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शर्म करो अजीम की मौत को सांप्रदायिक कहने वालों !

शर्म करो अजीम की मौत को सांप्रदायिक कहने वालों !
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दक्षिण दिल्ली के मालवीय नगर इलाके में एक मुहल्ला है बेगमपुर। यहाँ के एक मदरसे में बहुत से बच्चे रहते और पढ़ते हैं। ये अधिकतर हरियाणा के मेवात इलाके से संबंध रखते हैं। इस मदरसे से सटी हुई है एक झुग्गी-झोपड़ी बस्ती। इसमें करीब-करीब सभी वाल्मीकि समाज के परिवार रहते हैं। ये सबके सब बेहद निर्धन हैं। हादसा हुआ यह कि पिछले दिनों मदरसे और वाल्मीकि बस्ती के बच्चे खेल के मैदान में एक साथ ही खेल रहे थे कि बात ही बात में मारपीट हो गई। मारपीट के कारण एक आठ साल के मासूम अज़ीम नाम के एक बच्चे को गहरी चोट लग गई और उसकी मौत हो गई। यह दिल दहलाने वाला मामला था। एक छोटे से बच्चे ने कुछ अन्य बच्चों के झगड़ों में अकारण अपनी जान गंवा दी।

जाहिर है, इस घटना को जिसने भी सुना, उसके रोंगटे खड़े हो गए। वो सन्न रह गये एक अबोध बालक की मौत के कारण। पर जरा देखिए कि अजीम की मौत को तुरंत सांप्रदायिकता का चश्मा पहनकर देखने वाले भी सामने आ गए। वे बेशर्मी से अब कह रहे है कि पिछले एक साल में कम से कम 15 बार बेगमपुर मदरसे के बच्चों की पिटाई हुई है। मदरसे में शराब की बोतलें फेंकी गई, मस्जिद परिसर के अन्दर रामलीला का रावण बनाया गया और विरोध के बाद भी नहीं हटाया गया। ये सारे आरोप लगाने वाले न जाने अचानक कहां से प्रकट हो गए? जब मदरसे में शराब की बोतलें फेंकी जा रही थी तब वे कहां थे? जब मदरसों में रहने वालों को 15 बार मारा-पीटा जा रहा था, तब पुलिस को शिकायत क्यों नहीं की गई? क्या किसी ने मना किया था उन्हें कि इन मामलों को पुलिस तक नहीं लेकर जाना है? अब अजीम की दर्दनाक मौत के बाद ये नाली के कीड़ें बिलबिला कर सामने निकल आए हैं ताकि माहौल को जहरीला बनाया जा सके और शान्तिपूर्ण समाज को किसी तरह तोड़ा जा सके।

ये भी कहा जा रहा है कि वाल्मीकि बस्ती से जुमे की नमाज़ के दौरान पटाखे छोड़े गए। यानी बोलने की आजादी है तो कुछ भी बक दो। कोई ज़रा पूछे कि यदि लाऊडस्पीकर लगाकर 365 दिन अजान सुनाकर सबको डिस्टर्ब करने की आज़ादी है तो क्या दीपावली में पटाखे छोड़ने की आज़ादी भी गरीब वाल्मीकि समाज के बच्चों को नहीं है क्या? उसके दुष्परिणामों से उन्हें तो कोई सरोकार रत्ती भर भी नहीं है। अजीम की मौत के बाद स्थानीय पुलिस ने उसके कथित हत्यारों को पक़ड़ लिया है। वे सभी जुवेनाइल हैं। सभी की उम्र 10-12 साल से कम ही बताई जाती है। उन्हें आरोप सिद्ध होने के बाद सजा तो मिलेगी ही। पर अब सवाल यह है कि क्या 10-12 साल के जुवेनाइल बच्चे किसी को सिर्फ इसलिए मार देंगे, क्योंकि वो उनके धर्म से अलग है? सवाल ही नहीं उठता। इस उम्र में उन्हें धर्म का मतलब भी नहीं पता होता। न जाने कहां से इतनी नफरत लेकर आते हैं ये लोग। यानी आप जब चाहें अपनी शर्तों पर किसी घटना पर सांप्रदायिकता का रंग चढ़ाने लगते हैं। यह बेहद गंभीर स्थिति है। इस मानसिकता पर कठोर हल्ला बोलने की जरूरत है। गौर कीजिए कि अजीम के पिता खलील अहमद ने भी कहा है कि इसे सांप्रदायिक रंग नहीं दिया जाए। उन्होंने कहा, "हमारा बच्चा गया है। फिर भी यही कहना चाहूंगा कि यह हिंदू-मुसलमान के बीच की कोई लड़ाई नहीं थी। हमें नहीं पता कि कुछ लोग क्या चाहते हैं? यहां खेलते हुए बच्चों के बीच झगड़ा हुआ और मेरा बच्चा मारा गया। पुलिस ने उन आरोपी बच्चों को पकड़ भी लिया है। बाकी का काम कानून करेगा।"इतनी विपत्ति आने पर भी मजदूरी करके अपने परिवार का पेट पालने वाले अजीम के पिता का रुख बेहद स्वागत योग्य है। वो सचमुच ही एक असाधारण शख्स हैं। दरअसल कुछ धर्म के ठेकेदार और साम्प्रदायिकता की फसल काटने वाले लोग ही ऐसे मौकों की ताक में रहते हैं, ताकि लोगों को धर्म के नाम पर भड़का कर अपना उल्लू सीधा किया जा सके। अजीम के पिता ने ये भी कहा कि उनकी अभी तीन-चार दिन पहले ही फोन पर अपने बच्चे (अजीम) से बात हुई थी। वह खुश था। उसने कभी ऐसी शिकायत नहीं की थी कि उसे कभी भी कोई परेशान करता है। अजीम के पिता की ये तमाम बातें उन तमाम लोगों के मुंह पर एक करारा तमाचा है जो इस मामले को सांप्रदायिकता का रंग दे रहे हैं। निश्चय ही इस तरह के तत्वों को चुल्लू भर पानी में डूब कर मर जाना चाहिए। इन पर कठोर कार्रवाई कर दंडित भी किया जाना चाहिए। अजीम के कत्ल के बाद वाल्मीकि कॉलोनी में रहने वाली किसी सरोज नाम की महिला को खलनायिका के रूप में पेश किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि वो मदरसे के बच्चों को प्रताड़ित करती रहती है और धर्मिक भावनाएं भड़काती है। एक दीन-हीन गरीब महिला पर इतने गंभीर आरोप लगाना कहां तक सही है? अब कहने वाले तो यह मांग कर रहे हैं कि अजीम के कातिलों को फाँसी पर लटकवा दो। क्या मतलब है इस तरह की मांग करने वालों का? भारत में कानून का राज है? यहां पर किसी व्यक्ति विशेष के चाहने या न चाहने से सजा नहीं मिल सकती।

