Home > स्वदेश विशेष > लोकतंत्र "मतदान व्यवहार" को परिपक्वता देता झारखंड का जनादेश

लोकतंत्र "मतदान व्यवहार" को परिपक्वता देता झारखंड का जनादेश

कैडर के मन की बात को भी समझने की जरूरत

लोकतंत्र मतदान व्यवहार को परिपक्वता देता झारखंड का जनादेश
X

- डॉ. अजय खेमरिया

अबकी बार 65 पार झारखंड में,हरियाणा और छत्तीसगढ़ में 75 पार, मप्र में 200 पार,राजस्थान में 150 पार, महाराष्ट्र में 200 पार ।यह नारे बीजेपी ने राज्यों के विधानसभा चुनाव जीतने के लिये गढ़े थे लेकिन इनमें से किसी भी राज्य में पार्टी इन महत्वाकांक्षी आंकड़े के आसपास भी नही पहुँच पाई।दो वर्ष पहले देश की 71 फीसदी जनता पर जिस पार्टी का राज था वह अब घट कर 31 फीसदी पर आ गया है।राजनीतिक विश्लेषकों की नजर में यह मोदी अमित शाह के जनप्रभुत्व के उतार की शुरुआत है।वैसे इसी बात को लोकसभाक्षेत्र के हिसाब से देखा जाए तो इन राज्यों में विपक्षी दल कहीं टिकते हुए नजर नही आते है। और इसे आप दोनों नेताओं के निर्णायक उतार से सीधे सयुंक्त नही कर सकते। झारखंड की करारी शिकस्त के साथ ही यह सवाल भी उठने लगा है कि क्या बीजेपी नेतृत्व और इसके कैडर के बीच कोई वैचारिक विचलन खड़ा होने लगा है?सवाल यह है कि जिस विचार और वैकल्पिक राजनीति के लिये बीजेपी को खड़ा किया गया है उसके साथ मोदी 2.0 सरकार द्वारा व्यापक प्रतिवद्धता दिखाने के बाबजूद राज्यों में बीजेपी की लगातार हार के जमीनी निहितार्थ क्या है?गहराई से विश्लेषण किया जाए तो समझा जा सकता है कि देश का मतदाता अब राष्ट्रीय और स्थानीय राजनीति को एक ही चश्में से नही देख रहा है।इसे भारत में संसदीय लोकतंत्र के बदलते या यूं कहा जाए परिपक्व होते' मतदान व्यवहार' के रूप में मान्यता दिए जाने की आवश्यकता है।झारखंड की हार हो या मप्र ,छत्तीसगढ़, राजस्थान की। सभी राज्यों में एक बात समान है वह यह कि लोग राजकाज से जुड़ी दैनंदिन समस्याओं और अनुभव को अपने अलग अलग मतदान व्यवहार के प्रमुख कारक के रूप में स्थापित कर रहे है।

राजस्थान में खुद प्रधानमंत्री की सभाओं में चुनाव से पहले वहाँ की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के विरुद्ध नारेबाजी होती थी।मप्र में शिवराज सिंह के माई के लाल वाले बयान ने सवर्णों को साल भर पहले पूरे प्रदेश में लामबंद कर दिया था।रघुवर दास की कहानियां भी किसी से छिपी नही थी।मनोहर लाल खट्टर का नाकाम चेहरा पूरे देश ने जाट आंदोलन के दौरान देखा ही था। इन सभी राज्यों में जनमत का मूड दीवार पर बड़े बड़े हरूफ में लिखी इबारत की तरह पढ़ा जा सकता था लेकिन जिन्हें पढ़ना और प्रमेय की तरह इसे सुलझाना था वह निर्णयन कहीं नजर नही आया। जिस सख्त औऱ व्यक्तिगत ईमानदारी का अक्स लोग मोदी में देखते है उसे पार्टी के मुख्यमंत्री अपनी कार्यशैली में नही उतार पाए है। इस तथ्य को सभी को स्वीकार करना होगा।बीजेपी का वैशिष्ट्य उसका औरों से अलग दिखना ही था लेकिन यह भी हकीकत है कि राज्यों में जिस व्यवस्था परिवर्तन के लिए लोग पार्टी से अपेक्षा रखते है उसे देने में उसके अधिकतर मुख्यमंत्री नाकाम रहे है। शिक्षा ,स्वास्थ्य और रोजगार के मोर्चे पर अद्वितीय मिसाल के मामले में हमें कुछ भी खास नही दिखता है।इसलिये सत्ता के जरिये नई सामाजिकी ,आर्थिकी,गढ़ने के मामले में लोगों में निराशा का भाव है।मप्र में 7 सीट से बीजेपी सत्ता से पीछे रह गई जबकि उसके 13 कैबिनेट मंत्री चुनाव हारे।हरियाणा, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़,में भी मंत्रियों के यही सूरतेहाल थे,झारखंड में तो खुद मुख्यमंत्री रघुवर दास हार गए।समझा जा सकता है कि जिन चेहरों को पार्टी प्रशासन के लिये चिन्हित कर जिम्मेदारी देती है उसमें बुनियादी रूप से ही खामियां है।इन सभी राज्यों में निचले प्रशासनिक तंत्र में कोई ऐसा बदलाव आज नजर नही आता है जो आमलोगों को व्यवस्था परिवर्तन या जनोन्मुखी होने का एहसास कराता हो।सवाल उठाया जा सकता है कि मप्र,छत्तीसगढ़, जैसे राज्यो में तो तीन तीन बार सरकारें बीजेपी ने बनाईं है लेकिन जमीनी राजनीतिक विश्लेषकों को पता है कि यहां कांग्रेस की आपसी लड़ाई एक निर्णायक फैक्टर रहा है।साथ ही राज्य प्रायोजित लोकलुभावनी योजनाओं की भूमिका भी निर्णायक है।ऐसी लोकलुभावनी जमीन अक्सर टिकाऊ नही रहती है।

