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अटल जी और राजमाता को सुनने उमड़ पड़ती थी भीड़

अटल जी और राजमाता को सुनने उमड़ पड़ती थी भीड़
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झण्डे-बैनरों से पट जाता था शहर, नारों की सुनाई देती थी गूंज

ग्वालियर/प्रशांत शर्माअब चुनावों मेें पहले जैसी बात नहीं रही। चार दशक पहले होने वाले चुनाव किसी उत्सव से कम नहीं होते थे। तब होने वाली चुनावी सभाओं में लोग अटल बिहारी वाजपेयी और राजमाता विजयाराजे सिंधिया के भाषण सुनने के लिए सभा स्थल पर घण्टों इंतजार करते थे। उस समय न तो चुनाव आयोग इतना सख्त था और न ही राजनीतिक दलों को आचार संहिता का इतना भय रहता था।

लोग बिना किसी भय के घरों व दुकानों पर पार्टी के झण्डे-बैनर लगाते थे। चुनाव के दौरान निकलने वाली रैलियों में हजारों की भीड़ नारे लगाती हुई चलती थी, लेकिन अब यह सब देखने को नहीं मिलता। यह कहना है भाजपा के वरिष्ठ नेता, पूर्व मंत्री और राजमाता सिंधिया के भाई जगत मामा ध्यानेन्द्र सिंह का। बचपन से ही महल के आंगन में राजनीतिक गतिविधियांं देखने बाले मामा जी बताते हैं कि पहले चुनावों में उत्सव जैसा माहौल होता था। परिवार के बड़े बुजुर्ग जिस पार्टी का समर्थन करते थे पूरा परिवार उसका अनुशरण करता था। चुनाव के दौरान घरों पर झण्डे लगाने की होड़ होती थी। लाउडस्पीकरों का शोरगुुल ही बता देता था कि चुनावी माहौल है। झण्डे-बैनर लगाने के लिए पार्टी के कार्यकर्ता दिन-रात काम करते थे। तब चुनाव के दौरान लड़ाई-झगड़े भी नहीं होते थे। चुनावी सभाओं में खम्बों पर दूर-दूर तक लाउडस्पीकर लगाने पर भी रोक नहीं थी। लोग इनकी आवाज से नेताओं के भाषण दुकानों पर बैठकर ही सुन लेते थे, लेकिन अब चुनाव पूरी तरह से व्यावसायिक होता जा रहा है।

अब कार्यकर्ताओं को जुटाने के लिए करना पड़ती हैं बैठकें


पहले नेताओं को सुनने के लिए भीड़ अपने आप एकत्रित होती थी, लेकिन अब तो नेताओं की सभा में भीड़ जुटाने के लिए हर वार्ड को एक लक्ष्य दिया जाता है। पहले ऐसा नहीं होता था। अब कार्यकर्ताओं की भीड़ एकत्रित करने के लिए पहले से ही बैठकें करना पड़ती हैं।

बिल्ला लूटने के लिए मचती थी होड़ : पूर्व मंत्री श्री सिंह बताते हैं कि करीब चार दशक पूर्व चुनाव प्रचार के लिए पहले स्वतंत्र पार्टी, जनसंघ, जनता पार्टी व कांग्रेस ही थी। इनके बिल्ले लेने के लिए बच्चों और युवाओं में होड़ रहती थी। सभी में बिल्ला लेने के लिए खासा चाव रहता था। वे उन्हें अपने कपड़ों पर लगाकर घूमना शान समझते थे।

पर्चे लेकर लोगों को बताते थे चुनाव चिन्ह

पूर्व मंत्री श्री सिंह बताते हैं कि हम लोग खुद चुनाव में पर्चे लेकर जाते थे। उस दौरान हर घर में लोगों को पर्चे पर चुनाव चिन्ह के बारे में बताते थे। पुराने समय में चुनाव में प्रचार-प्रसार पर नाम मात्र का खर्चा हुआ करता था। सोशल मीडिया, प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया आदि के बारे में किसी ने सोचा भी नहीं था।

टीएन शेषन ने बताया था क्या होता है चुनाव आयोग

तीन दशक पहले होने वाले चुनाव के समय चुनाव आयोग को नेता व अधिकारी अधिक महत्व नहीं देते थे। वर्ष 1990 में जब टी.एन. शेषन मुख्य चुनाव आयुक्त बने तो उन्होंने देश को, नेताओं को और अधिकारियों को यह बता दिया था कि चुनाव आयोग क्या होता है और आचार संहिता का पालन कैसे कराया जात है। श्री शेषन ही मतदाता पहचान पत्र के जनक कहे जाएं तो गलत नहीं होगा। उसी समय से मतदाता पहचान पत्र भी चुनाव के समय लागू हो गया था। तब से लेकर आज तक चुनाव आयोग श्री शेषन के बताए रास्ते पर चल रहा है और देश में चुनाव के समय प्रशासन पूरी तरह से अपने अधिकारों का प्रयोग कर चुनाव कराने का काम कर रहा है।

अटल जी की सभा में उमड़ती थी सबसे ज्यादा भीड़

चर्चा के दौरान पूर्व मंत्री श्री सिंह ने बताया कि लोगों को जब पता चलता था कि भारत रत्न पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सभा होने वाली है तो लोग तीन-तीन घण्टे पहले ही सभा स्थल पर पहुंच जाते थे। अटल जी को सुनने के लिए जो भीड़ उमड़ती थी। उसका कारण था उनका शब्द ज्ञान और लच्छेदार भाषण। अटल जी, सुंदरलाल पटवा, राजमाता विजयाराजे सिंधिया से श्री सिंह सबसे ज्यादा प्रभावित हुए।

अब इसलिए बचते हैं लोग

पूर्व मंत्री श्री सिंह बताते हैं कि पहले शहर व गांव झण्डे, बैनर, पोस्टर और दीवारें नारों से पुती नजर आती थीं। अब सोशल मीडिया के जरिये सभी सभाएं लाइव दिखती हैं। आचार संहिता ने भी काफी हद तक इस पर नियंत्रण कर दिया है, इसलिए नेता न ज्यादा झण्डे लगा सकते हैं न ही सार्वजनिक स्थानों पर प्रचार सामग्री। अब नुक्कड़ सभा व बड़ी सभा के बजाय प्रत्याशी सीधे स्थानीय लोगों को साधते हैं।

Updated : 17 March 2019 2:05 PM GMT
author-thhumb

Naveen Savita

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