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सीबीआई विवाद: आलोक वर्मा को जबरन छुट्टी पर भेजने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रखा

सीबीआई विवाद: आलोक वर्मा को जबरन छुट्टी पर भेजने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रखा
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नई दिल्ली। सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा को जबरन छुट्टी पर भेजे जाने के खिलाफ दायर याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सभी पक्षों की दलीलें सुनने के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया है।

सुनवाई के दौरान कोर्ट ने केंद्र सरकार से पूछा कि दो आला अधिकारियों का झगड़ा रातों रात सामने नहीं आया। ऐसा जुलाई से चल रहा था। उन्हें आधिकारिक काम से हटाने से पहले चयन समिति से बात करने में क्या दिक्कत थी? 23 अक्टूबर को अचानक फैसला क्यों लिया गया?

जस्टिस संजय किशन कौल ने सीवीसी के लिए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से पूछा कि अगर हम ये मान लें कि उस समय की परिस्थितियों के अनुसार सरकार की कार्रवाई जरूरी थी तो आपने चयन समिति से संपर्क क्यों नहीं किया? तब तुषार मेहता ने कहा कि कानूनन इसकी जरूरत ही नहीं थी। तुषार मेहता ने कहा कि अपनी जांच और उस समय के हालात के चलते हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि यह अति गंभीर स्थिति आ गयी है, ऐसे में आलोक वर्मा को और अधिक काम करने नहीं दिया जा सकता। इसलिए हमने उन्हें छुट्टी पर भेजना ही उचित समझा।

चीफ जस्टिस ने कहा कि आलोक वर्मा के वकील नरीमन का कहना है कि सीबीआई निदेशक को दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टाबलिशमेंट एक्ट में दिए गए प्रावधानों के तहत तबादला या पद से हटाने की कार्रवाई दो साल से पहले नहीं कि जा सकती। फिर प्रधानमंत्री वाले पैनल में ये मसला सीवीसी ने क्यों नहीं रखा?

चीफ जस्टिस ने कहा कि दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टाबलिशमेंट एक्ट की धारा 4 (1) सीवीसी को सीबीआई के काम को कंट्रोल करने का अधिकार देता है परंतु सीबीआई पर सीवीसी की निगरानी भ्रष्टाचार के मामलों में नहीं है। क्या सीवीसी एक्ट का सेक्शन 8 दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टाबलिशमेंट एक्ट के सेक्शन 4 से ऊपर है? तब तुषार मेहता ने कहा कि मान लीजिए, रिश्वत लेने वाले एक अधिकारी को कैमरे पर पकड़ा जाता है और उसे तत्काल निलंबित करने की जरूरत होती है, तो क्या उस अधिकारी को सरकार द्वारा बनाए रखा जाता है। उन्होंने कहा कि दो वरिष्ठ अधिकारी एक दूसरे के खिलाफ काम कर रहे थे। दोनों एक दूसरे के खिलाफ न केवल जांच कर रहे थे बल्कि एक दूसरे पर छापेमारी भी कर रहे थे और केस दर्ज कर दिए थे। ये सबूतों को प्रभावित कर सकते थे। ये हैरान कर देने वाले हालात थे। तुुषार मेहता ने कहा कि अगर सीवीसी कार्रवाई नहीं करती तो अपना काम न करने पर सरकार और न्यायपालिका द्वारा उनकी जवाबदेही तय की जाती। बाद में उन्हें काम न करने का जिम्मेदार माना जाता।

तुषार मेहता ने कहा कि हमने यह अंतरिम आदेश सीबीआई जैसी विश्वसनीय संस्था को बचाने के लिए जारी किया है। इसके अलावा हमने ऐसा कुछ नहीं किया है कि जिसे यह कहा जा सके कि वो काम हमने अपने दायरे से बाहर जाकर किया। मेहता ने कहा कि आलोक वर्मा को उनके काम से हटाना स्थाई नहीं है। सीबीआई डायरेक्टर आलोक वर्मा और स्पेशल डायरेक्टर राकेश अस्थाना को कार्यालय से तब तक दूर रहने के लिए कहा गया है, जब तक सीवीसी या सरकार इस मामले में अंतिम फैसला न ले ले।

मेहता ने कहा कि हम ऐसे नहीं हैं कि कुछ कार्रवाई करें और बाद में उस कार्रवाई को सही ठहराने की कोशिश करें। तब चीफ जस्टिस ने कहा कि ये कार्रवाई पूरी तरह से सही क्यों नहीं हो सकती थी? चयन समिति से सलाह लेने में समस्या क्या थी? चयन समिति से सलाह न लेने से यह कहीं अधिक बेहतर होता कि आप चयन समिति से सलाह ले लेते। तब मेहता ने कहा सीबीआई में ही वर्मा की टीम अस्थाना की टीम को रेड कर रही थी और अस्थाना की टीम वर्मा को रेड कर रही थी। सीवीसी की संसद और राष्ट्रपति के प्रति जवाबदेही है और इसलिए अगर सीवीसी कुछ नहीं करती तो यह सीवीसी की छवि गलत बनती ।

