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समय के साथ बदला मेले का स्वरूप

राज चड्ढा

समय के साथ बदला मेले का स्वरूप
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अंचल का एकत्रीकरण स्थल ग्वालियर मेला

कहते हैं कि ग्वालियर मेला के संस्थापक स्वर्गीय माधव राव सिंधिया प्रथम मेले का जायज़ा लेने घोड़े पर सवार हो कर जाया करते थे। मेले में आने वाले व्यापारियों से प्रत्यक्ष चर्चा कर उनके नफ़ा नुकसान की जानकारी लेते थे। ऐसे अनेक प्रसंग आये जब उन्होंने निराश दुकानदारों का सामान स्वयं खरीद लिया और दूसरे दिन महल आ कर अपना पेमेंट ले जाने को कहा। इस प्रकार पशु मेला से 1904 में प्रारम्भ हुए इस मेला को उत्तरोत्तर प्रगति के सोपान चढऩे का अवसर दिया।

लगभग 104 एकड़ में फैले इस मेले ने उत्तर भारत की प्रमुख नुमाइश से होते-होते ग्वालियर व्यापार मेला प्राधिकरण के सफऱ तय किया। बैलों के घुंघरू से लेकर रेमंड के सूट तक की उपलब्धता के लिए इस मेला की प्रतीक्षा करने वालों की रुचि तब और बढ़ गयी जब राज्य शासन ने विक्रय कर में 50 प्रतिशत की छूट की घोषणा कर दी। मेले के विकास को मानो पंख लग गए। देश भर के दुकानदारों के लिए विशेष आकर्षक हो गया ग्वालियर का मेला। शायद ही कोई राज्य बचा हो जिसके दुकानदारों ने मेले में अपनी उपस्थिति दजऱ् न कराई हो। मेले के आकार के साथ आयाम में भी अपूर्व वृद्धि हुई।

अब यहां सिफऱ् ऊंट की जीन ही नहीं मिलती बजाज के स्कूटर से लेकर मारुति कार तक कि बिक्री का यह प्रमुख केंद्र हो गया। वाहनों की खरीद के लिए भयंकर शीत में लोग रात-रात भर लाइन में लगते और सुबह अपनी बुकिंग मिलने पर झूम उठते। मेले के व्यापार में आशातीत वृद्धि हुई साथ ही राज्य सरकार के राजस्व में भी। दूरस्थ प्रान्तों के दुकानदारों और ग्राहकों के आने से ग्वालियर उस काल में नुमाइश वाला ग्वालियर के नाम से भी पुकारा जाने लगा।

ग्वालियर की बेटियां जो अन्य नगरों और प्रान्तों में ब्याह कर गयी होतीं, उनके लिए मेले के दिन मायके आने के दिन हो जाते। साल भर इन दिनों का इंतज़ार रहता। नए-नए कपड़े सिलवाये जाते खास कर मेले के लिए। नए सिले गर्म कपड़ों को मेले में पहन कर जाना या मेले से नए सूट, कोट, शालें खरीदना अनिवार्य नियम सा समझा जाने लगा। कश्मीर से आने वाले चचा का साल भर इंतज़ार रहता। गर्म लोई, दुशाले, दस्ताने मेले से ही लेना हर दिल की आवाज़ होती।

हर कोई अपनी सामथ्र्य से सज संवर कर मेला आता और अपनी हैसियत से कुछ न कुछ जरूर खरीदता। फिर चाहे वो मूंगफली हो, पिंड खज़ूर या पिस्ता बादाम। कुछ वस्तुओं को खरीदना तो जैसे अपरिहार्य था। जैसे पानी वाली गेंद। इस पर उम्र का कोई बंधन न था। बच्चों से लेकर बूढ़ों तक हर तीसरे हाथ में यह झूलती नजऱ आती। सीधे चाचा, टेढ़े मामा की दुकान से हॉकी, बैडमिंटन, टेबल टेनिस या क्रिकेट का सामान खरीदना हर बच्चे की जि़द होती, जो पूरी करना ही पड़ती थी।

शासन के प्रत्येक विभाग की प्रदर्शनियां पूरी सजधज के साथ लगती थीं। उन्हें देख कर जो अपना मनोरंजन करते, दूसरे दिन मित्रों में वहां से प्राप्त ज्ञान की धाक भी अवश्य जमाते। पुलिस, नगर निगम, जल संसाधन विभाग और स्वास्थ्य विभाग की प्रदर्शनियां आकर्षण का मुख्य केंद्र होतीं। एक ज़माना था जब ग्वालियर अंचल दस्यु प्रभावित था। तब डाकुओं के चित्र और पुलिस के हथियार देखने के लिए पुलिस प्रदर्शनी के बाहर लम्बी लम्बी लाइनें लगतीं। ग्रामीण क्षेत्रों से आये दर्शक लंबे इंतजार के बाद भी इस प्रदर्शनी को देखने और फिर गांव में जा कर उसका अतिरंजित वर्णन करने का लोभ संवरण न कर पाते।

