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राहुल को मुख्य प्रतिद्वंदी समझने की भूल

विपक्षी दलों में कांग्रेस भले ही सबसे बड़ी पार्टी हो, लेकिन उसके सहयोगीर दल प्रधानमंत्री का पद थाली में सजाकर राहुल को परोसने की बात आसानी से स्वीकार नहीं कर सकते।

राहुल को मुख्य प्रतिद्वंदी समझने की भूल
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लगता है कि बीजेपी गंभीरतापूर्वक मानती है कि विपक्ष की ओरधानमंत्री पद की दावेदारी में राहुल गांधी सबसे आगे होंगे। चार साल से सरकार में होने की वजह से 2019 में बीजेपी को एंटी इंकंबेन्सी फैक्टर से जूझना होगा। इसके बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस तरह लोगों को अपने भाषणों से प्रभावित कर लेते हैं, उसे देखते हुए पार्टी को उम्मीद है कि चुनाव के निर्णायक दौर में वे पासा पलट देंगे। ये तो पार्टी की सोच है, लेकिन राजनीति के जानकारों का मानना है कि 2019 में हंग पार्लियामेंट का दौर एक बार फिर शुरू हो सकता है।

ऐसे में विपक्षी दलों में कांग्रेस भले ही सबसे बड़ी पार्टी हो, लेकिन उसके सहयोगीर दल प्रधानमंत्री का पद थाली में सजाकर राहुल को परोसने की बात आसानी से स्वीकार नहीं कर सकते। लेकिन बीजेपी अभी भी राहुल को ही विपक्ष की ओर से अपना प्रतिद्वंद्वी मान रही है और उन्हें टार्गेट करने में लगी है, लेकिन विपक्ष की रणनीति कुछ और ही है। हाल में ममता बनर्जी, शरद पवार आदि विपक्षी नेताओं के जो बयान आये हैं, उनका सार यही है कि राहुल को अपना नेता स्वीकार करना उन्हें मंजूर नहीं होने वाला है, अलबत्ता सोनिया गांधी खुद विपक्ष की अगुवाई करें तो उन्हें कोई आपत्ति नही होगी। पर यह नही भूलना चाहिए कि सोनिया गांधी शुरू में ही अपने विदेशी मूल के विवाद की वजह से खुद को प्रधानमंत्री पद की होड़ से अलग कर चुकी हैं। ऐसे में उनके नाम पर सहमति बनाने की कोशिश की भी जाये तो उसका कोई अर्थ नही है।

लेकिन फिलहाल बीजेपी किसी भी तरह कांग्रेस और सोनिया-राहुल के झंडे को गिराने के एकसूत्री कार्यक्रम में लगी हुई है। इसीलिए वर्तमान लोकसभा के गठन के पहले दिन से ही पार्टी अमेठी और रायबरेली के कांग्रेसी गढ़ को भेदने में लगी हुई है। स्मृति ईरानी अमेठी से चुनाव हारने के बावजूद यहां अपनी सक्रियता बरकरार रखे हुए हैं, जबकि यह उनका गृह क्षेत्र भी नहीं है। उन्होंने अमेठी में कांग्रेस के कई गढ़ तोड़कर राहुल गांधी को रक्षात्मक रुख अपनाने के लिए मजबूर करने में भी कोई कसर नही छोड़ी। सच्चाई तो ये है कि अमेठी में बीजेपी द्वारा राहुल गांधी की इस कदर घेराबंदी की गई है कि वे इस क्षेत्र को अपनी बहन प्रियंका के सहयोग के बावजूद संभाल नही पा रहे।

इसी कड़ी में अमेठी में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की किलेबंदी भी उल्लेखनीय है। 2014 के लोकसभा चुनाव में स्मृति ईरानी के अभियान की बागडोर बीजेपी-संघ के समन्वयक डा. कृष्णगोपाल ने संभाली थी। उनके 23 दिन के प्रचार अभियान की बदौलत ही स्मृति ईरानी तीन लाख से अधिक वोट बटोरने में सफल हो गई थीं। चुनाव हारने के बाद भी संघ ने अमेठी में अपनी पकड़ ढीली नही की है। दूसरी ओर कांग्रेस के नाम पर यहां चाटुकारों की और उन लोगों की टीम हावी है, जो चाहते हैं कि कोई और राहुल, प्रियंका और सोनिया के नजदीक न फटक पाये। सत्ता के दलाल की तरह पार्टी में पहचाने जाने वाले इन लोगों की वजह से आम जनता में सोनिया और राहुल के प्रति पहले जो लगाव रहता था, उसमें बहुत कमी आई है।