तुषार मेहता के बाद राकेश अस्थाना की ओर से वरिष्ठ वकील मुकुल रोहतगी को कोर्ट ने कोर्ट के अधिकारी के रूप में बोलने की अनुमति दी। रोहतगी ने कानून को लेकर कुछ दलीलें रखीं। इसके बाद जैसे ही उन्होंने केस के तथ्यों पर बोलना शुरू किया तो चीफ जस्टिस ने रोका। चीफ जस्टिस ने कहा कि अब कोर्ट के अधिकारी नहीं राकेश अस्थाना बोल रहे हैं।

उसके बाद आलोक वर्मा के वकील फाली एस नरीमन ने अपनी दलीलें दोबारा शुरू की। उन्होंने कहा कि ये ऐसी पोस्ट नहीं है जो केवल आपके विजिटिंग कार्ड पर लिखी हो। निदेशक को छुट्टी पर भेजने के बाद सरकार के लिए यह कहना काफी नहीं है कि आलोक वर्मा अभी भी निदेशक हैं। तब चीफ जस्टिस ने पूछा कि क्या यहां कोई कार्यकारी सीबीआई निदेशक नहीं हो सकता? तब नरीमन ने कहा कि नहीं। चीफ जस्टिस ने पूछा कि अगर कोई विशेष परिस्थिति आ जाए तो क्या कोर्ट सीबीआई निदेशक नियुक्त कर सकता है? तब नरीमन ने कहा कि हां, अगर सुप्रीम कोर्ट अपनी असीम शक्तियों का प्रयोग करे तो। नरीमन ने कहा कि आलोक वर्मा कहीं पर जाएं और अपना विजिटिंग कार्ड (जिस पर सीबीआई निदेशक लिखा है) देकर कहें कि मैं सीबीआई निदेशक हूं परंतु उनके पास कोई अधिकार या पावर नहीं है। मैं ऐसा सीबीआई निदेशक अब हूं।

नरीमन के बाद कॉमन कॉज की ओर से दुष्यंत दवे ने कहा कि सीवीसी को भ्रष्टाचार के मामलों को लेकर केवल निगरानी का अधिकार है। सीवीसी के पास सीबीआई निदेशक बदलने का अधिकार नहीं है। दवे ने कहा कि आलोक वर्मा को जिस तरह से हटाया गया है, उससे सरकार उस समिति पर सवाल उठा रही है, जिसका हिस्सा सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस भी हैं। तब चीफ जस्टिस ने दवे से पूछा कि क्या आप लोगों की दलील का मतलब ये है कि सीबीआई निदेशक को छुआ ही नहीं जा सकता? किसी तरह की अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं की जा सकती? अगर ऐसा है तो संसद ने कानून बनाते वक्त ऐसा स्पष्ट क्यों नहीं लिखा?

दवे ने कहा कि सीवीसी ने अस्थाना की नियुक्ति के समय उन पर लगे आरोपों को अनदेखा किया। सीवीसी का कहना था कि जब तक आरोप साबित न हो हम कार्रवाई नहीं करेंगे परंतु वर्मा के केस में सीवीसी ने तेजी दिखाई। आरोपों के साबित होने का इंतजार भी नहीं किया। दवे ने कहा कि सीवीसी यह नहीं कर सकती कि उनका रवैया अस्थाना पर कार्रवाई के समय अलग हो और वर्मा के समय पर अलग हो।

दवे ने टीपी सेन कुमार केस का हवाला देते हुए कहा कि कोर्ट ने अपने उक्त फैसले से डीजीपी के कार्यकाल को फिक्स करने की व्यवस्था दी थी।

दवे के बाद मल्लिकार्जुन खड़गे की तरफ से कपिल सिब्बल ने दलीलें शुरू करते हुए कहा कि सीवीसी एक्ट के मूल में यह है कि उसे केवल और केवल भ्रष्टाचार के मामलों को लेकर सीबीआई की निगरानी का अधिकार है। सिब्बल ने कहा कि सीबीआई आरुषि जैसे अन्य केसों की भी जांच करती है। तब चीफ जस्टिस ने कहा कि सीबीआई उन केसों में भी जांच करती है, जिनमें कोर्ट जनहित याचिकाओं पर सुनवाई के बाद जांच करने का आदेश देती है। सिब्बल ने कहा कि यहां तबादले का सीधा अर्थ यह है कि सीबीआई निदेशक की मंशा पर आपको संदेह है। इसीलिए विधायिका ने कानून में प्रावधान किया है कि बिना प्रधानमंत्री वाले पैनल की मंजूरी के यह संभव नहीं हो सकता। चयन समिति की मंजूरी जरूरी है।

सिब्बल के बाद राजीव धवन ने ए के बस्सी की ओर से दलीलें पेश कीं।

Updated : 12 Dec 2018 4:15 PM GMT
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Swadesh Digital

स्वदेश वेब डेस्क www.swadeshnews.in


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