अग्रलेख

कलंकित चेहरों ने की 2012 की विदाई

  • जयकृष्ण गौड़ 

जिस तरह इतिहास की विशेष घटनाओं का स्मरण हम सबक और प्रेरणा के रूप में करते है, महापुरूषों का जीवन इसे श्रेष्ठता की ओर ले जाता है और जिन कमियों और बुराईयों के कारण हमारी दुर्गति हुई, उनसे सबक मिलता है। जिस तरह 9/11 एवं 26/11 की तिथियां और वर्ष आतंकवाद के नाम से दर्ज है। उसी तरह सन् 2010 एवं 2011 के वर्ष भ्रष्टाचार के नाम से दर्ज हो गए। चाहे स्पेक्ट्रम का मामला हो, राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में भ्रष्टाचार हो या मुंबई की सोसायटी में घोटाला हो, इनके बारे में आंदोलन, चर्चा विस्तार से हुई। सन् 2012 के मध्य तक बाबारामदेव, अण्णा हजारे, केजरीवाल ने भ्रष्टाचार के बारे में चेतना जागृत की, इसका परिणाम यह हुआ कि सरकार ने लोकपाल विधेयक लाने की पहल की, यह भी संसद में लटका हुआ है। कोई यह सवाल करे कि भ्रष्टाचार के आंदोलन चर्चा और राष्ट्रवादी चेतना के बाद भी क्या भ्रष्टाचार के फैलाव को रोकने में सफलता मिली? उत्तर में नकारा ही मिलेगा। शीर्ष स्तर से नीचे तक भ्रष्टाचार घातक नासूर बन चुका है। सन् 2012 की विदाई हमने ऐसी हृदय विदारक घटना से की जिससे पूरा देश चिंता, शर्म और शोक में डूब गया। देश की राजधानी दिल्ली में एक लड़की के साथ यात्री बस में सामूहिक बलात्कार (गैंग रेप) हुआ, उसने अपनी इज्जत बचाने के लिए संघर्ष किया। 13 दिन तक मृत्यु से कठिन संघर्ष करने के बाद सिंगापुर के अस्पताल में उसकी मृत्यु हो गई। इस बर्बर घटना के बाद से ही दिल्ली में प्रदर्शन हो रहे थे, इन्हें गैर राजनैतिक कहें या राजनैतिक, यह परिभाषित करना कठिन है, क्योंकि हर मामले का सरोकार राजनैतिक नहीं होते हुए भी राजनीति से जुड़ जाता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में हर समस्या का निराकरण हम सत्ता के गलियारों में तलाश करते हैं। लड़की के साथ हुई बर्बरता को लेकर लोग आंदोलित हुए, महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों को लेकर व्यापक चर्चा हुई, प्रदर्शन में हिंसा भी हुई। इसमें एक घायल सिपाही की मृत्यु भी हो गई। हालांकि सिपाही की मृत्यु पर उसके परिवार के अलावा किसी ने आंसू नहीं बहाए। शांति की दुहाई देकर जो आंदोलन होते हैं, वे हिंसक क्यों हो जाते हैं। इस बारे में भी विचार होना चाहिए। हमारी विडंबना है यह है कि हम भीड़ से भी यह उम्मीद करते है कि वह गांधीवादी बनकर सब कुछ बर्दाश्त करती रहे, हिंसा से प्रेरित करने वाली बातों से अहिंसा को सुरक्षित रखना संभव नहीं है। गैंगरेप से पीडि़त लड़की ने इस घृणित और बर्बर बुराई के खिलाफ संघर्ष करते हुए मृत्यु का आलिंगन कर लिया। वह उसी तरह शहीद हुई जिस तरह युद्ध में अपनी विजय पताका फहराने के लिए सैनिक शहीद होता है? अब सवाल यह है कि क्या कानून 2012 के अंतिम दिनों में जिस लड़की ने जिस घातक बुराई के खिलाफ अपने जीवन का बलिदान दे दिया? उस बर्बर बुराई को मिटाने में क्या सफलता मिलेगी? करीब 80 हजार बलात्कार के प्रकरण न्यायालयों में दर्ज हैं। उ.प्र. की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती कह रही थी कि सपा की अखिलेश की सरकार के समय करीब दस हजार बलात्कार हुए। म.