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कीमत चुकानी होगी यारा मेरे देश को एक दिन

तूणीर : नवल गर्ग

कीमत चुकानी होगी यारा मेरे देश को एक दिन
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आज केजू जी तीसरी बार अपने मंत्रिमण्डल के साथ दिल्ली के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने जा रहे हैं। विधानसभा की लगभग 90 प्रतिशत सीट व 50 प्रतिशत मत प्राप्त करके प्रचण्ड जीत का परचम फहराना कोई आसान काम तो नहीं है। इसलिए सभी से उन्हें प्रशंसा और बधाइयां मिलना स्वाभाविक है। वे स्वयं तथा उनके कार्यकर्ता अपनी इस विजय को काम पर आधारित राजनीति का दिल्ली मॉडल भी बता रहे हैं।

लोकतंत्र में चुनाव में जीत बहुत मायने रखती है, यह सभी मानते हैं। लेकिन जब जनता को मुफ्तखोरी के लालच के फंदे में फंसाकर, स्वयं को सेवाभावी भोले - भाले इंसान के रूप में प्रदर्शित करते हुए जीत अर्जित की जाए तो प्रश्न तो उठेंगे। प्रदर्शन राजनीति में हो, धार्मिक अनुष्ठानों में, सामाजिक लोकाचार में या फिर निजी जीवन में - नकलीपन की कलई जब उतरती है तो जो बदरूप सूरत दिखती है वह किसी को नहीं भाती। इसलिए नकलीपन का मुलम्मा जब तक चढ़ा हुआ है तभी तक केजू जी और उनके सिपहसालारों के गुडी गुडी चेहरे की रौनक बरकरार रहेगी।

इस जीत के मायने अच्छी तरह से समझने के लिए आम आदमी पार्टी से अलग हुए उसके संस्थापक सदस्य एवं गम्भीर चिंतक योगेन्द्र यादव द्वारा एक लेख में जो लिखा है उनमें से कुछ पंक्तियों को वैसा ही उद्धृत करना अति आवश्यक है।

उनके अनुसार, "अगर कोई सरकार जनता की दो चार जरूरतों को सीधे और पक्के तौर पर पूरा कर दे तो जनता का रूझान उसके पक्ष में किया जा सकता है। बाकी काम बड़े और प्रभावी प्रचार तंत्र और चुस्त चुनावी मशीन के माध्यम से हो सकता है।"

आम आदमी पार्टी की शानदार जीत से यह निष्कर्ष न निकालें कि उसने शानदार सरकार चलाई है।.... हां, इस सरकार ने बिजली के बिल कम किए.. पानी की स्थिति अगर सुधरी नहीं तो बिगड़ी भी नहीं। शिक्षा तो नहीं सुधरी, लेकिन स्कूलों की इमारतें सुधरी। ..... भ्रष्टाचार, पर्यावरण और ट्रांसपोर्ट जैसे सवालों पर स्थिति पहले से बदतर हुई, लेकिन उसे प्रचार तंत्र से ढंक दिया गया।....'आपÓ ने सरकारी पैसे और राजनीतिक ऊर्जा का बड़ा हिस्सा प्रचार में खर्च किया।...

योगेंद्र जी यह भी कहते हैं कि...." आम आदमी पार्टी इस देश में राजनीति के ढर्रे को बदलने आई थी। लेकिन, चुनावी राजनीति में उतरते ही आम आदमी पार्टी ने वह सब गुण अवगुण सीख लिए जो चालू राजनीति में इस्तेमाल होते थे।.... राजनीति के चालू नेताओं को जगह देना, बोलना कुछ, लेकिन करना कुछ और यदा - कदा अपने बयानों से पलटी खा जाना, व्यक्ति पूजा की संस्कृति और हाई कमांड के इर्द - गिर्द चौकड़ी का साम्राज्य जैसी स्थापित पार्टियों की यह तमाम बीमारियां आम आदमी पार्टी में जल्द आ गईं। आदर्श के साथ - साथ विचार भी गौण होता गया।....

