Home > स्वदेश विशेष > दंगों के इंजीनियर

दंगों के इंजीनियर

हितेश शंकर

दंगों के इंजीनियर
X

नागरिकता (संशोधन) कानून (सीएए) पारित होने के बाद देश में जो माहौल रचा गया उससे यह साफ था कि देश में सामान्य जनजीवन में उथल-पुथल पैदा करने और संवैधानिक संस्थाओं पर हल्ला बोलने निकली टुकडिय़ां इस बार हद पार करने का मन बना चुकी हैं। किसी सैन्य मुहिम की तरह भारत विरोधी ताकतें अपना-अपना मोर्चा संभाले थीं और आपस में सटीक समन्वय रखते हुए आक्रमण को हर पल तेज से तेज करती जा रही थीं।

पहला मोर्चा जनता द्वारा देश की सबसे बड़ी पंचायत (संसद) में बुहारकर हाशिए पर रख छोड़ी राजनैतिक ताकतों का था। संसद में अलग-अलग मुद्दों पर पक्ष-विपक्ष की लामबंदियां नई नहीं हैं। किन्तु यह ऐसी कचहरी है जहां पाकिस्तान अधिक्रांत कश्मीर को वापस लेने जैसे राष्ट्रीय स्वाभिमान के प्रस्ताव एक स्वर से पारित किए गए हैं। दुर्भाग्य से ऐसा पहली बार हुआ कि देश की संसद में तीन तलाक, अनुच्छेद-370 जैसे समाज को एकजुट, महिलाओं को सशक्त और देश की अखंडता मजबूत करने वाले मुद्दों के विरोध में वामपंथ के अलावा अन्य दल भी एकजुट होते दिखे।

— दूसरा मोर्चा देशभर में करीब 100 अलग-अलग जगह उन कथित आंदोलनकारियों/बुद्धिजीवियों की अगुआई में जमाया गया जिनके भारत विरोधी राजनैतिक रुझान एकदम साफ हैं। संप्रग राज में सोनिया गांधी की सलाहकार परिषद् के सितारे, हर्ष मंदर लोगों को कश्मीर और अयोध्या के मुद्दे पर उकसाते हुए देश की न्याय व्यवस्था के विरुद्ध अविश्वास और आक्रोश से भर रहे थे। 'चिकन नेकÓ काटकर पूर्वोत्तर को भारत से अलग-थलग करने का मंसूबा बांधने वाला शरजील इमाम हर्ष मंदर से एक कदम आगे बढ़कर शत्रु देश को रास आने वाली सैन्य रणनीति इस देश की जनता के हाथों ही पूरी करना चाहता था।

खास बात यह कि व्यवस्था को तहस-नहस करने के लिए मुसलमानों को सड़क पर उतरने के लिए हर्ष मंदर और शरजील इमाम दोनों की उकसाने वाली रणनीति में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की रामलीला मैदान में दी गई तकरीर ही गूंज रही थी- ''यह आर-पार की लड़ाई है!ÓÓ

— अब बात करते हैं तीसरे मोर्चे की। यह मोर्चा उस मीडिया का था जिसने सीएए लागू होने के बाद से ही सामाजिक भ्रम के निवारण की जिम्मेदारी सिर्फ सरकारी तंत्र पर छोड़ दी थी। मीडिया का यह वर्ग सीएए के साथ राष्ट्रीय नागरिकता पंजीकरण का पुछल्ला लगाकर मुस्लिम समाज के मन में झूठा डर भरने में लगा था। हर दिन पहले से तीखे, तेज और कड़वे-कसैले होते इस मीडिया के लिए यह दंगा पूरी घटना को एक खास रंग देने और मुस्लिम उत्पीडऩ की कहानियां गढऩे का मौका भर था। अखबारों के पन्ने, 'प्राइम-टाइमÓ की टीवी बहस, जहां इस्लामी प्रताडऩा से पलायन करने वालों के आंसुओं और सीएए के सकारात्मक पक्ष को कभी चर्चा के लायक नहीं समझा गया, वे सारे मीडिया मंच दंगों को सिर्फ 'हिंसक हिंदुओं का उत्पातÓ बताने-साबित करने में जुट गए।

— रचे गए दंगों के प्रबंधन को देखें तो चौथा मोर्चा 'सिनर्जीÓ का है। यानी अलग होकर भी एक रहना और अपनी साझा ताकत को दोगुने की बजाय चौगुना करना। यह वह मोर्चा है जहां कट्टरता को ढकता मीडिया पूरी बेशर्मी से विखंडन की राजनीति के साथ 'सिनर्जीÓ कायम करता नजर आता है। गिरफ्तारी के बाद छात्र बताया जा रहा शरजील इमाम इसी मोर्चे पर कई बौद्धिक लेख लिखने वाले पत्रकार के तौर पर तैनात था। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में कट्टरता पर कायम रहने और इसे सेकुलर लबादे से ढकने की तरकीब बताती 'खातूनÓ भी अब तक वरिष्ठ पत्रकार के वेश में थीं। कांग्रेस पदाधिकारियों को 'एम्स प्रवक्ता,Ó फिल्मी कलाकार को उबर ड्राइवर बताने और टीवी कार्यक्रम में सिर्फ आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं से सवाल पूछने के खेल इसी प्रबंधन के तहत खेले गए।

