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देशभर में छात्रसंघों के विरुद्ध आखिर क्यों एकमत है राजनीतिक दल

लोकतंत्र की बुनियादी पाठशाला को कुचलती सत्ता की समवेत सहमति

देशभर में छात्रसंघों के विरुद्ध आखिर क्यों एकमत है राजनीतिक दल
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(डॉ अजय खेमरिया)

नीतीश कुमार, सुशील मोदी के सामने तेजस्वी यादव क्यों बौने साबित हो रहे है ? क्या सिर्फ पीढ़ीगत अंतर के चलते? अरुण जेटली के बाद दिल्ली बीजेपी में शून्य सा क्यों है? क्यों मनोज तिवारी हल्के और प्रभावहीन दिखते है वहां? दिग्विजय सिंह की तरह मप्र की सियासत में पकड़ दूसरी पीढ़ी के कांग्रेस नेताओं की क्यों नही है? नरेंद्र सिंह तोमर ग्वालियर की एक तंग गली से निकलकर आज देश की दर्जनभर नीति निर्धारक केन्द्रीय समितियों के सदस्य कैसे है? शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह, कैलाश विजयवर्गीय, रमेश चेन्नीथला, रीता बहुगुणा, मुकुल वासनिक, अजय माकन, लालमुनि चौबे, रामविलास पासवान, शरद यादव, तारिक अनवर, प्रकाश जावड़ेकर, हुकुमदेव यादव, मनोज सिन्हा, गोपीनाथ मुंडे, रविशंकर प्रसाद जैसे अनेक नामों में वैचारिक विभिन्नता के बाबजूद एक साम्य है । वह यह कि सभी छात्र राजनीति से निकलकर आये हुए है। सभी नेताओं के पास अपने कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में संघर्ष का बीज आधार मौजूद है, अधिकतर जेपी आंदोलन के सहयात्री भी रहे है।

आज के नेता तेजस्वी यादव,अनुराग ठाकुर,ज्योतिरादित्य सिंधिया, मिलिंद देवड़ा,जितिन प्रसाद,सचिन पायलट,पंकजा मुंडे,अभिषेक सिंह,दुष्यंत सिंह,पंकज सिंह,अगाथा संगमा,दुष्यंत चौटाला, रणदीप सुरजेवाला, मनीष तिवारी,सुखबीर बादल,सुप्रिया सुले जैसे नेताओं की नई पीढ़ी में भी एक साम्य है ।ये सब अपने पिता या परिजनों की विरासत के प्रतिनिधि है ,किसी के पास जनसंघर्षों की कोई पृष्ठभूमि नही है।इन्हें सब कुछ विरासत में मिल गया इसलिये इस नई पीढ़ी के साथ आप प्रशासन और राजनीति में उन सरोकारों को नहीं देख सकते है जो जम्हूरियत के लिये जरूरी है।सवाल यह है कि क्या भारत मे छात्र राजनीति के दिन लद गए है?क्या छात्र राजनीति की उपयोगिता खत्म हो चुकी है? इसके दोनो आयाम है पंडित मदनमोहन मालवीय जैसे महान शिक्षा शास्त्री मानते थे कि विश्वविद्यालय में राजनीति का कोई स्थान नही होना चाहिये वे छात्र संघो के विरुद्ध थे।वहीं देश मे एक वर्ग ऐसा भी है जिसने छात्र संघो को लोकतंत्र की पाठशाला निरूपित किया है।जेपी, लोहिया जैसे महान नेताओं ने खुद आगे आकर छात्र आंदोलनों का नेतृत्व किया।आज देश की संसदीय राजनीति में इस पाठशाला से निकले कई मेधावी छात्र हमारे विविध क्षेत्रों में योगदान दे रहे है।एक तर्क यह भी दिया जाता है कि कॉलेज, विश्वविद्यालय अगर छात्र संघों से दूर रहे तो शैक्षणिक माहौल और गुणवत्ता सही रहती है।सवाल यह है कि बिहार में अस्सी के दशक से छात्र संघ चुनाव नही हो रहे है मप्र में भी1991 के बाद से बंद प्रायः ही है। शेष जगह अब जिस लिंगदोह कमेटी के आधार पर कॉलेजों में चुनाव होते है उनका कोई औचित्य इसलिये नही है क्योंकि वे अनुशासन के नाम पर इतने सख्त नियमों में बांध दिए गए है कि वहां नेतृत्व और सँघर्ष का कॉलम ही नही रह गया है। अगर यह मान लिया जाए कि छात्र संघों से कैम्पस की गुणवत्ता खराब होती है तब क्या बिहार,मप्र या दूसरे राज्यों में पिछले 30 बर्षों में कॉलेजों और विश्वविद्यालयों का ट्रैक रिकार्ड कोई विशिष्ट उपलब्धि भरा रहा है?अखिल भारतीय सेवाओं में आज भी मप्र का प्रतिनिधित्व सबसे निचले पायदान पर है राज्य की आबादी के अनुपात से।बिहार ,मप्र,बंगाल जैसे बड़े राज्यों के विश्वविद्यालयों में सामाजिक, आर्थिक,मानविकी या प्रौधोगिकी के क्षेत्रों में कोई महानतम उपलब्धियां हांसिल की हो ऐसा भी नही है।हाल ही में जो वैश्विक रेटिंग जारी की गई है उनमें भारत के विश्वविद्यालयों का नाम नही है।जाहिर है इस तर्क को स्वीकार करने का कोई आधार नही है कि छात्रसंघ कैम्पसों में अकादमिक गुणवत्ता को प्रदूषित करते है।सच तो यही है कि छात्र संघ नेतृत्व की पाठशाला है बशर्ते सरकारें ईमानदारी से अपनी भूमिका को तय कर लें। यह समाज मे नैसर्गिक नेतृत्व क्षमता वाले तबके को प्रतिभा प्रकटीकरण का मंच है जिसके माध्यम से लोकतंत्र के लिये मजबूत जमीन का निर्माण होता है।पर सवाल यह है कि क्या सरकारें ऐसा चाहती है?आज लोकतंत्र का स्थाई चरित्र बन चुकी है सत्ता की निरंतरता।सहमति और असहमति की जिस बुनियाद पर जम्हूरियत चलती है उसे कुचलने का प्रयास सम्मिलित रूप से किया जा रहा है।अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद आज दुनिया का सबसे बड़ा संगठन है।अरुण जेटली से लेकर उप राष्ट्रपति वेंकैया नायडू, शिवराज सिंह ,नितिन गडकरी,देवेंद्र फडणवीस, जेपी नड्डा,नरेंद्र सिंह तोमर,रमन सिंह,गिर्राज सिंह, रविशंकर प्रसाद,सदानन्द गोंडा,जैसे बड़े नेता इसी परिषद से निकलकर आज मुख्यधारा की राजनीति में स्थापित हुए है लेकिन यह भी सच्चाई है कि बीजेपी शासित किसी भी राज्य में छात्रसंघों की मौलिक बहाली पर पिछले 30 सालों में कोई काम नही हुआ।कमोबेश आज कांग्रेस के लगभग सभी 60 प्लस के बड़े नेता एनएसयूआई की देन है।बाबजूद दोनो दलों की सरकारों का रिकॉर्ड छात्रसंघ के मामले में बेईमानी भरा है।सच्चाई यह है कि सत्ता के स्थाई भाव ने राजनीतिक दलों को नेतृत्व के फैलाव से रोके रखा है आज कोई भी जेपी,दीनदयाल या लोहिया की तरह व्यवस्था परिवर्तन की बात नही करना चाहता है।सत्ता के लिये परिवारवाद की बीमारी ने भी राजनीतिक दलों को एक तरह से बंधक बना लिया है। क्रोनी कैपिटलिज्म ने आज हमारे लोकतंत्र को ऑक्टोपेशी शिकंजे में ले लिया है यही कारण है कि संसदीय लोकतंत्र की इस व्यवस्था में बुनियादी रूप से लोकतांत्रिक भाव गायब है।जाति वाद,परिवारवाद,और पूंजीवाद के शॉर्टकट मॉडल ने संसदीय राजनीति का चेहरा ही बदल कर रख दिया।छात्रसंघ के जरिये जिस नेतृत्व को समाज आकार देता था उससे सत्ता के स्थाई भाव को चोट पहुँचना लाजमी है इसलिये समवेत रुप से इस विषय पर सहमति कोई आश्चर्य पैदा नही करती है।तर्क दिया जाता है कि आज वैश्वीकरण के दौर में काबिल बच्चों के पास अपना कैरियर बनाने के फेर में राजनीति के लिये समय नही है लेकिन इस तथ्य को अनदेखा कर दिया जाता है कि देश की सभी नीतियों को बनाने का काम तो आखिर संसदीय व्यवस्था में नेताओं को ही करना है।फिर राजनीति से शुद्धता ,बुद्धिमानी औऱ चरित्र की अपेक्षा का नैतिक आधार क्या है?

