निकाय चुनाव के बाद प्रदेश में कांग्रेस का सूपड़ा साफ
भोपाल। मध्यप्रदेश के इतिहास में संभवत: यह पहला अवसर है जब प्रदेश की 16 नगर निगमों में से एक पर भी कांग्रेस का कब्जा नहीं है। सभी जगह उसका सूपड़ा साफ हो चुका है। नगरीय निकायों के पहले चरण के चुनाव में 14 नगर निगमों के लिए चुनाव हुए थे और सभी में जनता ने कांग्रेस को धोकर रख दिया था।
दूसरे चरण में 10 निकायों के साथ शेष रह गई दो नगर निगमों के लिए भी चुनाव हुए। नतीजा, यहां भी कांग्रेस चारों खाने चित और भाजपा की बल्ले-बल्ले। इतना ही नहीं कांग्रेस 10 में से 9 निकाय हार गई। एक सारंगपुर नगर पालिका में कांग्रेस इसलिए जीती क्योंकि वह कांग्रेस महासचिव व पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के गृह क्षेत्र राजगढ़ के अंतर्गत है और सारंगपुर में उनके अनुज पूर्व सांसद लक्ष्मण सिंह ने डेरा डालकर कांग्रेस को जिताने के लिए कड़ी मेहनत की।
ये चुनाव इसलिए भी ज्यादा मायने रखते हैं क्योंकि कांग्रेस ने व्यापमं को लेकर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के खिलाफ आसमान सिर पर उठा रखा है। उनके इस्तीफे की मांग को लेकर कांग्रेस ने इस कदर हंगामा किया कि न दिल्ली में संसद चली और न मप्र में विधानसभा।
निकाय चुनावों में प्रचार अभियान के दौरान भी कांग्रेस के लिए व्यापमं मुख्य मुद्दा था। पर नतीजों ने कांग्रेस को सदमे में डाल दिया, जबकि शिवराज ने अपनी पकड़ साबित की। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने साबित किया कि प्रदेश की जनता में उनका जादू अब भी बरकरार है।
राजनीति में 'जीत' ही महत्वपूर्ण और सर्वोपरि है। जिसे जनता का भरोसा हासिल है, उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता, ना खुद की पार्टी और ना ही विपक्ष। यही शिवराज की पूंजी है।
हार से कोई सबक नहीं
प्रदेश में कांग्रेस साढ़े 11 साल से सत्ता से बाहर है औद देश में पार्टी 44 लोकसभा सीटों पर सिमट गई है। दिल्ली में कांग्रेस नेतृत्व जिस तरह सक्रिय है, इससे पता चलता है कि वह देश में पार्टी की वापसी को लेकर चिंतित है। लेकिन प्रदेश में कांग्रेस का कोई नेता हार से सबक लेने को तैयार नहीं है।
पार्टी प्रदेश में वर्ष 2003 से लगातार हर चुनाव हार रही है, लेकिन प्रदेश से जुड़ा कांग्रेस का कोई नेता सुधरने को तैयार नहीं है। अब भी सबकी 'अपनी ढपली और अपना राग' है। टिकट वितरण का दौर हो या फिर संगठन में पद हासिल करने का मसला, कांग्रेस के सभी दिग्गज अपने समर्थकों को जगह दिलाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा देते हैं, लेकिन चुनाव में पार्टी जीते, इसके लिए कोई प्रयास करता नजर नहीं आता।
नहीं चला अरुण यादव का जादू
युवा और पिछड़े वर्ग का होने के कारण अरुण यादव को प्रदेश कांग्रेस का प्रमुख बनाया गया था। वे दो बार सांसद रह चुके थे और केंद्रीय मंत्री भी। उनके साथ उनके पिता स्वर्गीय सुभाष यादव की राजनीतिक पृष्ठभूमि भी थी।
पार्टी नेतृत्व को उम्मीद थी कि अरुण मप्र में कांग्रेस की खोई जमीन वापस लाने में सफल होंगे पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। जब से वे प्रदेश अध्यक्ष बने तब से पहले लोकसभा, फिर पंचायत, सहकारिता तथा नगरीय निकाय सहित जितने भी चुनाव हुए सभी में कांग्रेस को करारी शिकस्त मिली।
इस समय पार्टी का कोई बड़ा नेता उनके साथ नहीं है। लापरवाही का आलम यह है कि यहां नामांकन वापसी के बाद प्रचार अभियान शुरू हुआ और अरुण ने 5-6 दिन के लिए दिल्ली में डेरा डाल दिया। अर्थात, बड़े नेता आए नहीं, नेता प्रतिपक्ष सत्यदवे कटारे मुंबई में बीमार पड़े थे और खुद प्रचार अभियान छोड़कर दिल्ली में पड़े रहे।