आपातकाल: गोविंदाचार्य ने साझा की यादें, नाम और वेश बदल करते थे संपर्क, साइक्लोस्टाइल मशीन से छापते थे लोकवाणी
25 जून, आपातकाल विशेष
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- डॉ. शारदा वंदना
देश में आपातकाल लगाए जाने के आज 44 साल पूरे हो गए। 25 जून, 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश पर आपातकाल थोपा था। इंदिरा गांधी ने भारतीय लोकतंत्र पर तानाशाही का धब्बा लगाते हुए आपातकाल का ऐलान किया था। इस दौरान देश दो साल के लिए जेलखाना बन गया। आज भी आपातकाल को याद कर कई लोग सिहर उठते हैं।
देश के जाने-माने चिंतक, विचारक और आपातकाल के खिलाफ मुखर भूमिका निभाने वाले केएन गोविंदाचार्य ने उस स्याह दौर को कुछ ऐसे याद किया- 25 जून,1975 को जब देश में आपातकाल की घोषणा हुई तो उस समय मैं बनारस में था। हजारीबाग के संघ शिक्षा वर्ग से बनारस चला गया था मां से मिलने। दिन के चार बजे का समय रहा होगा। दिल्ली से फोन आया। मुझे दूसरी तरफ से कहा गया कि आज का रोडियो अनाउंसेंट आप गौर से सुनिएगा। आज आपातकाल की घोषणा होने वाली है। मुझे पता भी नहीं था कि दूसरी तरफ से कौन बोल रहा है। मैं कुछ और पूछ पाता, इसके पहले ही फोन करने वाले ने फोन रख दिया।
आपातकाल की आशंका तो थी ही लेकिन इस फोन के बाद और पक्का हो गया कि प्रधानमंत्री देश पर आपातकाल थोपने वाली हैं। इसके बाद मैंने अपने कार्यस्थल बिहार जाने का निर्णय लिया। जल्दी से पंजाब मेल पकड़कर पटना निकल गया। रात करीब दस बजे पटना पहुंचा। तबतक आपातकाल की घोषण हो चुकी थी। पहले के अनुभवों की वजह से मैंने तय किया कि संघ कार्यालय नहीं जाना है। यूनिवर्सिटी के सामने प्रगतिशील प्रकाशन के पास के एक लॉज में विद्यार्थी अरूण कुमार सिन्हा रहते थे। मैं उनके कमरे में चला गया। मैंने उनसे कहा कि आपातकाल लग गया है इसलिए मैं बाहर नहीं जा सकता, तुम साइकिल से संघ कार्यालय चले जाओ और वहां से घूमघाम कर माहौल देखकर आओ। अंदर मत जाना।
जब अरूण संघ कार्यालय पहुंचे तो उन्होंने देखा कि वहां पुलिस पहुंची हुई थी। संघ कार्यालय में एक तरफ पुलिस की कार्रवाई चल रही थी तो दूसरी तरफ मैं भूमिगत होकर इस जुगत में लग गया कि आपातकाल की आंच से संगठन के स्वयंसेवकों का कैसे बचाया जाए। छात्र आंदोलन कैसे जारी रखा जाये। इसके लिए मैंने विस्तृत रणनीति तैयार की। सात स्वयंसेवकों को अरूण सिन्हा के कमरे में जमा करके उन्हें पूरी लिखित रणनीति सौंपी कि अगले कुछ दिनों तक कैसे काम करना है।
इसी बीच अरूण सिन्हा संघ कार्यालय से स्थिति का जायजा लेकर लौटे तो सभी को मैंने सात अलग-अलग विभाग केंद्रों पर भेजा। कागज पर इन सभी का नकली नाम, संपर्क पता, कैसे किसी से संपर्क करें आदि लिख दिया था। जिले के स्वयंसेवकों के लिए दिशा-निर्देश कागज पर लिखकर उनके जरिए भेज दिया। ये लोग 28 जून, 1975 की रात तक पटना लौट आए। 29 जून 1975 नागपुर से एक कार्यकर्ता इन्हीं निर्देशों को लेकर आए। हमलोग बिहार आंदोलन के अनुभव की वजह से रणनीति तैयार करने और उनके क्रियान्वन के मामले में थोड़ा आगे थे।
इसके साथ ही हमलोगों ने पटना से हर सप्ताह लोकवाणी पत्रिका निकालना शुरू किया। नया टोली के अशोक कुमार सिंह उसके प्रमुख थे। श्यामजी सहाय को इसका काम दिया गया। इसका भूमिगत प्रकाशन होता था। इसमें सबसे सफल जगह रहा आलमंगज। यहां हमने पुलिस थाने के ठीक पीछे वाले घर को किराए पर लिया था। वहीं हम साइक्लोस्टाइल मशीन से लोकवाणी छापते थे लेकिन पुलिस को इसकी भनक नहीं लगी। दो-तीन महीने बाद फिर हम लोगों ने कंकड़बाग से छपाई का काम शुरू किया। आपातकाल की घोषणा के दस दिन के बाद ही चार जुलाई 1975 को इंदिरा गांधी सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध की घोषणा कर दी।
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