ज्योतिर्गमय
मर्यादा
जीवन में संतुलन और सामंजस्य कायम रखने के लिए मर्यादा का पालन करना नितांत आवश्यक होता है। मर्यादित जीवन का अर्थ है मनुष्य अपने हर विचार, व्यवहार और कर्म को आध्यात्मिक सीमा के अंदर रहकर ही करे। तभी उसके जीवन की दशा और दिशा सुधरती है। सही दिशा की तरफ आगे बढ़कर मनुष्य अपने सुकर्मों का सहारा लेकर जीवन में उच्चता प्राप्त कर सकता है। यदि व्यक्ति आध्यात्मिक सीमा में रहते हुए कोई अतिशय अनुचित कार्य न करे तो वही मर्यादा कहलाती है। आज समाज में मर्यादा का पतन हो रहा है। मर्यादा के मायने बदल गए हैं, परंतु हमें समझना होगा कि भारतीय संस्कृति में भी हमें मर्यादा एक तत्व के रूप में और मर्यादित जीवन एक जीवंत उदाहरण के रूप में देखने और सीखने को मिलते हैं।
भगवान श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है, क्योंकि श्रीराम ने अपने जीवन में श्रेष्ठ आध्यात्मिक व नैतिक मूल्यों को कायम रखते हुए अपने जीवन को समाज व राष्ट्र साधना में न्यौछावर किया। साथ ही समस्त मानवजाति के लिए एक श्रेष्ठ व आदर्श जीवन जीने का उदाहरण पेश किया। मर्यादा व अनुशासन एक साधक के लिए नितांत आवश्यक है। मर्यादा का पालन करने का मतलब संकुचित रहना या अपने आपको दबा हुआ महसूस करना नहीं होता है, बल्कि उत्कृष्ट साधना की अभिव्यक्ति आध्यात्मिक मूल्यों की मर्यादा में रहकर ही हो सकती है। सदाचारी व्यक्ति मर्यादित होगा, वह आध्यात्मिकतावादी होगा। अल्पकालीन स्वार्थपूर्ति के लिए किसी का तुष्टीकरण करना, गैर आध्यात्मिक तत्वों के लिए अपनी गरिमा व आत्म-सम्मान को झुकाना, दूसरों को अच्छा दिखाने के लिए आध्यात्मिक व राष्ट्रवादी तत्वों पर समझौता करना, ये सभी उदाहरण मर्यादा के विरुद्ध हैं। इनसे हमें बचने की नितांत आवश्यकता है। इन पर विजय प्राप्त करते हुए हमें संकुचित मानसिकताओं से ऊपर उठकर अपने जीवन में नि:स्वार्थ, निर्भीक व निरंहकार राष्ट्रसाधना को सिद्ध करना होगा। संकुचित मानसिकता किसी व्यक्ति के चिंतन-मनन की प्रक्रिया पर बेहद विपरीत असर डालती हैं और इसके प्रभाव में उसके भीतर की सकारात्मकता का लोप होने लगता है।