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कार्बन उत्‍सर्जन से भारत को होता आर्थ‍िक नुकसान

डॉ. मयंक चतुर्वेदी

कार्बन उत्‍सर्जन से भारत को होता आर्थ‍िक नुकसान
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दुनिया विकास के पीछे भाग रही है। प्रकृति का अंधाधुंध शोषण, जीवन को नुकसान पहुँचानेवाले तत्‍वों का पर्यावरण में अत्‍यधिक समावेश, मानों आज के मनुष्‍य की दिनचर्या का हिस्‍सा हो गया है। सुबह उठते ही प्‍लास्‍ट‍िक के ब्रश से टूथपेस्‍ट करते ही लगभग शहरी दुनिया की ही नहीं, अब तो ग्रामीण जनसंख्‍या भी पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने के कार्य में लग गई है। उधर, देर रात एसी की हवा में सोते हुए सुबह तक कार्बन का निरंतर उत्‍सर्जन करते हुए हम सभी प्रकृति को नुकसान पहुँचाने में अपना भरपूर योगदान दे रहे हैं। इन सब के बीच बड़ा प्रश्‍न यह है कि क्‍या हम इसे कम करने में अपना योगदान दे सकते हैं? विश्‍व के जो देश इसके लिए सबसे अधिक जिम्‍मेदार हैं, क्‍या वे अपने दायित्‍व बोध को समझेंगे या यूं ही दुनिया को वे तबाही के कगार पर ले जाएंगे? इसके साथ ही एक प्रश्‍न और उपजता है कि विकसित देशों की करतूत को विकासशील देश कब तक भुगतेंगे ?

वस्‍तुत: जनसंख्‍या घनत्‍व के हिसाब से लोगों को लग सकता है कि सबसे अधि‍क पर्यावरण एवं जैव-विविधता को यदि कोई नुकसान पहुँचा रहा होगा तो वे चीन और भारत होंगे, किंतु यह जमीनी सच्‍चाई नहीं है। दुनिया के सभी विकसित देश आज सबसे अधिक पर्यावरण को नुकसान पहुँचा रहे हैं। इसी के कारण प्रदूषण कहीं और हो रहा है और हवाओं के प्रभाव से उसका नुकसान किन्‍हीं अन्‍य देशों को भुगतना पड़ रहा है। स्‍वास्‍थ को लेकर तो इसका नकारात्‍मक प्रभाव है ही, भारत जैसे विकासशील देश इसके कारण अपनी अर्थव्‍यवस्‍था का एक बहुत बड़ा हिस्‍सा प्रतिवर्ष गंवा रहे हैं।

आंकड़ों के अनुसार, कार्बन डाई ऑक्साइड के उत्सर्जन से सिर्फ भारत की अर्थव्यवस्था को हर साल 210 अरब डॉलर (तकरीबन 15,242 अरब रुपये) का नुकसान होता है। कैलिफोर्निया विश्‍वविद्यालय के शोधार्थियों ने "ग्लोबल रिसर्च रिपोर्ट" में पाया है कि जैसे-जैसे तापमान बढ़ेगा, भारत की आर्थिक वृद्ध‍ि धीमी होती जाएगी। हालांकि इस रिपोर्ट के निष्‍कर्ष यह भी बताते हैं कि दुनिया के सबसे शक्‍तिशाली देश अमेरिका को भी जलवायु प्ररिवर्तन से कम नुकसान नहीं पहुँच रहा है। उसे भी इसके कारण सबसे अधि‍क आर्थिक नुकसान उठाना पड़ रहा है । किंतु बड़ा प्रश्‍न यही है कि विकसित देशों के द्वारा जो कार्बन गैसों का उत्‍सर्जन किया जा रहा है, उसके एवज में विकासशील देशों के नागरिकों को बुरे स्‍वास्‍थ, आर्थिक एवं सामाजिक स्‍तर पर अपनी जान गवांकर उसकी भरपाई क्‍यों करनी चाहिए? एक तरफ जीवाश्म ईंधन आधारित अर्थव्यवस्थाओं से अमीर देशों को लाभ पर लाभ पहुंच रहा है तो दूसरी ओर इसका सबसे अधि‍क बुरा असर विकासशील देशों को उठाना पड़ रहा है। यह व्‍यवस्‍था कहां तक उचित ठहराई जाए? यह विश्‍वविद्यालयीन शोध इस निष्‍कर्ष पर पहुँचता है कि भारत में प्रति टन कार्बन उत्सर्जन की सामाजिक लागत 86 डॉलर (6,241.88 रुपये) आती है। यदि इसे वर्तमान के साथ जोड़कर मौजूदा उत्सर्जन स्तर निकाला जाए तो अभी भारतीय अर्थव्यवस्था को प्रतिवर्ष 210 अरब डॉलर का नुकसान हो रहा है। इस आर्थ‍िक नुकसान के साथ ही विकासशील देशों में प्रदूषण सबसे बड़ा हत्यारा बनकर सामने आया है। इसे लेकर विश्‍व में हर साल 84 लाख लोगों की मौत हो रही है। वस्‍तुत: यह संख्या मलेरिया से होने वाली मौतों से तीन गुणा और एचआईवी एड्स के कारण होने वाली मौतों से करीब 14 गुणा अधिक हैं। इसमें बड़ा कारण जो है, वह वायु और जल प्रदूषण के साथ टॉक्सिक साइटें विकासशील देशों की स्वास्थ्य प्रणाली पर भारी बोझ थोपती हैं ।

