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अभिव्यक्ति या देशद्रोह !

विचारों की आजादी के नाम पर फैलाया जा रहा है भ्रम

अभिव्यक्ति या देशद्रोह !
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- राकेश सैन

जे.एन.यू. के शरजील इमाम की वीडियो में भाषण सुन कर आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि दिल्ली के शाहीन बाग में जो हो रहा है उसके बाद हैरान होने के लिए कुछ बचा भी नहीं। एक वीडियो में शरजील ने कहा कि हमारे पास 5 लाख लोग हों तो हम उत्तर-पूर्व को भारत से काट देंगे, स्थायी तौर पर नहीं तो महीने दो महीने के लिए। रास्तों और रेल मार्गों पर मवाद (बाधाएं) फैला दो, असम और इण्डिया कट कर अलग हो जाएं तभी ये लोग हमारी बात सुनेंगे और हम यह कर सकते हैं, क्योंकि पूर्वोत्तर और भारत को जोडऩे वाले गलियारे (चिकन नेक) में मुसलमानों की बड़ी आबादी है। पुलिस ने शरजील को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया। इस गिरफ्तारी के बाद वह लोग भी जाग उठे हैं जो शरजील के बयानों को अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के दायरे में मानते हैं। शरजील के बहाने देश में एक बार फिर वैचारिक टकराव पैदा हो गया क्योंकि बहुत लोग शरजील की इस हरकत को देशद्रोह बता रहे हैं। इस मौके पर आवश्यकता महसूस होने लगी है कि देशद्रोह व अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अन्तर तो स्पष्ट हो।

शरजील के भाषण को विचारों की स्वतन्त्रता मानने वालों का तर्क है कि 58 साल पहले तमिलनाडु के बड़े नेता सीएन अन्नादुरै ने राज्यसभा में अपने भाषण के दौरान अलग द्रविड़स्तान बनाने की मांग की थी, परन्तु संसद ने उनकी बातों को गम्भीरता से नहीं लिया और हंसी में टाल दिया। साल 1995 में सर्वोच्च न्यायालय ने बलवन्त सिंह मामले में खालिस्तानी नारों को यह कहते हुए देशद्रोह नहीं माना कि जब तक कोई देश के खिलाफ गतिविधियों में शामिल नहीं होता, केवल बोलने भर से वह देशद्रोही नहीं हो जाता। 1962 में न्यायालय ने केदारनाथ बनाम बिहार सरकार के एक मामले में सरकार के उस निर्णय को बहाल रखा जिसमें सन्विधान की धारा 124-अ को असंवैधानिक माना था। बुद्धिजीवी कई लोकतान्त्रिक देशों का उदाहरण देते हुए दावा करते हैं कि एक सफल गणतन्त्र में बोलने की स्वतन्त्रता को बाधित नहीं किया जाना चाहिए।

लोकतन्त्र की सफलता के लिए वैचारिक टकरावों का सदैव सम्मान है क्योंकि इसी से विषय से जुड़ी सच्चाई सामने आती है। शरजील की हरकत को देशद्रोह के आरोपों से खारिज भी नहीं किया जा सकता। भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (1) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता दी गई है। इसके तहत कोई भी व्यक्ति न सिर्फ विचारों का प्रचार-प्रसार कर सकता, बल्कि किसी भी तरह की सूचना का आदान-प्रदान करने का अधिकार रखता है परन्तु, यह अधिकार सार्वभौमिक नहीं है। इस पर समय-समय पर युक्तियुक्त निर्बंधन लगाए जा सकते हैं। कोई भी अधिकार कर्तव्य से मुक्त नहीं और न ही स्वच्छन्द। देश की एकता-अखण्डता की रक्षा, प्रभुसत्ता का सम्मान, साम्प्रदायिक सौहार्द, विधि का शासन स्थापित करने में सरकार का सहयोग हर नागरिक का संवैधानिक दायित्व भी है। शरजील के कथित भाषण में देश की एकता-अखण्डता को सीधे-सीधे चुनौती मिलती दिखती है और एक वर्ग विशेष के लोगों को भटकाने का भी प्रयास हुआ है।

