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मोदी फकीर की झोली

मोदी फकीर की झोली
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2019 के आम चुनावों में रिकार्ड तोड़ सफलता से सत्ता में वापसी के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली स्थित भारतीय जनता पार्टी मुख्यालय में कहा कि 130 करोड़ हिंदुस्तानियों ने फकीर की झोली भर दी। उन्होंने संकल्प जताया कि वह बद इरादे और बदनीयत से कोई काम नहीं करेंगे और अपने लिए कभी भी कुछ नहीं करेंगे। चुनाव के समय देश में 'नमो-नमो' थी और जीत की विनम्रता ने महौल को 'नम: नम:' बना दिया। यह देश स्वभाववत् ऐसा ही है, जिसके चोले में जेब न हो यहां की जनता उसकी झोली भर ही देती है। बिना जेब वाली धोती धारण करने वाले गांधी को इस देश ने महात्मा बना दिया तो नेताजी सुभाष बाबू के लिए महिलाओं ने अपने गहने तक उतार कर दे दिए। विदुर नीति में ठीक ही कहा है कि विश्वास और जन आशीर्वाद के सामने धन बल, सत्ता बल, षड्यंत्र, छल-प्रपंच बोने पड़ जाते हैं। आम चुनावों में मोदी की जीत व विपक्ष की पराजय की मिमांसा हो रही है तो राष्ट्रवाद, हिंदुत्व, ध्रुवीकरण, सरकारी योजनाओं, विपक्ष की नकारात्मक राजनीति, विकल्प की कमी सहित अनेक मुद्दे विमर्श में हैं, लेकिन लगता है कि शायद बुद्धिजीवियों को कुछ समय के लिए अपनी खोपड़ी को आराम देना चाहिए। ये जीत इन मुद्दों के बावजूद इनसे इतर है, यह जीत है जनता के विश्वास की, वह जनता जिसने विश्वास किया उस फकीर पर जिसकी चोले को जेब नहीं लगी है। जिसकी माँ आज भी दस-बीस रूपये की हवाई चप्पल डालती है और परिवार के लोग छोटा-मोटा व्यवसाय कर जीवनयापन करते हैं। यह फकीर अपने लिए कुछ नहीं करता, उससे गलती हो सकती है, गति न्यूनाधिक होने की पूरी संभावना है परंतु नीयत साफ और इरादे नेक हैं। आखिर क्यों न विश्वास हो इस फकीर पर।

विपक्ष की ही दृष्टि से देखें तो चुनाव में मोदी के सामने अनेक चुनौतियां भी थीं। आरोप था कि बेरोजगारी रिकॉर्ड स्तर तक बढ़ी, किसानों की आय नहीं बढ़ी और औद्योगिक उत्पादन में गिरावट आई। विपक्ष की मानें तो भारतीयों को नोटबंदी से काफी नुकसान उठाना पड़ा। जीएसटी को लेकर भी कई शिकायतें थीं, लेकिन विश्वास के चलते लोगों इन सबके लिए मोदी को जिम्मेदार नहीं माना। मोदी अपने भाषणों में लगातार कहते आए कि उन्हें 60 साल की अव्यवस्था को सुधारने के लिए पांच साल से अधिक समय चाहिए। लोगों ने उनकी बात पर विश्वास कर लिया और लबालब भर दी फकीर की झोली। लगातार दूसरी बार शानदार जीत हासिल करने वाले मोदी की तुलना 1980 के दशक लोकप्रिय अमरीकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन से की जा सकती है, जिन्हें उस समय की आर्थिक मुश्किलों के लिए जनता ने जिम्मेदार नहीं माना।