कैम्पसों को राजनीति से दूर रखने का तर्क भी बड़ा सुविधाभोगी है क्योंकि आज भी हमारे विश्वविद्यालयों में सर्वोच्च नीति निर्धारक निकाय "कार्यपरिषद"ही हैं जिनमें सदस्यों की नियुक्ति राज्यपाल और मुख्यमंत्री करते है,ये सभी नियुक्ति विशुद्ध राजनीतिक आधारों पर होती है।फिर कैसे कहा जा सकता है कि कैम्पस में सरकारें राजनीतिक हस्तक्षेप नही करती हैं।मप्र में तो हर सरकारी कॉलेज में जनभागीदारी समिति के गठन के प्रावधान है जिनमें अध्यक्ष की नियुक्ति सरकार करती है और कॉलेज का प्राचार्य सदस्य सचिव की हैसियत से काम करता है।जनभागीदारी समितियां सरकारों के एजेंडे को ही आगे बढ़ाती है क्योंकि वे प्रशासन से लेकर प्रबन्धन तक मे सर्वेसर्वा है।जाहिर है कॉलेजों से लेकर विश्विद्यालयों तक सरकारें अपनी सीधी पकड़ बनाए हुए है लेकिन अपनी शर्तों पर।इसलिए यह कहना कि सरकारें कैम्पसों में राजनीतिक दखल रोकने के नाम पर छात्रसंघों को प्राथमिकता नही देती है सफेद झूठ से ज्यादा कुछ नही है।हकीकत यही है कि आज के संसदीय मॉडल में सभी दल पूंजी और परिवारों के बंधक है और जनभागीदारी के नाम पर केवल शर्ताधीन भागीदारी को ही इजाजत देते है।किसी नए हुकुमदेव यादव,शिवराज चौहान, मुकुल वासनिक ,रविशंकर प्रसाद,लालू यादव को जगह नही है क्योंकि ये सब भी बाल बच्चे वाले है।

जेपी, लोहिया, दीनदयाल भी जब नही है तो फिर नया नेतृत्व कहां से आएगा ? समझा जा सकता है।

(लेखक छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष रहे है)

Updated : 24 Sep 2019 8:47 AM GMT
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