केजू से मतभेद के चलते 'आपÓ को छोडऩे वाले दिग्गज नेताओं में योगेन्द्र यादव भी थे। उन्होंने उपरोक्त पंक्तियों में जो लिखा है उसकी पुष्टि तेजी से वायरल हो रहे एक वीडियो से भी होती है जिसमें दिल्ली सरकार द्वारा इमाम, मौलवियों को बड़ी राशि मासिक वेतन में देने की घोषणा के साथ ही चुनाव में समूचे मुस्लिम समाज से अपना मत झाड़ू पर दिलवाने की गारंटी भी उन इमाम - मौलवियों से चाही गई। स्पष्ट है कि केजू ने येन केन प्रकारेण दिल्ली का चुनाव जीतने के लिए जनता को और सम्प्रदाय विशेष को ललचाने के लिए हर वह हथकण्डा अपनाया जिसका पुरजोर विरोध वे आंदोलन के दौर में करते रहे थे। नि:शुल्क पानी, बिजली देना, महिलाओं को फ्री बस सुविधा देना, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को अच्छा बनाने का प्रोपेगण्डा - इस कदर चलाया गया कि निम्न वर्गीय आम आदमी तो मुफ्त के इस माया जाल में उलझ कर रह गया। हिंदू मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए स्वयं भी हनुमान जी के परम भक्त होने का दिखावा, मीठी लच्छेदार बातें और कार्यकर्ताओं का नाटकीय अंदाज केजू को इतना कुछ दे गया जिसकी कल्पना किसी ने भी नहीं की थी।

सवाल यह है कि सरकारी पैसा लुटाकर, मुफ्त में पार्टी के लिए वाहवाही लूटने का चुकारा किसके माथे पड़ेगा यह विचारणीय है। एक शायर के अनुसार -

कीमत चुकानी होगी यारा मेरे देश को एक दिन।

सियासत के बाजार में कुछ 'मुफ्तÓ नहीं मिलता।।

बात तो साफ है कि जो मुफ्तिया संस्कृति को केजू जी ने अपनी नई ईजाद बताया है वह खतरे से खाली नहीं है। कहते हैं कि काठ की हांडी एक बार चूल्हे पर चढ़ती है सो चढ़ गई। अब अगली बार वे कौन सा नया आत्मघाती उपक्रम करेंगे यह तो आने वाला समय ही बताएगा। लेकिन इसके दुष्परिणाम ये तो साफ नजर आ रहे हैं कि केवल गाल बजाने वाले अपने - अपने प्रांत में सस्ती लोकप्रियता और वोट कबाडऩे के लिए मुफ्तखोरी को भी खूब अच्छा बताएंगे। ऐसे में सही राह बताना भी बेहद जरूरी है। पर यह करेगा कौन ? यहां तो लगभग हरेक चरित्रवान् देश व सेवक इंसान को पहचानने की कोशिश छोड़ चुका है। बकौल एक शायर -

छोड़ दी कोशिश, इंसानों को पहचानने की...!

यहां सब जरूरत के हिसाब से नकाब बदलते हैं..!!

यह बिल्कुल सच है कि आज के जमाने में इंसान को पहचानना बहुत ही मुश्किल है। जरूरत के अनुसार कोई नकाब बदले तो एक बार कोई सहन भी कर ले कि चलो भाई! नकाब / मुखौटे / वफादारी बदलना उसकी मजबूरी है लेकिन धोखा देने के लिए, ठगी करने के लिए, भोलेभाले लोगों को, जनता को अपने मायाजाल में फंसाने के लिए कोई व्यक्ति जो बड़े - बड़े उसूलों की बात करते हुए, सेवा का व्रत लेकर किसी क्षेत्र में आना दर्शाये और फिर उन सबको भूलकर, बार - बार उलटी - पलटी खाते हुए, ढोंग और पाखण्ड की गंदगी में आकण्ठ गोते लगाने लगे तो उसे इंसान कौन कहेगा और कहो तो भी पहचानोगे कैसे?

सचमुच, राजनीति अब विडम्बनाओं के घटाटोप अंधेरे में घिरी, गहन बियाबान जंगल बन कर रह गई है। जो सही है, और जिसे सब जानते और मानते हैं कि यह सही है उसे भी चन्द लालच वाले नारों में घिरकर भुला दिए जाए तो इसे विडम्बना ही कहा जाएगा ना।

चाहे केजू हों या पप्पू अथवा अन्य उलटी पलटी मारने वाले राजनीति के प्रहसन में अपनी भूमिका के महत्व को खोजते ऐसे ही चट्टे - बट्टे, सब जानते हैं कि जो सच्चा है, अच्छा है और चरित्रवान् भी है वे उस विराट व्यक्तित्व पर कीचड़ उछाल रहे हैं । फिर भी वे आदत से मजबूर वही कर रहे हैं जो गलत है तो इसे क्या कहा जाए?

निदा फ़ाज़ली के शब्दों में यही कहना होगा कि

जिन चिरागों को हवाओं का खौफ नहीं.....!

उन चरागों को हवाओं से बचाया जाए.....!! (लेखक पूर्व जिला न्यायाधीश हैं।)

Updated : 16 Feb 2020 5:23 AM GMT
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