ज्योतिर्गमय

देशभक्ति की सीढिय़ां 


देशभक्ति का अर्थ वैसे तो स्पष्ट है, पर उसकी मूल भावना को जीवन में उतारने के लिए हमें विशेष प्रयत्न करना पड़ता है। इस संदर्भ में स्वामी विवेकानंद के विचार इतने सटीक और प्रेरक है कि वे देशभक्ति के यथार्थ मर्म को उद्घाटित करके रख देते हैं। वे कहते हैं, लोग देशभक्ति की चर्चा करते हैं। मैं भी देशभक्ति में विश्वास करता हूं और देशभक्ति के संबंध में मेरा भी एक आदर्श है। बड़े काम करने के लिए तीन बातों की आवश्यकता होती है। पहला है हृदय- अनुभव की शक्ति। बुद्धि या विचारशक्ति में क्या धरा है? वह तो कुछ दूर जाती है और बस वहीं रुक जाती है। पर हृदय?- हृदय तो महाशक्ति का द्वार है, अन्त:स्फूर्ति वहीं से आती है। प्रेम असंभव को भी संभव कर देता है। इतना कहकर वे संबोधित करते हुए कहते हैं, अतएव ऐ मेरे भावी सुधारकों। मेरे भावी देशभक्तों। तुम हृदयवान बनो। क्या तुम अनुभव करते हो कि अज्ञान के काले बादल ने सारे भारत को ढंक लिया है? क्या तुम यह सब सोचकर द्रवित हो जाते हो? क्या इस भावना ने तुम्हारी नींद को गायब कर दिया है? क्या यह भावना तुम्हारे रक्त के साथ मिलकर तुम्हारी धमनियों में बहती है? क्या वह तुम्हारे हृदय के स्पन्दन से मिल गयी है? क्या उसने तुम्हें पागल सा बना दिया है? क्या देश की दुर्दशा की चिन्ता ही तुम्हारे ध्यान का एकमात्र विषय बन बैठी है? और क्या इस चिन्ता में विभोर हो तुम अपने नाम-यश, स्त्री-पुत्र, धन-सम्पत्ति, यहां तक कि अपने शरीर की भी सुधि बिसर गये हो? क्या सचमुच तुम ऐसे हो गये हो? तो जानो कि तुमने देशभक्त होने की पहली सीढ़ी पर पैर रखा है। हां, केवल पहली सीढ़ी पर!
स्वामी विवेकानंद देशभक्ति का पहला सोपान बताकर दूसरे सोपान की चर्चा करते हुए कहते हैं, अच्छा माना कि तुम अनुभव करते हो, पर पूछता हूं कि क्या केवल व्यर्थ की बातों में शक्तिक्षय न करके इस दुर्दशा का निवारण करने के लिए तुमने कोई यथार्थ कर्तव्यपथ निश्चित किया है? क्या लोगों को गाली न देकर उनकी सहायता का कोई उपाय सोचा है? क्या उनके दु:खों को कम करने के लिए दो सान्त्वनादायक शब्दों को खोजा है? यही दूसरी बात है। पर विवेकानंद यहीं पर नहीं रुकते। वे देशभक्ति की तीसरी कसौटी बताते हुए कहते हैं, पर केवल इतने से पूरा न होगा। क्या तुम पर्वतकाय विघ्न-बाधाओं को लांघकर कार्य करने के लिए तैयार हो? यदि सारी दुनिया हाथ में नंगी तलवार लेकर तुम्हारे विरोध में खड़ी हो जाये, तो भी क्या जिसे तुम सत्य समझते हो, उसे पूरा करने का साहस करोगे? यदि तुम्हारे स्त्री-पुत्र तुम्हारे प्रतिकूल हो जायं, भाग्यलक्ष्मी तुमसे रूठकर चली जाय, नाम कीर्ति भी तुम्हारा साथ छोड़ दे, तो भी क्या उस सत्य में लगे रहोगे? फिर भी तुम उसके पीछे लगे रहकर अपने लक्ष्य की ओर सतत बढ़ते रहोगे? क्या तुमसे ऐसी दृढ़ता है?- बस यही तीसरी बात है। यदि तुममें ये तीन बाते हैं, तो तुममें से प्रत्येक अद्भुत कार्य कर सकता है। तब फिर तुम्हें समाचार पत्रों में छपवाने की अथवा व्याख्यान देते हुए फिरते रहने की आवश्यकता न होगी, स्वयं तुम्हारा मुख ही दर्पण हो जाएगा।
स्वामी विवेकानंद द्वारा प्रतिपादित देशभक्ति के ये तीन सोपान हमारे लिए मननीय हैं। अपनी देशभक्ति को कसौटी पर कसने हेतु ये हमारे लिए निकष का काम करते है। ये हमारे नेत्रों को खोलने के लिए अंजनस्वरूप हैं तथा आज के स्वार्थान्धकार आच्छन्न परिवेश में दीपस्तम्भ के समान है। 

Next Story