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भारतीय राजनीति और शासन के बदलते आयाम का विश्लेषण

डॉ. अजय खेमरिया

भारतीय राजनीति और शासन के बदलते आयाम का विश्लेषण
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सीएम के आगे शरणागत क्यों है? राज्यों में विधायिका और कार्यपालिका

संसदीय शासन व्यवस्था में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के मध्य सुस्पष्टता के साथ शक्ति और कार्य विभाजन है।भारत ने जिस संसदीय मॉडल को संवैधानिक रूप से अपनाया है उसमें केंद्र और राज्य में विधान निर्माण को भी स्पष्ट किया गया है।राजनीति विज्ञान के मान्य सिद्धांत भी यही कहते है कि विधान यानी कानून के निर्माण में विधायिका सर्वोच्च है।लेकिन पिछले कुछ बर्षों से भारत में राज्यों के विधानमण्डलों की इस अधिकारिता और सर्वोच्चता को मुख्यमंत्रीयों से ही खतरा उतपन्न हो गया है।यूं तो मुख्यमंत्री विधानसभा के बहुमत आधारित नेता होते है लेकिन हकीकत यह है कि आज राज्यों में विधायिका और कार्यपालिका की पूरी ताकत मुख्यमंत्रियो में जाकर समाहित हो गई है।राज्यों में अब पार्टी नही चेहरों का शासन प्रचलित हो रहा है।मसलन शिवराज सरकार,रमन सरकार, कमलनाथ सरकार, योगीराज, फिर एक बार खट्टर राज।यह नई राजनीतिक संस्कृति एक बड़ा संवैधानिक नुकसान भी कर रही है वह यह कि राज्यों में भी विधायिका का महत्व खत्म हो रहा है।

मप्र विधानसभा का शीत सत्र 5 दिन चलना था लेकिन तीसरे दिन ही समाप्त कर दिया गया।10 विधेयक बगैर चर्चा के शोरगुल में पारित हुए।राजस्थान में सदन की बैठकें कम रखे जाने पर वहां विपक्षी दल भाजपा ने आपत्ति दर्ज की। नागपुर में आयोजित महाराष्ट्र विधानसभा के शीत कालीन सत्र की अल्पावधि को लेकर भी मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की आलोचना हुई।छत्तीसगढ़ में नेता प्रतिपक्ष ने मुख्यमंत्री पर संसदीय प्रक्रिया को रस्मी बनाने का आरोप लगाया है।

सवाल यह है कि जब भारत की संसद के दोनों सदनों में कामकाज और उत्पादकीय प्रतिशत को लेकर सुधार हो रहा है।दोनों सदनों में विधेयकों पर बहस का समय और स्तर तेजी से ऊपर उठा है।ऐसे में राज्यों के विधानमंडल क्या मुख्यमंत्री और अफ़सरशाही के आगे औपचारिक होकर रह गए है?गहराई से विश्लेषण किया जाए तो संसदीय लोकतंत्र की विहित प्रक्रियाओं के प्रावधानों पर भारत में राज्यों का विधायी कार्य महज रस्मी बनकर रह गया है। विधानमंडल के पटल का उपयोग सदन से बाहर बना लिए गए कानूनों औऱ सरकारी धन खर्ची को विनियमित करने के लिये ही किया जा रहा है।

मप्र,छत्तीसगढ़, राजस्थान, हरियाणा, और उप्र जैसे राज्यों की विधानमण्डलीय प्रक्रियाओं, विधायकों की कानून निर्माण में भागीदारी, सदन में दिए गए आश्वस्ति से लेकर मंत्रियों की घोषणाओं और उन पर किये गए अमल को विश्लेषित किया जाए तो समझ मे आ जाता है कि राज्यों के विधानमंडल लगातार अपना मौलिक महत्व खोते जा रहे है।

