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भारत के लिए हितकर नहीं विदेशी पूंजी से पोषित मीडिया

- पाश्चात्य संस्कृति से भारतीय मीडिया को दृष्टिदोष

भारत के लिए हितकर नहीं विदेशी पूंजी से पोषित मीडिया
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लखनऊ। हिन्दुस्थान समाचार एजेंसी के कार्यकारी संपादक जितेन्द्र तिवारी ने कहा कि पाश्चात्य संस्कृति के कारण भारतीय संस्कृति को लेकर भारत की मीडिया को दृष्टिदोष हो गया है। उन्होंने कहा कि विदेशी पूंजी से पोषित मीडिया भारत के लिए हितकर नहीं हो सकती है। वे मंगलवार को लखनऊ के डॉ. राम मनोहर लोहिया विधि विश्वविद्यालय में भाषा संस्थान, थिंक इंडिया और राष्ट्रीय कला मंच के द्वारा आयोजित तीन दिवसीय 'शब्दरंग साहित्य महोत्सव' में 'मीडिया व संस्कृति' पर बोल रहे थे।


भारतीयता को समझ ले मीडिया तो दुनिया का हो सकता है भला

जितेन्द्र ने कहा कि 1982 के बाद मीडिया ने अपना राष्ट्रवादी रूप अपनाया। लोकतंत्र में ही मीडिया को सहज आकाश मिलता है। संस्कृति को व्यापकता देने में प्रिंट मीडिया ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उन्होंने कहा कि आज का मीडिया समाज के भीतर चलने वाले प्रवाह को नहीं समझ पा रहा है। 1925 से आरएसएस द्वारा चलाए जा रहे सांस्कृतिक प्रवाह को मीडिया समझ नहीं पा रहा है। मीडिया की दृष्टि भारतीयता को समझ ले तो दुनिया का भला हो सकता है।

भारत ने दुनिया को ​दिया भाषा और संवाद की परंपरा

वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष भटनागर ने कहा कि मानव सभ्यता जबसे आयी तबसे मीडिया एक दूसरे को जोड़ने का काम कर रही है। वर्तमान में जो ​मीडिया का स्वरुप है, इस खांचे से निकालकर मीडिया को संवाद की परंपरा से जोड़ना पड़ेगा। भारत ने दुनिया को भाषा और संवाद की परंपरा दिया है।

भारत में मुख्यधारा की पत्रकारिता राष्ट्रवादी ही रहेगी

भटनागर ने कहा कि भारत में पत्रकारिता का मुख्यधारा राष्ट्रवादी ही रहेगी, एक दो लोग अपवाद तो रहेंगे ही। भारतीय मीडिया में संस्कृति के खिलाफ जाने वाले टिकेंगे नहीं। भारत, भारतीय संस्कृति और भारतीय मीडिया तीनों की समझ होनी चाहिए। वामपंथ विचारधारा पर प्रहार करते हुए उन्होंने कहा कि ये संस्कृति को सहयात्री न बनाकर उसे उत्पाद की ओर ले जा रहे हैं। संस्कृति लिखते हैं, बोलते हैं, बेचते हैं, लेकिन जानते नहीं हैं। उन्होंने बताया कि विदेश में स्थित बर्कले विश्वविद्यालय में भारत को जानने वाला पाठ्यक्रम शुरू हुआ है।

भारत को जबरदस्ती विद्रूप दिखाया जा रहा

आशुतोष ने कहा कि जब से योग ने वैश्विक पहचान बनाई है, दुनिया भारत को जानना चाहती है। भारत के खिलाफ एक समूह खड़ा है, जो जबरदस्ती इसको विद्रूप दिखा रहा है। भारतीय मीडिया को भारतीय मूल की पत्रकारिता को अपनाना चाहिए। भारतीय मूल की मीडिया को एक्टिविज्म बनाये रखना है। इसे लोक शिक्षण के लिए भी काम करना चाहिए।

पत्रकारिता व संस्कृति के बीच 'शिक्षा' एक सेतु

वरिष्ठ पत्रकार अभिजीत मजूमदार ने कहा कि पत्रकारिता और संस्कृति के बीच एक सेतु होता है, जिसे शिक्षा कहते हैं। पत्रकारिता और संस्कृति में टकराव का कारण वास्तविक शिक्षा का अभाव है। दुर्भाग्य है कि अटल और मोदी के सत्ता में आने के बाद भी शिक्षा में अभी तक कोई बड़ा बदलाव नहीं आया। ग्रीन पीस और पीटा जैसे संगठन गलत डाटा का इस्तेमाल करते हैं। उन्होंने कहा कि वामपंथी विनायक दामोदर दास सावरकर को अस्वीकार करते हैं, लेकिन फिदेल कास्त्रो को स्वीकार करते हैं। यह विरोधाभाषी मानक कैसे स्थापित होगा।

वरिष्ठ पत्रकार राहुल रौशन ने कहा कि दिल्ली वाली मीडिया ने संस्कृति व संस्कार का मजाक बना दिया है। संस्कृति पर बोलने का मतलब है कि आप पोंगापंथी व दकियानुसी है। मीडिया में वामपंथी विचारधारा की आज भी दबदबा है और इसके कारण वर्तमान पत्रकारिता में संस्कृति बुरी लगने लगती है।

राहुल ने कहा ​कि मीडिया और संस्कृति के बीच 36 का आंकड़ा है। वामपंथ संस्कृति मार्क्सवाद में बदल गया है। डीएनए में घुस गया है कि पत्रकारिता का मतलब केवल विरोध ही है। देश में कहीं बुरा है तो उसे संस्कृति से ही जोड़ दें, यह कैसे हो सकता है।

पत्रकारिता समाज जीवन की धड़कन

माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय के प्रो. अरूण भगत ने कहा कि पत्रकारिता समाज जीवन की धड़कन है। समाज जीवन का नियामक है। यह संस्कृति के हस्तानांतरण का भी माध्यम है। सामाजिक मूल्यों, मर्यादाओं के साथ ही संवैधानिक मूल्यों को स्थापित करने का दायित्व पत्रकारिता का है। वामपंथ के कारण भारत की पत्रकारिता प्रताड़ित होती रही। भारत की वर्तमान भारत की पत्रकारिता में नकारात्मकता ज्यादा है। महिलाओं को पत्रकारिता ने भोग की वस्तु बना दिया है।

Updated : 27 Nov 2018 4:07 PM GMT
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Swadesh Digital

स्वदेश वेब डेस्क www.swadeshnews.in


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