित’ के रूप में बीतता है। जन्म से लेकर 18-20 वर्ष माता पिता के आश्रय में व्यतीत होते हैं। प्रारम्भ के पांच वर्ष की शिशु अवस्था तो शत प्रतिशत आश्रित ही होती है। इसी तरह अंतिम पांच - दस वर्ष बुढ़ापे के समय जीवन पराश्रित होता है। वैदिक अभिलाषा में जीवन की अवधि 100 वर्ष है। ज्योतिर्विज्ञानी 120 वर्ष का चित्र बनाते हैं। भारत में औसत आयु लगभग 75-80 वर्ष है। 90-100 वर्ष के जीवन प्राय: अपवाद हैं। शैशव, बाल्यावस्था और बुढ़ापे के पराश्रित जीवन की अवधि लगभग 20-25 वर्ष होती है। कुल जीवन की अवधि 80 मानें तो 45-50 वर्ष ही स्वावलम्बन में बीतते हैं। शिशु और वृद्ध का पराश्रित होना एक जैसा है। पहले शैशव में भरपूर संरक्षण और आश्रय चाहिए फिर वृद्धावस्था में भी वैसा ही आश्रय संरक्षण और देखभाल। लेकिन ऐसा नहीं होता। यहां सभी शिशुओं को संरक्षण मिलता है। लेकिन सभी वृद्धों को वैसा ही संरक्षण नहीं मिलता। अधिकांश वृद्ध जीवन की संध्या में एकाकी हैं। आधुनिक उपयोगितावाद ने वृद्धों को और अकेला छोड़ दिया है।

हमारी देह और व्यक्तित्व में माता पिता का विस्तार है। दोनों की देह, प्राण और प्रीति से ही हमारा जन्म संभव हुआ है। माता दुलारती थीं, पिता डांटते थे। मैंने माता के स्पर्श में दिव्य ऊर्जा का अनुभव पाया है। अब 70 वर्ष का हूं। माता हैं नहीं और पिता भी नहीं। यह स्वाभाविक भी है। अब कौन डांटे? कौन दुलार दे? बेचैनी और उदासी के क्षणों में मैं अपने भीतर अपनी माता का अंश-भाव अनुभव करता हूं और स्वयं के शरीर को सहलाता हूं। माता का स्पर्श सुख मिल जाता है। इसी तरह अपनी मूर्खता और गल्तियों के लिए स्वयं को डांटता रहता हूं, वैसे ही जैसे हमारे पिता हमको डांटते थे। मां बहुत प्यार करती थी, पिता जरूरत से ज्यादा डांटते थे। मैं प्रतिदिन स्वयं पिता बनकर स्वयं को डांटता हूं, स्वयं डाट खाता हूं। मैं 70 वर्ष की उम्र में भी रोगरहित 16-18 घंटे सतत् कर्मरत जीवन जीता हूं। इसका मूल कारण स्वयं में माता पिता की अनुभूति का पुनर्सृजन ही है संभवत:। संभवत: इसलिए कहा है कि जीवन की गतिशीलता और पुलक, उत्सव व विषाद-प्रसाद में अनंत प्रकृति भी भाग लेती है तो भी माता पिता की अनुभूति का प्रसाद गहरा है।

मनुष्य जीवन की आचार संहिता बनाना आसान नहीं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना अच्छी बात है। भारत का धर्म जीवन की आचार संहिता है। इसका सतत् विकास हुआ है। इसे समयानुकूल बनाने के प्रयास लगातार चलते हैं। यहां कोई अंतिम निष्कर्ष नहीं है। यहां ऋषियों, विद्वानों, समाजसुधारकों व दार्शनिकों की समृद्ध परंपरा है। कालवाह्य को छोडऩा और कालसंगत को जोडऩे का काम आज भी जारी है। धर्म जड़ या स्थिर जीवन दृष्टि नहीं है। दुनिया के तमाम पंथों व आस्था समूहों में भी जीवन की आदर्श आचार संहिता बनाने के प्रयास दिखाई पड़ते हैं लकिन उनमें कालवाह्य को छोडऩे की प्रवृत्ति नहीं दिखाई पड़ती। वे बहस नहीं करते। कट्टरपंथ के कारण जीवन पराश्रित हो रहा है। भयावह रक्तपात है। स्वतंत्र विवेक की जगह नहीं। जीवन रहस्यों के शोध का काम है ही नहीं। स्थापित मान्यताओं पर पुनर्विचार असंभव दिखाई पड़ता है। भारत सौभाग्यशाली है। यहां जीवन रहस्यों के शोध और बोध का काम कभी नहीं रूका। इसकी गति और तेज किए जाने की आवश्यकता है।


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