मप्र विधानसभा में पिछले 17 बर्षों के दौरान दिए गए 12हजार से ज्यादा सरकारी आश्वासन अधूरे पड़े है या उन पर अमल की कोई शुरुआत ही नही हुई है।उप्र में यह आंकड़ा 16 हजार,बिहार में करीब 9 हजार छत्तीसगढ़ में 6 हजार बताया गया है।हर विधानसभा सत्र में हजारों की संख्या में प्रश्नकाल के लिए विधायक सवाल लगाते है लेकिन पिछले एक दशक में यह विधायी कार्य संस्कृति विकसित हो चुकी है कि सबंधित महकमें के अफसर अधिसंख्य सवालों के जबाब यह कहकर टाल जाते है कि "जानकारी संकलित की जा रही है". या कुछ प्रश्नों को यह कहकर लटका दिया जाता है कि प्रश्न का उत्तर दिया जाना इसलिये संभव नही है कि इसको प्रस्तुत करने में समय अधिक लगेगा।अगले सत्र तक इस तरह की जानकारी आई गई हो जाती है।मप्र,छत्तीसगढ़, राजस्थान, हरियाणा जैसे राज्यों में तो विधानसभा पटल पर विभागों द्वारा गलत जबाब भी प्रस्तुत किया जाना आम हो गया है।इन राज्यों की विधायी प्रक्रिया पर अध्ययन करने वाले जीवाजी विवि के राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर एपीएस चौहान की एक रिपोर्ट बताती है कि विधानमंडल लगातार अपनी मौलिकता खो रहे है क्योंकि सरकार को अफ़सरशाही ने अपने शिकंजे में ले लिया है। वे सदन में अफसरों की लिखी स्क्रिप्ट्स पढ़ते है और अफ़सरशाही सदन के महत्व को सदैव द्वितीयक बना कर रखना चाहती है।वस्तुतः राज्यों के विधायी कार्य को अब पूरी तरह से मुख्यमंत्री सचिवालय और आईएएस अफसरों ने अतिक्रमित कर लिया है।मुख्यमंत्री लगभग सभी नए कानूनों और योजनाओं की घोषणाएं लोकप्रियता केंद्रित मंचों और ऐसे ही भीड़ भरे आयोजनों में करते है। विधानमंडल महज उनकी घोषणाओं पर विधिक मुहर लगाने के काम कर रहे है।सदन के बहुमत का प्रयोग सिर्फ सरकार के एजेंडे को कानूनी जामा पहनाने के लिए किया जा रहा है।

असल में मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित करके लड़े जा रहे विधानसभा चुनावों से यह चलन और भी तेजी से बढ़ा है।अब राज्यों का पूरा प्रशासन मुख्यमंत्री केंद्रित हो गया है मंत्रियों की हैसियत भी कमजोर हुई है और विधायक की आवाज अफ़सरशाही के आगे किसी निगम पार्षद सरीखी बना दी गई है।सीएम सचिवालय में कभी दो या तीन आईएएस हुआ करते थे लेकिन आज सभी मुख्यमंत्रियों के ऑफिस और निवास पर दर्जनों आइएएस अफसर बकायदा पदस्थापना के जरिये बैठ रहे है।समझा जा सकता है कि मुख्यमंत्री को किस तरह शीर्ष अफ़सरशाही ने घेर रखा होता है ।जो अधिकतर राज्य के सभी प्रमुख विभागों के प्रमुख सचिव भी होते है।वैसे पदक्रम के मुताबिक राज्य के मुख्यसचिव और विधायक एक समान है लेकिन व्यवहार में विधायकों की हैसियत यह है कि वे अपने क्षेत्र के एसडीएम से काम कराने के लिये रिरियाते रहते है।मप्र के छतरपुर जिले के कलेक्टर तो सत्ताधारी दल के विद्यायकों को मिलने के लिये घण्टे भर तक इंतजार कराते रहे है।