चिकन नेक सामरिक रूप से पूर्वोत्तर भारत का महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह इस इलाके को भारत से एक गलियारा जोड़ता है, जिसको सिलिगुड़ी गलियारा या चिकन नेक गलियारा कहा जाता है। इसकी लम्बाई 60 और चौड़ाई सिर्फ 22 किलोमीटर। विभाजन के बाद 1947 में सिलिगुड़ी गलियारा बना था। 1975 में सिक्किम का भारत में विलय हुआ। उससे पहले इस गलियारे के उत्तर में सिक्किम की रियासत थी। सिक्किम के विलय से इस गलियारे के उत्तरी हिस्से में भारत की रक्षात्मक स्थिति मजबूत हुई और चीन की चुम्बी घाटी के पश्चिमी किनारे में भारत का नियन्त्रण भी मजबूत हुआ। दुर्भाग्य से इस इलाके में एक वर्ग विशेष की जनसंख्या में बेतहाशा वृद्धि दर्ज हुई है जो स्वाभाविक न हो कर कोई षड्यन्त्र का हिस्सा हो सकती है। शरजील का चिकन नेक को लेकर दिया बयान कोई कपोलकल्पना या दिमागी फितूर नहीं बल्कि भविष्य की आशंका की आहट अधिक नजर आने लगी है। आखिर देश तोडऩे की बातें अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता कैसे मानी जा सकती हैं?

2016 में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में लगे देश बांटने के नारों की सुनवाई कर रही दिल्ली की अदालत ने इस मानसिकता को वायरस बताया था और शरजील को कन्हैया वाली मानसिकता की अगली पीढ़ी कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं मानी जानी चाहिए। उस समय तो जेएनयू में केवल देश के टुकड़े-टुकड़े करने के नारे लगे और अब तो इसकी कार्ययोजना पेश की जाने लगी है। विचारों की आजादी के नाम पर कब तक देश को यूं ही मौन रह कर बंटते हुए देखते रह सकते हैं? इस तरह के नारे अगर अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता हैं तो फिर वह कौन सी ताकत है जो कन्हैया एण्ड पार्टी के देशद्रोह के केस वाली फाइलों पर भुजंग कुण्डली मारे बैठी है। आखिर न्यायालय को यह निर्णय क्यों नहीं करने दिया जा रहा कि वह फैसला करे कि जेएनयू के नारे राष्ट्रद्रोह था या कुछ और। दिल्ली के मुख्यमन्त्री विगत तीन सालों से देशद्रोह के इन विवादों पर पुलिस को अदालत में चार्जशीट दाखिल करने की अनुमति नहीं दे रहे और आरोपियों को निर्दोष बताते आ रहे हैं। कौन दोषी है और कौन निर्दोष क्या इसका निर्णय अदालत को नहीं करने दिया जाना चाहिए। आखिर अदालत ही तो तय करेगी कि देशद्रोह व अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता में अन्तर क्या है? क्या कन्हैया एण्ड पार्टी के केसों की फाइलें रोकने से यह सन्देश नहीं जाता कि कोई और माने या न माने परन्तु दिल्ली के मुख्यमंत्री तो इनको कसूरवार मान कर ही चल रहे हैं। देश की राजनीति अन्धविरोध के चलते इतनी लज्जाहीन हो चुकी है कि वह कब क्या कर जाए कोई कुछ कह नहीं सकता। कन्हैया के केस में राजनीति न होती और अदालत व दिल्ली पुलिस को अपना काम करने दिया जाता तो शायद आज शरजील इमाम जैसा व्यक्ति सरेआम देश तोडऩे की हिमाकत न कर पाता। लोकतन्त्र एक निरन्तर प्रवाहमान विचारधारा है परन्तु संकीर्ण राजनीति उस सरिता में बाधा खड़ी कर उसे गन्दला कर देती है। कन्हैया व शरजील के बहाने आज देश में फिर अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की सीमा व देशद्रोह के बीच अन्तर परिभाषित करने का अवसर आया है, अच्छा होगा कि लोकतन्त्र के मार्ग में बाधा न खड़ी की जाए। कानूनी कार्रवाइयों के जरिए देशवासियों को देशद्रोह या अभिव्यक्ति में अंतर तो पता चले।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं।)

Updated : 2 Feb 2020 11:25 AM GMT
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