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भाजपा का अभेद किला बन चुकी है भिंड-दतिया संसदीय सीट

भाजपा का अभेद किला बन चुकी है भिंड-दतिया संसदीय सीट
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अनिल शर्मा। भिण्ड-दतिया संसदीय क्षेत्र पर लगातार 1984 के बाद से भाजपा काबिज है, स्वतंत्रता के बाद अब तक हुए लोकसभा चुनाव में सर्वाधिक गैर कांग्रेसी सांसद चुने गए हैं, लगातार आठवीं बार भाजपा का ही कब्जा है, वर्तमान में इस संसदीय क्षेत्र में भाजपा के डॉ. भागीरथ प्रसाद सांसद हैं, यह सीट राजनैतिक दृष्टि से भी काफी महत्वपूर्ण है, यहां से भाजपा की प्रमुख धुरी मानी जाने वाली राजमाता विजया राजे सिंधिया सांसद रह चुकी हैं। वहीं उनकी पुत्री वसुंधरा राजे भी अपना राजनैतिक भविष्य इसी सीट पर आजमा चुकी हैं, हालांकि उन्हें सफलता नहीं मिली और वे मप्र की राजनीति से दूर होकर राजस्थान चली गईं, जहां वे अब प्रदेश की राजनीति में अहम स्थान रखती हैं, वे राजस्थान की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं, जहां भाजपा ने इस सीट पर तमाम राजनैतिक प्रयोग किए हैं, तो कांग्रेस भी इस मामले में अछूती नहीं है वह भी कई बार वीरेन्द्र सिंह, उदयन शर्मा, डॉ. विश्वनाथ शर्मा, बालेन्दु शुक्ला, इमरती देवी जैसे बाहरी उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारकर प्रयोग किए, हालांकि उसे अब तक सफलता नहीं मिली है।

उत्तरी मप्र की यह लोकसभा सीट क्षेत्रफल की दृष्टि से भी काफी महत्वपूर्ण है, 1957 में इस लोकसभा क्षेत्र में भिण्ड, मुरैना व ग्वालियर की विधानसभाएं शामिल हुआ करती थीं, तब यहां से एक साथ दो सांसद चुने जाते थे, जिसमें एक सामान्य वर्ग व दूसरा अनुसूचित जाति वर्ग से रहता था, यदि इतिहास के पन्नों को खंगालें तो 1957 में नारायण कृष्ण राव भी लोकसभा चुनाव जनसंघ के टिकिट पर लड़ चुके हैं। 1957 से लेकर अब तक हुए लोकसभा आम चुनाव में 11 बार गैर कांग्रेसी सांसद चुने गए, जिसमें आठ बार भाजपा, दो बार जनसंघ व एक बार लोकदल का सांसद चुना गया है। जबकि कांग्रेस को चार बार ही अपना सांसद चुनने का मौका मिला है। कांग्रेस पार्टी प्रत्याशी को आयात कर ही चुनाव मैदान में उतारती रही है। नतीजन सफलता उससे दूर बनी रही। इस बार प्रदेश में विधानसभा चुनाव में मिली सफलता के बाद कांग्रेस उत्साहित है, लेकिन उम्मीदवार चयन को लेकर काफी रस्साकसी है। सिंधिया व दिग्विजय गुट की सहमति से यदि कांग्रेस का उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतरता है तो इस बार भाजपा व कांग्रेस के बीच रोचक मुकाबले की पूरी संभावना है।