सवाल यह है कि राज्य प्रशासन में चुने गए विधायक और सर्वोच्च निकाय यानी विधानमंडल की ताकत में लगातार क्षरण क्यों हो रहा है।इसके मूल को अगर ईमानदारी से खंगालने की कोशिशें की जाए तो समझने वाला सबसे अहम पक्ष है मुख्यमंत्री बेस्ड चुनावी सिस्टम की राजनीतिक संस्कृति का उभार। अधिकतर विधायक मुख्यमंत्री की लोकप्रियता पर सवार होकर जीतते है और मुख्यमंत्री अब पूरी तरह से अफ़सरशाही के इशारों पर टिके होते है।इसलिए विधायक पहले तो अपने दलीय अनुशासन में बंधकर चुप रहते है और उन्हें यह डर भी रहता है कि अगर उन्होंने सरकार के ताकतवर अफसरों की कार्यप्रणाली या सरकारी नीति पर सवाल उठाया तो इसे सरकार के विरुद्ध स्टैंड माना जायेगा।दूसरा अधिकतर विधायक विधायी कार्य को समझना ही नही चाहते है।एक दौर था जब विधानसभा पुस्तकालयों में विधायक घन्टो समय बिताते थे और प्रक्रियाओं को समझते थे।आज ज्यादातर विधायको के पास समय नही है।यही हाल मंत्रियो का है वे मंत्री तो पूरे प्रदेश के होते है लेकिन उनका नजरिया अपनी खुद की विधानसभा ज्यादा हुआ तो जिले तक सिमटा हुआ रहता है।वे विभागीय गतिविधियों में मैदानी स्तर पर कोई दिलचस्पी नही लेते है और जैसा अफसर चलाते है अधिकतर मंत्री वैसे ही चलते है।यहां भी मुख्यमंत्री और उनके इर्द गिर्द के ताकतवर अफसरों का ख़ौफ़ उन्हें परेशान करता रहता है।शेष मामला सरकारी सुख सुविधाओं स्थानीय और विभागीय बंदरबांट के चलते मूक बनाने के लिये पर्याप्त रहता है।कैबिनेट की बैठक में भी केवल मुख्यमंत्री की ही चलती है।इक्का दुक्का मंत्रियों को छोड़ दीजिये अधिकतर एजेण्डे का वाचन अफसर ही करते है।यही वजह है कि राज्य कैबिनेट के अधिकतर मंत्रियो को खुद के ही विभागों की योजनाओं की तकनीकी जानकारी नही रहती है।पिछले दिनों मप्र विधानसभा में मंत्रियो ने जो लिखित जबाब पेश किये उनमें से अधिकतर को मंत्रियो ने देखा तक नही था।बाद में जब इन मंत्रियो के जबाब कांग्रेस सरकार के लिए विरोधाभाषी साबित हुए तो सदन के बाहर जबाब खारिज करने पड़े।

कहा जा सकता है कि मौजूदा विधायी प्रक्रिया पूरी तरह से रस्मी बनकर रह गई है।सदन में मंत्री की घोषणा, आश्वस्ति, या जबाब का जो विधिक महत्व है वह आज कोई खास मायने नही रखता है।वरन एक दौर था जब विधानसभा सत्र की आहट और उसमें उठने वाले मुद्दों से राज्यों की मैदानी सरकारी मशीनरी में हड़कम्प की स्थिति निर्मित हो जाती थी।सदन में पक्ष विपक्ष की हर मुद्दों पर गरमागरम बहस होतीं थी।सरकार के किसी भी आश्वसन पर अगले सत्र तक अमल सुनिश्चित किया जाता था।विशेषधिकार हनन,प्रश्नकाल,स्थगन,ध्यानाकर्षण जैसे संसदीय उपकरणों का प्रयोग विधायक और विधानसभा के आभूषण की तरह थे।बजट सत्र दो चरणों मे और अन्य सत्र औसतन 20 से 25 बैठकों तक चलते थे लेकिन आज सत्रो

में औसतन सात बैठक भी नही हो रही है।और बैठकें जो हो रही है वह रस्मी होकर रह गई है।संसदीय लोकतंत्र के लिये यह बेहद खतरनाक ट्रेंड है जिसके लिये सभी दल जिम्मेदार है।

(लेखक भारतीय शासन और राजनीति के अंशकालिक शिक्षक है)

Updated : 5 Jan 2020 1:09 PM GMT
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