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प्रमाण के बाद भी अडंगा क्यों ?

प्रमोद पचौरी

प्रमाण के बाद भी अडंगा क्यों ?
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पुलिस ने जिन पांच चेहरों को उजागर किया है वे तो महज संकेत मात्र हैं। इन चेहरों ने उन आशंकाओं को उजागर कर दिया है जिनके बारे में विशेषज्ञ अपनी राय जाहिर करते रहे हैं कि इनकी जड़ें बहुत गहरी और लंबी हो सकती हैं। जनमानस के लिए यह शहरी नक्सलवाद गंभीर समस्या का सूचक है। इसका समाधन क्या हो सकता है? इसको कुचलने की सरकार के पास क्या कार्य योजना है, यह बड़ा सवाल है, जो कि बेहद चर्चा का विषय बनता जा रहा है। इन शहरी नक्सली मददगारों ने जिस तरह नक्सलवादी होने की ताल ठोकी है, उससे भी कई तरह के सवाल उठ रहे हैं। क्या यह अघोषित रणनीति का हिस्सा है या लोकतंत्र में चुनी हुई सरकार के समक्ष प्रत्यक्ष रूप से चुनौती?

पिछले दिनों महाराष्ट्र पुलिस द्वारा नक्सल समर्थित बुद्धिजीवियों की गिरफ्तारी को लेकर देश में अजीब तरह की बहस छिड़ गई है। कथित नक्सली मददगारों के विरोध में अगर पुलिस के पास प्रमाण हैं और उन प्रमाणोंं के आधार पर पुलिस अपना काम कर रही है तो उसमें अडंगा लगाने का प्रयास क्यों? हद तो तब हो गई जब देश के कुछ नामीगिरामी अधिवक्ता भी इसके विरोध में सामने आ गए। प्रश्न उठता है कि इनका कोई सिद्धांत है या विचारधारा। संख्या की बात करें तो इन्हें उंगलियों पर गिना जा सकता है, पर यही मुठ्ठी भर लोग उग्र आंदोलन, हिंसा, मारकाट के माध्यम से समाज में आतंक का वातावरण निर्मित करना चाहते हैं। चिंता की बात है कि नक्सलवाद अभी तक ग्रामीण क्षेत्रों में सक्रिय था, अब इनकी जड़ें शहरी इलाकों में द्रुत गति से पैर पसार रहीं हैं।

पुलिस ने जिन पांच चेहरों को उजागर किया है वे तो महज संकेत मात्र हैं। इन चेहरों ने उन आशंकाओं को उजागर कर दिया है जिनके बारे में विशेषज्ञ अपनी राय जाहिर करते रहे हैं कि इनकी जड़ें बहुत गहरी और लंबी हो सकती हैं। जनमानस के लिए यह शहरी नक्सलवाद गंभीर समस्या का सूचक है। इसका समाधन क्या हो सकता है? इसको कुचलने की सरकार के पास क्या कार्य योजना है, यह बड़ा सवाल है, जो कि बेहद चर्चा का विषय बनता जा रहा है। इन शहरी नक्सली मददगारों ने जिस तरह नक्सलवादी होने की ताल ठोकी है, उससे भी कई तरह के सवाल उठ रहे हैं। क्या यह अघोषित रणनीति का हिस्सा है या लोकतंत्र में चुनी हुई सरकार के समक्ष प्रत्यक्ष रूप से चुनौती?

दरअसल, जंगलों में गुरिल्ला युद्ध छेडऩे वाले नक्सलवादियों से निपटना जितना कठिन नहीं है उससे कहीं ज्यादा नक्सलवादियों के शहरी नेटवर्क से जुड़े शहरी नक्सलियों से निपटना कठिन हो रहा है। छत्तीसगढ़ सहित देश भर में मानवाधिकार, समाज सेवा, शैक्षणिक संस्थाओं, वकालत और मीडिया के छद्म आवरण में फैले शहरी नक्सलियों की बदौलत बस्तर के झीरम में प्रदेश कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व सहित 31 कांग्रेसियों को मौत के घाट उतार दिया गया था। इधर बीजापुर जिले मे भी कई भाजपा नेताओं को मौत के घाट उतारा जा चुका है। यही कारण है कि प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, मुख्यमंत्री स्तर के नेताओं पर हमले कर देश में जबरदस्त अस्थिरता फैलाने के प्रयास किए जा रहे हैं।

समाज सेवा और बुद्धिजीवियों के मुखौटे लगाये शहरी नक्सलियों की विगत पांच सालों में सिर्फ राजधानी रायपुर से ही दर्जनों गिरफ्तारियां हो चुकी हैं। देश में सबसे ज्यादा नक्सलवाद से प्रभावित पांच जिले सुकमा, बीजापुर, नारायणपुर, दन्तेवाड़ा, राजनादगांव छत्तीसगढ़ में ही हैं। केन्द्र में राजग की सरकार बनने के बाद माओवाद को हर हाल में खत्म करने की ठोस नीति बनाई गयी। जिसके चलते माओवादियों को पहला विकल्प आत्मसमर्पण का दिया गया। लगभग दो हजार नक्सली और उनके समर्थक आत्मसमर्पण कर चुके हैं।

जंगलों में रह कर जान लेने और जान देने वाले नक्सली लड़ाके आदिवासियों की अशिक्षा और भोलेपन को खूनी जामा पहनाते हैं। आधुनिक संचार तकनीकी के माध्यम से अब माओवादी विचारधारा को व्यापक पैमाने पर फैलाने का काम बखूबी किया जा रहा है। माओवाद को शैक्षणिक संस्थाओं के माध्यम मे युवा पीढ़ी को लोकतान्त्रिक व्यवस्था के खिलाफ बरगला कर देश में अस्थिरता फैलाने की दूरगामी नीति पर तीव्रगति से काम चल रहा है। बस्तर के जंगलों में समय-समय पर बल द्वारा नक्सली शिविरोंं पर की गई छापेमारी में कुछ ऐसे साहित्य भी मिले हैं, जिससे पता चलता है कि हथियार बनाने, मोबाइल विस्फोटक प्लान्ट कर रिमोट से विस्फोट करने का तकनीक प्रशिक्षण दिया जा रहा है। रिमोट के माध्यम से विस्फोट करने की तकनीक का इस्तेमाल शहरी क्षेत्रों में किए जाने की सम्भावनाओं ने खुफिया तंत्र को भी सावधान कर दिया है।

Updated : 16 Sep 2018 4:04 PM GMT
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स्वदेश वेब डेस्क www.swadeshnews.in


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