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व्यंग्य प्रेम

प्रिय अभिषेक

व्यंग्य प्रेम
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वे व्यंग्य लेखक थे। उनके लेखन का सबसे बड़ा व्यंग्य यही था की वे व्यंग्य लेखक थे। हालाँकि आदमी बहुत हँसोड़ थे। पर विडम्बना भी यही थी। आदमी हँसोड़ -मजाकिया और उस पर लिखने का शौक। जैसे तूफान के साथ बिजली भी गिर जाये, पाठकों पर।

बड़े खुशमिजाज आदमी थे। हर चीज का आनंद लेने वाले। वे एक से एक बेहतरीन व्यंग्य लिखते थे। और उन्हें पढ़ कर खुद हँसते भी थे। खिलखिलाती-खनकती हँसी। और केवल व्यंग्य ही क्या, वे हर वक्त हँसते-मुस्कुराते रहते थे। जबतक वे दूसरे का लिखा व्यंग्य नहीं देख लेते थे।दूसरे का लिखा व्यंग्य देखते ही वे एक दम तैश में आ जाते। चेहरा लाल हो जाता और आँखों से चिंगारियाँ फूटने लगतीं। यूँ तो वे बहुत बड़े रसिक शिरोमणि थे। काव्य, संगीत, नृत्य सभी का आनन्द भाव विभोर होकर लेते थे। पर दूसरे के व्यंग्य का नहीं। गुणग्राहक जो थे वो! वे जानते थे जंगल में एक ही शेर है- वो खुद। ये शृगाल-जैकाल बेमतलब में उछल रहे हैं। मजाल है, दूसरे के व्यंग्य पर, कोई उन्हें हँसा पाया हो।

आज अखबार में किसी का लिखा नया व्यंग्य देखते ही उनकी आँखें छोटी हो गईं, भौं के बीच गांठ पड़ गई और दोनों ओंठ चिपक कर थोड़ा बाहर निकल आये। उन्होंने उस व्यंग्य को कुछ यूँ देखा जैसे कोई घड़ीसाज किसी खराब घड़ी को पीछे से खोल कर देखे, या कोई चिकित्सक पोस्टमॉर्टम के लिये किसी शव को खोल कर देखे। फिर उन्होंने कल्लू से कहा की व्यंग्य का स्तर कितना गिर गया है। वे जानते थे की शरद जोशी और हरिशंकर परसाई की परम्परा आगे बढ़ाने का दारोमदार बस उन्हीं के कंधों पर है, और किसी के ऊपर नहीं। कभी-कभी बहुत निराश हो जाते थे की मेरे बाद व्यंग्य का क्या होगा। क्या ऐसा लेखक दुबारा इस धरा पर आयेगा? जब बहुत बेचैन होते तो कल्लू से कहते एक कट चाय और पिला कल्लू!'कल्लू दुकान साफ करता। अँगीठी बुझाता। बर्तन धो-पौंछ कर रखता। खोखे का पल्ला एक हाथ से पकड़ कर कहता-'साहब दुकान बढ़ानी है।'

वे अपना व्यंग्य समाप्त करते ,'और शेर फिर से झूठे वादे कर चुनाव जीत गया', फिर कल्लू से पूछते,'कैसा लगा मेरा नया व्यंग्य?'

कल्लू कहता- 'बहुत बढिय़ा। पिछले मिला कर बियासी रुपये हो गये।

कल्लू को वे अपने बड़े प्रशंसकों में से एक मानते थे। वे कहते-' कल्लू में 'डेप्थ' है, उनके व्यंग्यों की तरह।' इतनी देर,इतनी लगन से कोई और उनका व्यंग्य नहीं सुन पाता था, सिवाय कल्लू और जैकी के। कल्लू उनके रिश्तेदारों की तरह नहीं था। उनके रिश्तेदार पढ़े-लिखे होकर भी निहायत ही गंवार थे। बच्चों को साहित्य के सँस्कार देना ही नहीं चाहते थे। पिछली दो छुट्टियों से उनके यहाँ कोई नहीं आया था। भला ये भी कोई बात हुई। यदि बच्चे एक स्थान पर बैठ कर एकाग्रचित्त हो उनका व्यंग्य नहीं सुन रहे थे और उन्होंने बच्चों के कान के नीचे करतल ध्वनि कर दी तो क्या बुरा किया। बच्चों में अच्छे साहित्य के सँस्कार कैसे पड़ेंगे?

