ज्योतिर्गमय
अभ्युदय
मानव को परमात्मा की श्रेष्ठतम रचना माना जाता है। बुद्धि, विवेक और ज्ञान द्वारा वह अपने समाज के अभ्युदय के लिए प्रयासरत रहता है। व्यक्ति-व्यक्ति मिलकर समाज का निर्माण करते हैं और समाज के समूह मिलकर एक देश बनते हैं। देश, काल और परिस्थिति के अनुसार जब समाज आगे बढ़ता है और अपने श्रेष्ठ जीवन-मूल्यों के प्रति संघर्ष करता हुआ उस भू-भाग के अभ्युदय के लिए सचेष्ट रहता है, तब एक राष्ट्र का निर्माण होता है। ऐसा राष्ट्र ऐसे लोगों का समूह कहलाता है जिनके भाव-भाषा, आचार-
विचार, धर्म-
धारणा,
समरसता-
सद्भाव परंपरा व संस्कार व संस्कृति समान होते हैं। ऐसे भाव से परिपूर्ण समाज ही राष्ट्र का निर्माण करते हैं। ऐसे समाज से निर्मित भारत एक राष्ट्र है। राष्ट्र की विशेष संस्कृति और परंपरा से चली आई सभ्यता होती है। हमें अपने राष्ट्र के अभ्युदय के प्रयास करने के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए। यही राष्ट्र-भक्ति है। वैसे तो अभ्युदय का शाब्दिक अर्थ है-उन्नति, मनोरथ की सिद्धि और शुभ फल। राष्ट्र के अभ्युदय के लिए हमें विश्व कुटुंब में अपने राष्ट्र की महानता, श्रेष्ठता और गुरुता को प्रतिष्ठापित करना चाहिए। पूर्व के इस राष्ट्र को 'विश्व-गुरुÓ के श्रेष्ठतम पद को प्राप्त कराने, उन्नतिशील और आनंदित बनाकर अभ्युदित करने का उपक्रम चलाते रहना चाहिए, जिसे अब पुन: प्रतिष्ठित करना है।
व्यक्ति जब अपना अभ्युदय करेगा, तब समाज का भी उत्थान होगा। व्यक्ति और समाज दो अलग अस्तित्व नहीं बल्कि एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ऐसा अभ्युदित राष्ट्र विश्व का सिरमौर होगा और व्यक्ति के कल्याण का मार्ग प्रशस्त होगा। जीवन में दुख के अभाव को नि:श्रेयस् कहा गया है। मानव-जीवन के कल्याणार्थ नि:श्रेयस् का भाव
आवश्यक है। इस जीवन-धारा में पुरुषार्थ के अंतिम लक्ष्य 'मोक्षÓ की प्राप्ति, धर्म और राष्ट्र का अभ्युदय नि:श्रेयस् के कारण ही संभव है। यही अभ्युदय और नि:श्रेयस् राष्ट्र को ऊर्जा प्रदान करते हैं। राष्ट्र-भक्ति राष्ट्र को वैभव संपन्न, अजेय और शक्तिशाली बनाती है। इस राष्ट्र में निवास करने वाले हर व्यक्ति का यह कर्तव्य होना चाहिए कि राष्ट्रोन्नति में अपनी सामथ्र्य के अनुसार जितना संभव हो सके, उतना योगदान दे। यही देश और समय की पुकार है।