तो क्या यह माना जाए कि बीजेपी की राज्य की सरकारें मजबूत और पारदर्शिता पूर्ण शासन में नाकाम रही है।इसे आप पूरी तरह से भले न माने पर राजनीतिक जनादेश के आगे तो इसे सच के रूप में अधिमान्यता देनी ही होगी।

इस तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है कार्यकर्ता या कैडर का

।कैडर बीजेपी की निधि है। लेकिन लगता है वह सत्ता साकेत में इसे लावारिश घोषित कर दिया गया है।इसे समझने के लिए आपको मप्र की गुना लोकसभा के नतीजे को विश्लेषित करना होगा।2019 में यहां से कांग्रेस महासचिव ज्योतिरादित्य सिंधिया को करारी शिकस्त झेलनी पड़ी।यह हार असाधारण थी क्योंकि लोग मान कर चल रहे थे कि अमेठी में राहुल गांधी एक बार हार सकते है लेकिन सिंधिया नही।आज इस लोकसभा के किसी भी कार्यकर्ता से पूछ लीजिये उसे सिंधिया की अजूबामूलक हार पर कोई गौरव भाव नही है ।कारण इस ऐतिहासिक जीत में उसकी कोई भूमिका है ही नही है।इस भूमिका से कार्यकर्ताओं की अधिकतर जगह से बेदखली कब और कैसे हो गई यह बीजेपी के सत्ता केंद्रों को समझ ही नही आया।नए आधुनिक तौर तरीकों की आंधी में बीजेपी का कैडर बुरी तरह से जमीदोज हुआ है यह एक तथ्य है।मप्र ,राजस्थान, छत्तीसगढ़ में अपनी ही सरकारों से बीजेपी के कार्यकर्ताओं में इतनी नाराजगी थी कि राजधानी में वे किसी काम से अपने मंत्रियों के पास जाना छोड़ चुके थे।जाहिर है राज्यों में कैडर और सत्ता के बीच के खुले विरोधाभास को नया नेतृत्व समझ ही नही पाया है।इन राज्यों में सत्ता औऱ संगठन के समेकन और समन्वय का कोई मैकेनिज्म अब इस पार्टी में दिखाई नही देता है।यूपी में 100 से ज्यादा विधायक इस समय अपनी ही सरकार से नाराज है।तथ्य यह है कि सत्ता और संगठन की बीजेपी अलग अलग नजर आतीं है।जिस सिंडिकेट सिस्टम ने कांग्रेस की सरकारों को जनता और संगठन से विलग किया वही हालात आज राज्यों में बीजेपी की सरकारों के साथ है।मोदी कैबिनेट के किसी सदस्य पर अभी तक कोई आरोप नही है उनकी कार्यशैली में पीएम का नियंत्रण और सख्त अनुशासन देश को नजर आता है लेकिन यह सिस्टम राज्यों में किसी बीजेपी सरकार में क्यों स्थापित नही हो पाया?यह समझना इसलिये कठिन नही है क्योंकि राज्य सरकार जब हर कीमत पर बनाना और चलाना ही ध्येय हो तो मूल्य की कीमत तो लगती ही है । लेकिन हमें यह नही भूलना चाहिये कि परिपक्व होता मतदाता भारत में शासन तंत्र की बारीकियों को बखूबी पकड़ने लगा है उसे पता है कि कश्मीर और पाकिस्तान से निबटने के लिये मोदी ही सक्षम है इसलिये मप्र,राजस्थान, छतीसगढ़, महाराष्ट्र, झारखंड के वोटर मोदी की झोली को लगातार भरते आ रहे है लेकिन वह रोज रोज के प्रशासन ,भृष्टाचार, मंत्रियो के नकारापन को हर बार मोदी की गारंटी पर किसी रघुबर दास के लिये झेलने को तैयार नही है।इस ट्रेंड को हम भारत के संसदीय लोकतंत्र की शुभता निरूपित कर सकते है।संवैधानिक प्रावधान भी भारत के मतदाताओं को संघ और राज्यों की सरकार अलग अलग चुनने की व्यवस्था देते है इसलिये राज्यों में बीजेपी की हार भारत में मजबूत होते लोकतंत्र की तस्वीर भी गढ़ता है।बीजेपी को यह समझना ही होगा कि उसके वैशिष्ट्य में उसका विचार है न कि व्यक्ति।कैडर विचार से ऊर्जा लेता है शुचिता से गति पाता है लेकिन सत्ता को हर कीमत पर पकड़कर पटरानी बनाने की मानसिकता न कैडर को उर्जिकरत करता है न व्यवस्था परिवर्तन का अहसास समाज को करा पाता है।यही बुनियादी गलती कांग्रेस के नेतृत्व ने की थी समय रहते अगर बीजेपी नेतृत्व ने इसका शमन नही किया तो अबकी बार 200 पार या 65 पार के नारे ऐसे ही सत्ता से इलाकाई क्षत्रपों को किनारे लगाते रहेंगे। हाईटेक प्रक्रिया के जरिये विश्व की सबसे बड़ी पार्टी के सदस्यों के मन की बात से भी बाख़बर रहे बीजेपी नेतृत्व।झारखंड का सन्देश यही है फिलहाल।

Updated : 23 Dec 2019 9:10 PM GMT
Tags:    
author-thhumb

Swadesh News

Swadesh Digital contributor help bring you the latest article around you


Next Story
Top