उधर यूपी में मायावती और अखिलेश यादव अजीत सिंह को तो गठबंधन में शामिल करने के लिए तैयार हैं पर कांग्रेस को नहीं। उनका मानना है कि कांग्रेस समर्थकों या तो अपनी पार्टी को वोट देंगे या फिर बीजेपी को वोट देंगे। कांग्रेस उनके पक्ष में अपना वोट बैंक ट्रांसफर नही करा सकती। उल्टे अगर कांग्रेस का उम्मीदवार उनके सामने मैदान में रहेगा तो बीजेपी के वोट बैंक में सेंध लगाकर उनकी मदद करेगा। इस सोच के बावजूद दोनों पार्टियां अमेठी और रायबरेली में कांग्रेस के सामने उम्मीदवार न खड़ा करने की हामी भर चुकी हैं। जिससे कांग्रेस की बड़ी मदद होने जा रही है। इसलिए कांग्रेस बीजेपी की घेराबंदी के बावजूद निश्चिंत है।

दरअसल समाजवादी पार्टी और बीएसपी सोचती है कि अगर बीजेपी का झंड़ा गिराना है तो कांग्रेस का मनोबल बना रहना चाहिए। यह बहुत जरूरी है क्योंकि अधिकांश राज्यों में कांग्रेस ही बीजेपी को टक्कर देने वाली पार्टी है। दूसरे कांग्रेस से उनको खतरा इसलिए नहीं है क्योंकि वह चाहे कितना भी जोर लगा ले, फिलहाल अभी स्पष्ट बहुमत की दहलीज तक नहीं पहुंच पायेगी। इसलिए बीजेपी को अर्श से फर्श पर धकेलने का पहला लक्ष्य पूरा हो जाये तो गठबंधन में सभी को अपने लिए संभावनाओं का द्वार नजर आ रहा है। राहुल गांधी की जो सोच है, उसके मद्देनजर उन्हें खुद खिचड़ी सरकार का मुखिया बनना रास नहीं आ सकता। कर्नाटक के मामले में वे जाहिर कर चुके हैं कि नेतृत्व के लिए बहुत अड़ना उनके मिजाज में नहीं है। बीजेपी को सत्ता से बाहर कर दें इसी में उनको पूरी संतुष्टि मिल जायेगी।

जहां तक बीजेपी के कांग्रेस के प्रति दुराग्रह का सवाल है। इस मामले में उसकी सोच को ठीक नही कहा जा सकता। लोकतंत्र में सरकारें बदलती रहती हैं। अटल-आडवाणी युग में विकसित देशों की तरह राष्ट्रीय स्तर पर भारत में भी कमोबेश द्विदलीय प्रतिद्वंदिता की स्थिति उभर कर सामने आ चुकी थी। जिसे लेकर अटल-आडवाणी का रुख सकारात्मक था। पर मोदी की लाइन इसके विपरीत है। वे शायद सोचते हैं कि कांग्रेस को खत्म करके वे अपना शासन सुनिश्चित कर लेंगे। लेकिन दूसरा कार्यकाल दोहराने में ही उन्हें जिस तरह की चुनौती का सामना करना पड़ा रहा है, उससे उनको वास्तविकता का भान होना चाहिए। अति कांग्रेस विरोध के कारण उन्होंने क्षेत्रीय दलों को ताकत दे दी है। जिससे संयुक्त मोर्चा युग के राजनैतिक अराजकतावाद का जिन्न बोतल से निकलकर बाहर आता दिखाई देने लगा है।

(केपी सिंह, ये लेखक के अपने विचार हैं)

Updated : 22 July 2018 6:31 PM GMT
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Swadesh Digital

स्वदेश वेब डेस्क www.swadeshnews.in


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