सबसे अधिक निराश वे अपने मित्रों से हुए। पहले तो एक मित्र को उन्होंने कहा की क्या उसे पता है वह आजकल कितना बड़ा, कालजयी कार्य कर रहा है? मित्र ने कहा की हाँ तू कुछ व्यंग-फ्यंग लिख रहा है। बस यहीं से बात बढ़ गई।

बड़े साहित्यकार को 'तू' कहना तो बर्दाश्त किया जा सकता था पर व्यंग्य के साथ फ्यंग का प्रयोग? व्यंग्य का ऐसा अपमान उन्हें बर्दाश्त नहीं हुआ। दोनों बीच मैन रोड़ पर गुत्तमगुत्था हो गये। तीस साल पुरानी मित्रता कुर्बान कर दी पर व्यंग्य से समझौता नहीं किया। बाकी मित्र उसके व्यंग्य सुनने की बात होते ही काम का बहाना बनाने लगते। वे समझ गये की मित्र 'ग्रो अप' नहीं होना चाहते। फिर रोज की तरह वे टहलते-२ घर आ गये। घर पर जैकी उनकी प्रतीक्षा कर रहा था।

अच्छा व्यंग्य क्या होता है? अच्छा व्यंग्यकार कौन है? उन्होंने यक्ष की तरह जैकी से पूछा।

जैकी ने उनकी ओर प्रश्नवाचक चिन्ह की नजर से देखा। जैकी के माथे पर एक प्रश्नवाचक चिह्न ईश्वर ने भी स्थायी तौर पर बनाया था।

फिर उन्होंने गीता का श्लोक थोड़ा तोड़-मरोड़ कर कहा की अच्छा व्यंग्यकार वो होता है जो ब्राह्मण, चांडाल, गाय,हाथी, कुत्ता सभी में समानरूप से व्यंग्य देखता है। यह सुनकर जैकी की आँखों में चमक आ गई। मानो गुरु के ज्ञान के प्रति वो कृतज्ञता के भाव से भर गया हो।

'तुम जानते हो जैकी मेरा अगला व्यंग्य किस पर होगा?' जैकी ने कौतूहल भरी नजरों से फिर देखा। 'तुम पर जैकी, तुम पर! और जानते हो, मेरे पाँच व्यंग्य छप गये हैं, पाँच! व्यंग्य शिरोमणि पुरस्कार की बात चल रही है जैकी! ' यह कह कर उन्होंने जैकी को चूम लिया। जैकी घबरा कर पीछे हट गया। फिर उन्होंने जेब से कुछ निकाला। शायद चॉकलेट थी। 'जैकी मैं तुम्हारे लिये चॉकलेट लाया हूँ। पर इसके लिये तुम्हें मेरा नया व्यंग्य सुनना होगा।' चॉकलेट देखते ही जैकी प्रसन्न हो गया। पूँछ हिलाता हुआ उनकी गोदी में कूद गया। उन्होंने जैकी को व्यंग्य सुनाना शुरू कर दिया।

कल्लू कुछ पत्ती, कुछ दूध और कुछ पुरानी चाय मिलाकर फिर से पतीली को अँगीठी पर रख देता। और वे जेब से तुड़ा-

मुड़ा सा कागज निकाल कर कल्लू को व्यंग्य सुनाना शुरू कर देते 'जंगल में चुनाव आ गये थे। शेर का हृदय परिवर्तन हो गया था।'

कल्लू चाय खौलाता जाता। बर्तन धोता। ग्राहकों को चाय देता। बची पत्ती को निचोड़ कर उनकी कट चाय निकालता।

उनका व्यंग्य निरन्तर रहता 'शेर ने कहा उसने माँसाहार त्याग दिया है। वन में अब कोई किसी का शिकार नहीं करे इसके लिये अध्यादेश लाया जायेगा। जानवर ताली बजाते।'

-प्रिय अभिषेक

Updated : 12 Jan 2019 1:08 PM GMT
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Swadesh Digital

स्वदेश वेब डेस्क www.swadeshnews.in


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