भारतीय गणतंत्र में सजा तो कानूनी प्रक्रिया से ही मिलती है। खलील अहमद की चर्चा के दौरान यहां पर अंकित सक्सेना के पिता का भी उल्लेख करने का मन कर रहा है। राजधानी दिल्ली में ही विगत फरवरी माह में 23 वर्षीय फोटोग्राफर अंकित सक्सेना का कत्ल उसकी प्रेमिका के परिवार वालों ने बर्बरता पूर्वक भीड़ भरे चौराहे पर कर दिया था। अंकित अपने पड़ोस की एक मुस्लिम लड़की से प्रेम करता था। दोनों प्रेमी-प्रेमिका विवाह करने की तैयारी कर रहे थे। पर ये बात उस कन्या पक्ष के परिवारजनों को नामंजूर थी। बस, इसी कारण के चलते उन्होंने अंकित को सरेराह मार डाला था। तब अंकित के पिता य़शपाल सक्सेना ने कहा था कि वे सभी टीवी चैनल्स और मीडिया हाउस से हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हैं कि इसे हिन्दू- मुस्लिम विवाद का रंग देने की कोशिश न करें। उन्हें किसी मुस्लिम से कोई नफरत नहीं है। अगर तब य़शपाल सक्सेना ने कोई भड़काऊ बयान दे दिया होता तो राजधानी के बहुत से इलाकों में दंगे भड़क सकते थे। हालांकि, अंकित का कत्ल इसलिए हुआ था, क्योंकि, उसका मजहब उसकी प्रेमिका के मजहब से अलग था। निश्चित रूप से खलील अहमद और य़शपाल सक्सेना इंसान को इंसान से लड़वाने वालों को ललकारते हैं। ये ही वास्तव में देश के नए नायक हैं!

दरअसल, अजीम की मौत पर हंगामा करने वाले बेहद शातिर लोगों की जमातका हिस्सा हैं। ये खुद ही तय कर देते हैं कि कब किस मामले को उठाना है? ये लाशों पर सियासत करते हैं। ये तब अज्ञातवास में चले गए थे, जब अंकित सक्सेना जैसे होनहार नौजवान को मारा गया था। इन्हें तब सांप्रदायिकता दिखाई नहीं दे रही थी। ये सितंबर,2016 में राजधानी के विकासपुरी में कट्टरपंथी बांग्लादेशियों के हाथों मारे गए डॉक्टर पकंज नारंग की हत्या के बाद भी एकदम चुप्पी साधे बैठे रहे थे। डॉ. पंकज नारंग की बांग्लादेशियों ने बिना वजह ही एक मामूली से रोड रेज में हत्या कर दी थी। दरअसल देश को ऐसे कथित सेक्युलरवादियों से बचाना है। ये धर्मनिरपेक्षता और प्रगतिशीलता की आड़ में देश को तोड़ रहे हैं। इस देश को जरूरत है खलील अहमद और यशपाल सक्सेना जैसे फरिश्तों की।

(लेखक: आर. के. सिन्हा, राज्य सभा सदस्य हैं)

Updated : 4 Nov 2018 8:30 PM GMT
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आर. के. सिन्हा

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