प्र. में भी सबसे अधिक मामले पुलिस रिकार्ड में है। हमारी सामाजिक मान्यता या मानसिकता ऐसी है कि कोई भी महिला पीडि़त होने के बाद भी शिकायत नहीं करती क्योंकि नाम उजागर होने के बाद उसका पूरा जीवन बर्बाद हो जाता है। पीडि़त लड़की ने जिस तरह मृत्यु से संघर्ष किया, उसकी पीड़ा न केवल महिलाओं की पीड़ा है, बल्कि समग्र समाज की वेदना है। इस वेदना को दूर कैसे किया जाए? इस बारे में गहराई से मंथन हुआ? इसमें सरकार से यह मांग की गई कि बलात्कार के मामले में मृत्युदंड का प्रावधान रखा जाए? प्रधानमंत्री ने भी कहा है कि लड़की का बलिदान बेकार नहीं जाएगा। आरोपियों के खिलाफ धारा 302 में हत्या का प्रकरण दर्ज कर लिया है। हो सकता है कि ऐसे दोषियों को मृत्युदंड देने का प्रावधान हो जाए। हालांकि न्यायिक प्रक्रिया लंबे समय तक चलती है, इसलिए कोई सार्थक परिणाम आने की उम्मीद कम है, लेकिन इससे कानून का भय तो कमोवेश पैदा हो सकता है। हत्या के लिए मृत्युदंड का प्रावधान है? लेकिन क्या हत्याएं रूकी हैं?
'महिलाओं के साथ दुराचार की घटनाएं क्यों बढ़ रही है, इस सवाल के उत्तर की तलाश हमें जीवन पद्धति में करना होगी। एक पाश्चात सभ्यता और उसके जीवन मूल्य, दूसरी ओर है भारतीय सभ्यता की जीवन दृष्टि।Ó पाश्चात सभ्यता के जीवन मूल्य भौतिकता और शारीरिक सुख पर आधारित है। खाओ-पिओ ऐश करो ही जीवन लक्ष्य रहता है। भारतीय जीवन दृष्टि में आत्म सुख की ओर मनुष्य को प्रेरित किया जाता है। श्रेष्ठ चरित्र ही श्रेष्ठ जीवन की आधारशिला है। चरित्र निर्माण के लिए संस्कार की एक पद्धति विकसित की। वैदिक काल में जीवन को चार आश्रम में विभाजित किया गया। शिक्षा, चरित्र, निर्माण पर केंद्रित थी। व्यक्ति, परिहार और समाज के प्रति दायित्वों का निष्ठा के निर्वाह करने की सुदृढ़ व्यवस्था सदियों तक ठीक प्रकार से सुनिश्चित रही। पाश्चात सभ्यता के प्रदूषण ने हमारी नई पीढ़ी को भ्रमित किया और वे भी भौतिक एवं शारीरिक सुख की ओर प्रेरित होने लगे। नारी के प्रति मातृभाव रखने की प्रवृत्ति का अभाव होने लगा। पारिवारिक रिश्तों का टूटन और नारी को एक वस्तु के रूप में प्रस्तुत करने की स्पर्धा प्रारंभ हो गई। फिल्मों, विज्ञापनों, क्लबों, पांच सितारा होटलों में नारी के अर्धनग्न शरीर को प्रस्तुत कर कामवासना को प्रेरित किया गया। इस ह्रदय विदारक घटना के बाद भी 31 दिसंबर 2012 की अर्धरात्रि को क्या पांच सितारा होटलों में अर्धनग्न युवतियों की थिरकन और शराब के नशे में धुर्त युवक घूमते झूमते दिखाई नहीं दिए? दिल्ली की एक आलिशान होटल में क्या फैशन परेड में नारी के अंगों को प्रदर्शित नहीं किया गया? शिक्षा को संस्कार से संबद्ध करने की क्या सार्थक पहल हुई है? इन सवालों के उत्तर की तलाश हमें भारतीय सभ्यता के नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों में करना होगी। भौतिक पाश्चात सभ्यता के प्रदूषण में यह तलाश पूरी नहीं हो सकती।
दुर्भाग्य यह है कि सन् 2012 की बिदाई हमने ऐसे बर्बर कलंक के साथ की, जिसको साफ करने की माथापच्ची करने की बजाए ऐसे कलंक से सामाजिक जीवन दागदार नहीं हो। इस दिशा में सार्थक प्रयास करना होगा। पहले इस मुहावरे की मान्यता थी कि चरित्र चला गया तो सबकुछ समाप्त हो जाता है, अब पैसा चला गया तो सबकुछ चले जाने की मान्यता हो गई है। चरित्र की श्रेष्ठता को स्थापित करने से ही इस प्रकार की समाज को शर्मसार करने वाली बुराई से लड़ा जा सकेगा। वरना जो चल रहा है उसका गुस्सा व्यक्त करते रहेंगे, उत्पीडऩ की आग में महिला का जीवन समाप्त होता रहेगा। 2012 के कपाल पर यह कलंक लग गया है। यह ऐसा सबक है, जिसे वेदना के अंदर केंद्रित कर इस बारे में सामाजिक और सरकार के स्तर पर किसी ठोस परिणाम तक पहुंचने की पहल करना होगी।

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