ज्योतिर्गमय

आन बाण शान

अन कहते हैं अपने आत्म सम्मान को जिसे अलग-अलग समय में अलग-अलग मतलब से इस्तेमाल किया जाता है। राजाओं के जमाने में अपनी आन और शान के लिए एक-दूसरे से युद्ध पर उतारू हो जाते थे। अपने ठाट-बाट गौरव का इतना घमंड होता था कि उस पर यदि आंच आए तो फिर युद्ध अवश्यम्भावी था। एक संत थे बहुत ही सादगीपूर्ण जीवन, एक लंगोटी में रहते थे। सीधा-सादा खाना-पीना बस भगवान में मन लगाए रहते और उपदेश प्रवचन सुनाया करते थे। राजा को लगा कि ये महान संत इतनी गरीबी में रहते हैं इन्हें कुछ भिजवाया जाए। उन्हें बहुत से वस्त्र, आभूषण, जेवर, खाद्य सामग्री आदि भिजवाई गई। उन्होंने सब वापस कर दी कहा कि मुझे इसकी आवश्यकता नहीं है। जरूरतमंदों में बांट दो। सब वापस आ गया। फिर राजा स्वयं गया सब लेकर। संत को देने लगा तो संत ने पुन: कहा, मुझे बाहरी वस्त्र और आडम्बर कुछ नहीं चाहिए, इनकी जरूरत उन्हें है जिनके अंदर कुछ नहीं रहता। मेरा साम्राज्य मेरे अंदर है, मैं उससे तृप्त हूं, संतुष्ट हूं। आप बाहर के आडम्बर में जीते हैं, मैं अंदर के संतोष में। राजा अपना सा मुंह लेकर आ गया और बाद में उसने उसी साधु के पास संन्यास लेकर डेरा डाल दिया। यह होती है अंदर की आन और शान। बाण का काम है भेदना। चाहे वह जानवर हो या इंसान शब्द बाण भी होते हैं और वे बाणों से भी यादा जहर घोलते हैं। मार ही डालते हैं। आदमी तड़पता रहता है। कभी-कभी प्रतिशोध की भावना प्रबल होने पर क्या कुछ नहीं कर देता। बाण मत चलाइए। आन को ठीक रखिए। आन है स्वाभिमान यह व्यक्तियों की भी होती है और राष्ट्रों की भी। आन और शान को बचाना चाहिए हमारा राष्ट्रगीत, हमारा राष्ट्रीय ध्वज सब हमारी आन और शान के हिस्से हैं। इन पर कोई बाण चलाए यह हम कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं। जब कोई वीर सैनिक या अधिकारी शहीद होता है तो उसके शव को राष्ट्रध्वज से लपेटा जाता है। यह भी आन और शान का हिस्सा होता है। राष्ट्रीय ध्वज के फहराने के अपने मापदंड है। रात को नहीं फहराया जाता यह शान के खिलाफ है। इसके नियम बने हुए हैं। कड़ाई से पालन भी होता है। कहीं कोई चूक हो जाए तो उसकी आलोचना होती है। सजा भी मिलती है। ध्वज की परम्परा पौराणिक काल से चली आ रही है। युद्ध के भी नियम होते हैं। झंडे झुका दिए जाते हैं, लड़ाईयां रोक दी जाती हैं क्योंकि यह आन और शान के खिलाफ है। अपनी आन के लिए लोग कट मरते हैं। कहते हैं जिसे अपनी आन की चिंता नहीं, सम्मान नहीं, उसका जीना भी क्या जीना है। पांडव दौपद्री को जुए में हार चुके थे। दुशासन को दुर्योधन ने उसका चीरहरण करने के लिए कहा।
उसने प्रारंभ किया। दौपद्री ने अपनी आन बचाने के लिए कृष्ण से प्रार्थना की। दुशासन साड़ी खींचता रहा पर साड़ी थी कि खतम होने का नाम ही नहीं लेती थी। वह थक गया और हार मान ली। श्रीकृष्ण ने दौपद्री की आन की रक्षा की। भगवान तो हमेशा तत्पर रहते हैं रक्षा करने के लिए आप सच्चे मन से पुकारें तो सही। तो हममें स्वाभिमान रहना चाहिए आन और शान की रक्षा के लिए। जान भले ही चली जाए। लोगों ने बचाई है चाहे उन्हें कुछ भी करना पड़ा हो। तो आइए, हम भी अपनी आन की शान की रक्षा करें। उसके गौरव पर कभी आंच न आने दें। बस, यही मेरा संदेश है।

Next Story