चुनाव में एक ओर झोली वाला फकीर था तो दूसरी ओर सूटकेस संस्कृति के प्रतीक, जो बार-बार कह रहे थे कि चौकीदार चोर है। मोदी के प्रति जनता के विश्वास का ही परिणाम दिखता है कि इस गाली गलौच से जनता ने खुद को अपमानित होता महसूस किया। खाऊंगा न खाने दूंगा के मोदी वचन पर जनता को इतना विश्वास था कि हजार बार झूठ दोहरा कर उसे सच बनाने वाली हिटलर के मंत्री गॉबल्स की थ्यूरी ही धाराशाही हो गई। पुलवामा आतंकी हमले के बाद मोदी ने पाकिस्तान को साफ जता दिया कि उसकी सेना बहुत बड़ी गलती कर चुकी है। शुरू में इसे पाकिस्तान को लेकर अपनाई जाने वाली नीति की रस्म माना परंतु बालाकोट पर हुई एयर स्ट्राईक ने उनके प्रति जनता का विश्वास का स्तर इतना ऊंचा कर दिया कि देश की सबसे पुरानी व सबसे अधिक शासन करने वाली कांग्रेस अपने साथियों के साथ उसमें आकण्ठ डूब गई। गरीबों के लिए बिजली, मकान, शौचालय, क्रेडिट कार्ड और रसोई गैस की व्यवस्था ने विश्वास की इस ईमारत की नींव पहले ही तैयार करके रखी थी। मोदी आम लोगों को विश्वास दिलवाने में कामयाब रहे कि अगर वे सत्ता में लौटते हैं तो देश सुरक्षित हाथों में रहेगा। अकसर आम लोगों की विदेश नीति में दिलचस्पी नहीं होती है, लेकिन चुनावी रिपोर्टिंग के दौरान विदेशी मीडिया ने भी माना कि अधिकतर मतदाताओं का विचार है कि मोदी के नेतृत्व में भारत का सम्मान विदेशों में बढ़ा है। मजबूत नेता की चाहत केवल भारत में पिछले कुछ दशकों से देखने को मिल रही थी, लोग मानने लगे हैं कि कद्दावर नेता के बिना देश न तो सम्मानपूर्वक जी सकता है और न ही विकास कर सकता। शिक्षित वर्ग के सामने रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमिर पुतिन, चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग, जापानी राष्ट्राध्यक्ष शिंजो आबे, तुर्की के राष्ट्रपति रेचैप तैय्यप आर्दोऑन, हंगरी के विक्टर ओर्बान, ब्राजील के जैर बोलसोनारो आदि उदाहरण बन कर आए जिनके मजबूत नेतृत्व ने अपने देशों को विकास के शिखर तक पहुंचाया। भारतीयों को मोदी के नेतृत्व में विश्वास हो गया कि डोकलाम में चीन जैसे अडिय़ल पड़ौसी को झुकाने वाले मोदी उनकी यह कमी पूरी कर सकते हैं। इसी विश्वास के चलते अबकी बार लगभग हर भारतीय स्थानीय प्रतिनिधि की अनदेखी कर मोदी के नाम पर मतदान करता नजर आया।

जनता के विश्वास की शक्ति व इसमें छिपी आकांक्षाओं को खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी पहचाना है। तभी तो विजयी भाषण में उन्होंने कहा कि आपेक्षाएं निजी हित के लिए हों तो तनाव पैदा करती हैं परंतु किसी के प्रति जनाकांक्षाएं व जनविश्वास उस व्यक्ति को ऊर्जा प्रदान करता है। यही ऊर्जा है जो किसी नेता या सरकार को काम करने को मजबूर करता है। 2014 में नरेंद्र मोदी ने जनता से पांच साल नहीं बल्कि कम से कम दस साल मांगे थे ताकि वो अपनी योजनाओं को वास्तविक रूप में मूर्त रूप प्रदान कर सकें। उन्होंने गांधी जी की 150 वीं जयंती २ अक्तूबर, 2019 को स्वच्छ भारत अभियान, 2022 को किसानों की आय दोगुना करने जैसी अनेक योजनाएं आरंभ कीं और फोकस दस सालों पर केंद्रित रखा। विद्यार्थियों से बातचीत के दौरान जब एक युवक ने प्रधानमंत्री बनने की इच्छा जताई तो मोदी ने सहज स्वभाव में कहा कि 2024 तक कोई वैकेंसी नहीं है। लोकसभा में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने मोदी को गले लगाने के लिए उनसे अपनी सीट से उठने को कहा तो अपने मोदी ने जवाब दिया कि यहां पर बैठाने या उठाने का काम जनता जनार्दन करती है, कोई व्यक्ति नहीं। असल में इसी तरह के आत्मविश्वासी नेता ही जनता में विश्वास पैदा करते हैं और यही विश्वास समाज में भी आत्मविश्वास का संचार करता है। शिवाजी ने समाज का आत्मविश्वास जगाया तो अदने से मराठा मुगलों के काल बन गए, गुरु गोबिंद सिंह जी ने निर्बल कहे जाने वाले समाज को इस कदर आत्मविश्वासी बना दिया कि एक-एक सिख सवा-सवा लाख से लडऩे की हिमाकत करने लगा। भारतीय समाज और राजनीतिक नेतृत्व आज विश्वास और आत्मविश्वास से सराबोर हैं, ऐसे में विकसित व शक्तिशाली भारत की उम्मीद बंधवना स्वभाविक है।

- राकेश सैन, जालंधर

Updated : 28 May 2019 2:40 PM GMT
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