भिण्ड-दतिया संसदीय क्षेत्र 1962 में पृथक से बना, इससे पूर्व 1957 में यह ग्वालियर संसदीय क्षेत्र में शामिल था, जिसके अंतर्गत ग्वालियर, लहार, मेहगांव, भिण्ड, अटेर, गोहद, गिर्द, पिछोर, लश्कर, मुरार, अम्बाह, मुरैना और जौरा विधानसभा क्षेत्र आता था। स्वतंत्रता के बाद 1957 में हुए चुनाव में सूरज प्रसाद उर्फ सूर्य प्रसाद (अजा) व सामान्य वर्ग से राधाचरण चुनाव जीते थे, दोनों ही कांग्रेस के उम्मीदवार थे, जबकि जनसंघ के नारायण कृष्ण राव व देवराम (अजा) पराजित हुए, 1962 में यह लोकसभा सीट ग्वालियर से तो पृथक हो गई, लेकिन मुरैना जुड़ा रहा और इस लोकसभा सीट को अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित कर दिया गया, यहां से 1962 में पुन: सूरज प्रसाद चुनाव जीते, उन्होंने प्रसोपा के आत्मदास को 2792 मतों से पराजित कर जीत हासिल की, जबकि जनसंघ के तेजसिंह तीसरे स्थान पर रहे, 1967 के चुनाव में प्रसोपा का अस्तित्व कम हुआ और यहां से जनसंघ के उम्मीदवार यशवंत सिंह कुशवाह ने कांग्रेस के वीरेन्द्र सिंह को भारी मतों से पराजित किया, उनकी जीत का अंतर लगभग दुगुना था, 1971 के चुनाव में जनसंघ से राजमाता विजयाराजे सिंधिया चुनाव मैदान में उतरीं, उन्होंने कांग्रेस के नरसिंह राव दीक्षित को पराजित किया। 1977 में कांग्रेस के खिलाफ विपक्ष एकजुट हुआ और इस सीट से विपक्ष के संयुक्त उम्मीदवार के रूप में लोकदल के रघुवीर सिंह मछण्ड मैदान में आए और उन्होंने कांग्रेस के राघवराम चौधरी को कड़ी शिकस्त दी, 1980 में कांग्रेस ने कालीचरन शर्मा को उम्मीदवार बनाकर वापिसी की, जनता दल में विभाजन होने से यहां से जनता दल के रघुवीर सिंह मछण्ड जनता दल (एस) के रामशंकर सिंह चुनाव मैदान में उतरे, इस चुनाव में रमाशंकर सिंह दूसरे स्थान पर रहे, 1984 में कांग्रेस को इन्दिरा लहर का फायदा मिला था, यहां से दतिया के राजा कृष्ण सिंह जूदेव चुनाव जीते, लेकिन भाजपा की वसुंधरा राजे के बीच रोचक मुकाबला हुआ। जिसमें रमाशंकर सिंह लोकदल के उम्मीदवार के रूप में तीसरे स्थान पर रहे। 1989 में भाजपा ने नया प्रयोग किया और कांग्रेस के बागी नरसिंह राव दीक्षित को टिकिट दिया। बसपा का अस्तित्व बढऩे से कांग्रेस तीसरे स्थान पर पहुंच गई, यदि भिण्ड-दतिया के चुनाव परिणाम पर प्रकाश डालें तो भाजपा भिण्ड व दतिया दोनों ही जिलों में हारकर जीत गई थी, इसकी वजह भिण्ड में बसपा पहले व दतिया में कांग्रेस पहले स्थान पर थी, लेकिन भाजपा का औसत बोट ज्यादा होने से वह चुनाव जीत गई। 1991 में भाजपा ने नया चेहरा ढूंढा और स्वामी योगानंद सरस्वती को उम्मीदवार बनाया, उन्होंने कांग्रेस के दिग्गज उदयन शर्मा को कड़ी टक्कर दी और बहुजन तीसरे स्थान पर पहुंच गई, 1996 में भाजपा ने डॉ. रामलखन सिंह भिण्ड विधायक को चुनाव मैदान में उतारा। उन्होंने बसपा के केदार नाथ काछी को निकटतम प्रतिद्वंदी की रूप में पराजित किया। लेकिन कांग्रेस के वैद्य विश्वनाथ शर्मा तीसरे स्थान पर 50 हजार मतों में ही सिमिट गए, 1998 में फिर भाजपा का बसपा से मुकाबला हुआ और कांग्रेस के बालेन्दु शुक्ल तीसरे स्थान पर चले गए, 1999 में डॉ. रामलखन सिंह व कांग्रेस के सत्यदेव कटारे से मुकाबला हुआ, जिसमें कटारे 53 हजार से अधिक मतों से चुनाव हार गए। 2004 में फिर भाजपा के डॉ. रामलखन सिंह व कांग्रेस के सत्यदेव कटारे से चुनाव हुआ, जिसमें डॉ. रामलखन सिंह की जीत का अंतर छह हजार के लगभग रह गया। 2009 में यह लोकसभा सीट फिर अनुसूचित वर्ग के लिए आरक्षित हो गई और मुरैना के अशोक अर्गल भाजपा से चुनाव मैदान में उतरे, उन्होंने कांग्रेस के डॉ. भागीरथ प्रसाद को चुनाव में पराजित किया। 2014 में भाजपा ने कांग्रेस के डॉ. भागीरथ प्रसाद को टिकिट दिया और वे चुनाव जीतकर वर्तमान सांसद हैं।


Updated : 17 March 2019 2:36 PM GMT
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