मेले का एक और आकर्षण था जिसकी चमक आज भी बरकरार है, वह था झूला सेक्टर। इसकी चमक में दिनों दिन वृद्धि होती रही। हर बार कोई नया झूला आ जाता और जिज्ञासाओं की नई उमंग पैदा कर देता।

फिर मौत का कुआं, लल्लू के पेट में लल्लू, जादूगर सरकार और दो मुंह वाली लड़की तो पिछली आधी सदी से अंगद की तरह अपना पैर जमाये हुए है। इस बाजार में लाउडस्पीकरों के शोर के कारण कुछ सैलानी इसे हाय हाय बाजार के रूप में भी सम्बोधित करते। शास्त्रीय गायन से लेकर पॉप म्यूजि़क और भरतनाट्यम से लेकर लोक नृत्य तक की स्मृति आज भी समेटे है ग्वालियर मेला। विश्व स्तरीय मूर्ति एवं चित्रकला वर्कशॉप में पधारे राष्ट्रीय स्तर के कलाकार अपनी अमूल्य धरोहरों से मेला के भंडार को समृद्ध कर के गए हैं।

अतिथियों के रूप में अनेक जन नायक और राजनेताओं ने कभी दर्शक और कभी उद्घाटनकर्ता के रूप में यहां अपनी उपस्थिति दजऱ् कराई है। अनेक मंत्री, मुख्यमंत्री और राज्यपालों की लंबी श्रंृखला है जिन्होंने इस मेले में पधार कर अपनी स्मृतियों में इसे संजोया है। लेकिन 2004-2005 के मेला के समापन हेतु इसके स्वर्ण जयंती उत्सव में पधारे पूर्व प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने तो मेला से जुड़ी अपनी स्मृतियों का खज़ाना ही। खोल दिया। बाल्यकाल में कैसे इस नुमाइश का आकर्षण उन्हें पैयां पैयां यहां खींच लाता था इसका विस्तारपूर्वक किन्तु मनोरंजक चित्रण श्री अटल जी ने किया था। उन्होंने मेला के शताब्दी वर्ष में की गयी उपलब्धियों की भूरि-भूरि प्रशंसा की जो कि मेला के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य है। मेला के इस स्वर्णिम काल का वर्णन करते समय हम वर्तमान में इसके खोते आकर्षण से चिंतित हुए बिना नहीं रह सकते। कहना न होगा कि मेला की चमक दिन ब दिन फीकी होती जा रही है।

कभी जो देश के मेलों का धु्रव तारा था, आज वह एक रस्म अदायगी भर बन कर रह गया।इसके अनेक कारण हैं जिनका उल्लेख करना असामयिक न होगा। बाजार के आधुनिकीकरण, मॉल कल्चर, करों में छूट की समाप्ति और ऑनलाइन मार्केट के बढ़ते बाजार ने ग्वालियर मेला को उसकी अद्भुत और अपूर्व छवि से वंचित कर दिया है। जब हर वस्तु हर समय हर स्थान पर सहज ही उपलब्ध हो, तब कोई साल भर मेला का इंतजार क्यों करेगा। फिर हमारे स्थानीय नेतृत्व ने विगत 10 वर्षों तक लगातार प्राधिकरण को जन प्रतिनिधियों के नेतृत्व से वंचित कर इसे निष्प्रभावी बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

ग्वालियर मेला को यदि जीवित रखना है तो शासन को इसके प्रति नई सोच और नए उत्साह का परिचय देना होगा। हमें इसके स्वरूप में मौलिक परिवर्तन करना होगा। हमें तय करना होगा कि हम इसे या तो दिल्ली के प्रगति मैदान की तरह चलाएं जहां साल भर विश्व के नए उत्पादों को इंट्रोड्यूस किया जाता है, या फिर सूरजकुंड ( हरियाणा) मेले की भांति बनाएं जहां भारत के कोने-कोने से शिल्पी आकर अपने नित नूतन शिल्प से हमें आश्चर्य चकित कर देते हैं। उनकी झोपड़ी में बने उत्पाद आज बड़े-बड़े बंगलों ,कार्यालयों और दूतावासों की शोभा बढ़ा रहे हैं।

(लेखक ग्वालियर व्यापार मेला प्राधिकरण के पूर्व अध्यक्ष एवं स्वतंत्र लेखक हैं।)

Updated : 19 Jan 2020 9:56 AM GMT
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