ज्योतिर्गमय
मैं-मै मत करो
एक बार देवराज इन्द्र और दैत्य विरोचन में इस बात पर विवाद हुआ कि हम हमेशा 'मैं 'मैं की रट लगाते हैं, पर यह 'मैं है कौन? इसे जानने के लिए प्रजापति के पास गए। उन्होंने कहा, 'हममें 'मैं कौन है, इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिल पा रहा है। उसे जानने के लिए हम आपके पास आए हैं।
प्रजापति बोले, 'यदि थाली में जल भरकर उसमें देखोगे, तो इसका उत्तर मिल जाएगा। दोनों ने अलग-अलग थालियों में जल भरा और उसमें देखने लगे। विरोचन को जब जल में अपना सुन्दर रूप दिखाई दिया, तो वे स्वयं पर मुग्ध हो गए और चिल्ला उठे, 'मैं का पता मुझे चल गया है। मैं यानी अपनी देह। देह जो कुछ भी करता है, वह मैं ही करता हूं।
इधर जब इन्द्रदेव को थाली में अपना प्रतिबिम्ब दिखा, तो वे सोचने लगे- इसमें जो आकृति दिख रही है, वह आज सुरूप है, पर कल भी हो सकती है। अत: इसे निश्चित रूप में 'मैं नहीं कहा जा सकता। यदि 'मैं सुरूप न दिखाई दे, तो इसे निखारने हेतु इसे सुन्दर वस्त्र-आभूषणों से सज्जित करना होगा। पर तब क्या यह 'मैं कहलाएगा? अत: जो कुछ दृष्टिगोचर होता है, वह सच्चा 'मैं नहीं होगा। जिस देह को 'मैं माना जाता है, यदि इसकी चमड़ी निकाल दी जाए, इसे रक्त-मांस-मेद-भाव आदि से रहित कर दिया जाए, तब कंकाल हो जाने पर क्या यह 'मैं कहलाएगा? इसलिए इस शरीर को सच्चा 'मैं मानकर उस पर उल्लसित होना या उस पर दंभ करना उचित नहीं। 'मैं का स्वरूप कुछ और ही है।
योग्यता की परीक्षा- एक बार संत गाडगे महाराज के पास तीन युवक आए और बोले कि वे उनका शिष्य बनना चाहते हैं। गाडगेजी ने उनके वस्त्र देखकर मन ही मन में सोचा कि इनकी परीक्षा लेकर देखना चाहिए कि क्या ये शिष्य बनने के योग्य हैं और क्या ये लोगों की सेवा कर सकेंगे? कहीं ऐसा तो नहीं कि ये यह सोचकर आए हों कि यहां मंदिर में अच्छा खाने-पीने को मिलेगा! उन्होंने तीनों से अलग-अलग प्रश्न किया, 'बताओ, आंख और कान में कितना अंतर है? पहले ने कुछ सोचकर कहा, 'तीन उंगलियों का।, दूसरा बोला, 'कान धोखा दे सकते हैं, पर आंखों देखा सच होता है, अत: आंखें कानों से श्रेष्ठ हैं। तीसरे ने बताया 'आंखें केवल दिखाने का काम करती है। भगवान की प्रतिमा दिखने पर वे हाथों को प्रणाम करने के लिए प्रेरित करती हैं। उसके बाद मनुष्य भगवान को भूल जाता है, पर कान भजन, कीर्तन या प्रवचन सुनकर मानव के मन में भगवान के प्रति अनुराग पैदा कराते हैं और उसे पूजा-अर्चना की प्रेरणा देते हैं। अत: मेरी दृष्टि से आंखों से कान श्रेष्ठ हैं।
गाडगे महाराज ने पहले से कहा, 'तुम व्यापार अच्छा कर सकोगे। अपना धन व्यापार में लगाओ। यही तम्हारे जीवन-निर्वाह का साधन होगा। फिर दूसरे से बोले, 'तुम कॉलेज की शिक्षा ग्रहण करो और वकालत की भी परीक्षा पास करो। वकील का पेशा तुम्हारे जीवन के लिए अच्छा है। फिर तीसरे व्यक्ति से कहा, 'तुम्हारी बातों से लगा कि तुम्हारी भगवान पर श्रद्धा है। पर यहां भगवान की भक्ति के साथ ही तुम्हें जनता-जनार्दन की भी सेवा करनी होगी। यदि इसके लिए तुम राजी हो, तो ये कीमती वस्त्र त्यागकर मेरे शिष्य बन सकते हो।