विकसित देशों ने काफी हद तक अपने यहां प्रदूषण की समस्याओं को हल कर लिया है लेकिन विकासशील देश इससे अभी भी जूझ रहे हैं। हालांकि भारत जैसे विशाल जनसंख्‍यावाले देश में प्रधानमंत्री नीरेंद्र मोदी स्‍वयं आगे आकर स्‍वच्‍छता अभियान चलाते हैं किंतु जो वैश्‍विक प्रदूषण की हवाएं हैं, उन्‍हें आगे बढ़ने से रोका नहीं जा सकता है। यही वह कारण है कि तमाम प्रसासों के बाद भी भारत आज अच्‍छी जीवनचर्या और अच्‍छे स्‍वास्‍थ के लिए संघर्ष कर रहा है।

इस संबंध में समाधान सिर्फ यही है कि पेरिस समझौते को पूर्णरूप से अमल में लाने के प्रयास हों। माना कि जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए यह सबसे अहम वैश्विक समझौता है, फिर भी जरूरी है कि अमेरिका जैसे विकसित देश और सभी विकासशील देश मिलकर अन्य देशों पर इसे मानने का दवाब बनाएं। इसके उलट अमेरिका यह बार-बार कहता है कि ये समझौता अेरिका को दंडित करता है और इसकी वजह से अेरिका में लाखों नौकरियां चली जाएंगी और समझौते की वजह से अमेरिकी अर्थव्यवस्था को भारी नुक़सान होगा। अमेरिका कहता है कि समझौता चीन और भारत जैसे देशों को फ़ायदा पहुंचाता है। इसलिए हम इसे नहीं मानेंगे।

अमेरिका के कथन की पृष्ठभूमि में पूरी दुनिया के देशों को समझाना होगा कि आपके फैलाए हुए प्रदूषण की मार हम झेलने को तैयार नहीं हैं। विकास के नाम पर आप हमारे देश के लोगों को बीमारी नहीं दे सकते और हमारी अर्थव्‍यवस्‍था को क्षति नहीं पहुँचा सकते हैं। वस्‍तुत: देखा जाए तो पेरिस समझौते का मक़सद हानिकारक गैसों का उत्सर्जन कम कर दुनियाभर में बढ़ रहे तापमान को रोकना है। इस समझौते में प्रावधान है कि वैश्विक तापमान को दो डिग्री सेल्सियस से नीचे रखा जा सके और यह कोशिश करना कि तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक न बढ़ सके। इसलिए यह जरूरी हो गया है कि भारत जैसे विकासशील देश अपने नागरिकों की स्‍वास्‍थ चिंताओं के साथ अपने देश के रोजमर्रा के होनेवाले आर्थ‍िक नुकसानों को भी देखें। भारत जैसे देश अत्‍यधिक कार्बन उत्‍सर्जन को लेकर विकसित देशों के प्रति लामबंद हों और इस दिशा में कोई स्‍थायी समाधान निकल सके, इसके लिए एकजुट प्रयासरत हों। नहीं तो आनेवाले दिन हमें खतरे के संकेत दे रहे हैं। दिन-प्रतिदिन बढ़ता कर्बन उत्‍सर्जन पूरी जैव विविधता को नष्‍ट कर देगा। इसमें फिर मानव भी बचनेवाला नहीं है, फिर वे अमेरिका जैसे विकसित देशों में रहनेवाले मानव समुदाय ही क्‍यों न हों । विषय गंभीर है और इस पर जरूरी है कि सभी मिलजुलकर विचार करें।

लेखक हिन्‍दुस्‍थान समाचार से जुड़े होने के साथ ही फिल्‍म सेंसर बोर्ड एडवाइजरी कमेटी के पूर्व सदस्‍य हैं

Updated : 4 Oct 2018 3:44 PM GMT
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डॉ. मयंक चतुर्वेदी

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