दिल्ली हिंसा में पहले आम आदमी पार्टी (आआपा) के पार्षद ताहिर हुसैन का शामिल होना, फिर कांग्रेस की पूर्व निगम पार्षद इशरत जहां का नाम सामने आना एक इशारा जरूर कर रहा है। जिस तरह विधानसभा चुनाव में एक की बुरी हार में दूसरे की भारी जीत (और 'दोनों की तसल्लीÓ) छिपी थी, उसी तरह दिल्ली को हिंसा, उपद्रव और अराजकता में झोंकने के मामले में भी दोनों के इरादे एक-दूसरे से अलग नहीं थे।

आम आदमी पार्टी के टिकट पर चुनाव जीते नगर निगम पार्षद ताहिर हुसैन का घर दंगे करने का मुख्यालय बना। आरोप है कि इसी घर में आईबी अधिकारी अंकित शर्मा की हत्या 400 बार से ज्यादा चाकुओं से गोदकर की गई। आरोप है कि दंगाइयों ने इसी घर में युवतियों के साथ बलात्कार भी किया। प्रत्यक्षदर्शी बताते हैं कि ताहिर के घर में अंकित की तरह कई हिंदू लड़कों को पकड़कर लाया गया और उनकी हत्या कर लाश नाले में फेंकी गई। ताहिर की छत से जिस तरह पेट्रोल बम लोगों पर फेंके गए, गोलियां चलाई गर्इं, छत से पत्थर बरामद हुए हैं वह साफ जाहिर करता है कि आआपा का पार्षद दंगा करने की पूरी तैयारी से बैठा था।

गौर कीजिए, जगतपुरी में दंगे को लेकर कांग्रेस की पूर्व पार्षद इशरत जहां भी पकड़ी गई है। इशरत ने सोनिया गांधी की ही तर्ज पर भीड़ को उकसाते हुए कहा था, ''हम चाहे मर जाएं लेकिन हम यहां से नहीं हटेंगे, चाहे पुलिस कुछ भी कर ले हम आजादी लेकर रहेंगे!ÓÓ इशरत के साथ गिरफ्तार कई दंगाइयों में से एक खालिद ने भीड़ से कहा था कि पुलिस पर पथराव करो, भाग जाएगी! ये बात सुनते ही साबू अंसारी व उसके मुस्लिम साथियों ने पुलिस पर पथराव किया। हवलदार रतनलाल की मौत क्या इसी तरह के घटनाक्रम में नहीं हुई!

बहरहाल, दंगों के बाद कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की अगुआई में कांग्रेस प्रतिनिधिमंडल ब्रजपुरी में कांग्रेस कार्यकर्ता के स्कूल पहुंचा, लेकिन खास बात यह कि वह पास ही स्थित एक और क्षतिग्रस्त स्कूल डीपीआर कॉन्वेंट नहीं पहुंचा। डीपीआर कॉन्वेंट के मालिक हिन्दू हैं, इससे सटे राजधानी स्कूल (जिसके मालिक मुस्लिम हैं) के रास्ते आए दंगाइयों ने डीपीआर कॉन्वेंट फूंक डाला। यानी जिस तरह दंगाइयों ने स्कूलों के बीच 'हिन्दूÓ-'मुस्लिमÓ फर्क देख लिया उसी तरह राहुल ने भी स्कूलों में अपने-पराए का अंतर बनाए रखा! राहुल ने कहा कि दंगों ने हिंदुस्थान की ताकत- भाईचारा, एकता और प्यार को जलाया है।

बयान की बात एक ओर रखिए! खुद से पूछिए -भाई को 'चाराÓ बनाने वाली तेजाबी बातें करती, छतों पर हथियार जमा करती लामबंदियां किसकी थीं! सीएए विरोध का 'कैनवासÓ अलीगढ़ से शहडोल-जबलपुर तक कौन फैला रहा था और किसने होली से पहले दिल्ली के माहौल में खूनी रंग भरे! देश की संसद से कानून पारित होने के बाद सोनिया किससे लड़ाई छेड़ रही थीं! दंगों में करीब 50 लाशें गिरने की बात अब तक सामने आई है। सब 'आर-पार की लड़ाईÓ में मारे गए हैं। क्या सोनिया गांधी बताएंगी कि दिल्ली में 'आर-पारÓ से उनका यह मतलब नहीं था!

(लेखक पाञ्चजन्य के संपादक हैं।)

Updated : 16 March 2020 2:37 PM GMT
Tags:    
author-thhumb

Swadesh News

Swadesh Digital contributor help bring you the latest article around you


Next Story
Top