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मातृभूमि की वंदना के समान है लोक संगीत

लोक संगीत दो शब्दों से मिलकर बना है लोक और संगीत। अर्थात लोक का संगीत। भारतीय संस्कृति के वातावरण में जो संगीत प्रवाहमान है, वही लोक संगीत है।

मातृभूमि की वंदना के समान है लोक संगीत
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समाज को गुंजित करे वही लोक संगीत : पद्मश्री मालिनी अवस्थी

लोक संगीत दो शब्दों से मिलकर बना है लोक और संगीत। अर्थात लोक का संगीत। भारतीय संस्कृति के वातावरण में जो संगीत प्रवाहमान है, वही लोक संगीत है। जिसमें राग भी हो, ताल भी हो और राष्ट्र की संस्कृति के दर्शन भी। यह ठीक है कि कोई रचना व्यक्ति विशेष के माध्यम से स्वरबद्ध होती है, लेकिन जब उस रचना को 'मालिनी अवस्थी के स्वर मिलें तो उस गायकी को 'लोक संगीत बनते देर नहीं लगती।

लोक संगीत की उपमा उस झरने से की जा सकती है जो पहाड़ों से फूटकर पत्थरों-चट्टानों से टकराता हुआ उन्मुक्त भाव से मनचाही दिशा में आगे बढ़ता है और मालिनी अवस्थी का लोक संगीत उस जलधारा के समान है, जो संगीत के नियमों में मर्यादित रहकर सही मार्ग और दिशा में सुव्यवस्थित रूप में प्रवाहित होता है। मालिनी अवस्थी के स्वरों में, लय में और गायकी में लोक हृदय में उमडऩे-घुमडऩे वाली संवेदनाओं, सुख-दुख, हर्ष-विरह, प्रसन्नता, यहां तक कि लोक हृदय की धड़कनों का स्पन्दन होता है।

मालिनी अवस्थी ने ना केवल भोजपुरी, बुंदेली, अवधी यहां तक कि शास्त्रीय ख्याल गायन, ठुमरी, कजरी और ब्रज के रसियाओं के गायन से इसे और अधिक समृद्ध कर दिया है। लोक और संगीत के दार्शनिक समन्वय पर पद्म विभूषण विदुषी गिरजा देवी जी की सुयोग्य शिष्या व विश्वविख्यात लोक गायिका पद्मश्री मालिनी अवस्थी ने 'स्वदेश से अपने विचार साझा किए। प्रस्तुत है 'मधुकर चतुर्वेदी से उनकी वार्ता पर आधारित एक साक्षात्कार-

प्रश्न : आपकी संगीत यात्रा कैसे प्रारंभ हुई?

उत्तर : जी, बहुत लंबी यात्रा है और अभी तक चल रही है। पांच वर्ष की आयु में संगीत सीखना प्रारंभ किया। वैसे, जब तक प्रभु की कृपा रहती है, तब तक संगीत यात्रा चलती रहती है।

प्रश्न : क्या पहले से घर में संगीत का वातावरण मौजूद था?

उत्तर : नहीं, पहले से घर में संगीत का कोई वातावरण नहीं था। कोई नहीं गाता था। हां, ऐसी इच्छा माता-पिता की थी कि बच्चे गाना सीखें। बड़ी बहन को सिखाया। मैं भी बैठने लगी और गुरू की कृपा हो गई। गुरूओं ने ऐसा सिखाया कि मेहनत करने की इच्छा हुई, फिर सीखती गई। बचपन से अभी तक गा रही हूं और सीख भी रही हूं।

प्रश्न- विदुषी गिरजा देवी जी का सानिध्य आपको कैसे प्राप्त हुआ?

उत्तर- अप्पा जी (गिरजा देवी) का सानिध्य मुझे 1998 से मिला। 1988 में भातखंडे संगीत संस्थान लखनऊ में पढ़ाई के दौरान मैंने उन्हें देखा। उन्होंने मेरा गायन सुना और प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि मैं कलकत्ता चलूं, वहां पर सीखूं। उन्होंने कलकत्ता आईटीसी में चलने को कहा। चूंकि उस समय अवसर नहीं मिला, शादी होने वाली थी। लेकिन, यह मन में जरूर था कि इतनी बड़ी गुरु ने स्वयं आग्रह किया तो चलो सीखने के लिए। उस समय यह इच्छा पूरी नहीं हुई, लेकिन 1998 में यह इच्छा पूरी हो गई और यह सिलसिला 20 वर्षों तक चला।

प्रश्न- आप लोकगायन में सिद्धहस्त हैं, क्या ख्याल का भी गायन करतीं हैं?

उत्तर- ख्याल गाती हूं। हाल ही में अप्पा जी के स्मरण में दो कार्यक्रम किए, तब ख्याल गाया। लखनऊ में 'प्रणामीÓ कार्यक्रम में गाया। वैसे भी बुनियादी शिक्षा तो शास्त्रीय संगीत ही है और संगीत भी शास्त्रीय संगीत से ही आता है। हमारी गुरू भी कहती थीं कि बनारस की गायकी चहुंमुखी गायकी है। सब प्रकार का गायन आ सके, ऐसा गाने का प्रयास करना चाहिए।

प्रश्न- आपने ख्याल गायन की शिक्षा किनसे प्राप्त की?

उत्तर- ख्याल गायन की शिक्षा हमने गोरखपुर में उस्ताद राहत अली जी से प्राप्त की। वह पटियाला घराने के थे। रागों और तालों को हमने उन्हीं से समझा।

प्रश्न- अयोध्या में राम नवमी पर आपकी प्रस्तुति आज भी संगीत प्रेमियों के पटल पर स्थापित है। जरा इसके बारे में बताइये?

उत्तर- व्यक्ति का एक चिंतन मनन होता है। एक टीवी चैनल ने जन्माष्टमी पर कार्यक्रम के लिए एक निमंत्रण दिया। मैनें उन्हें गाने बताने शुरू किए। एक शब्द का प्रयोग किया कि 'कृष्ण जैसा योगीÓ तो उन्होंने कहा कि आप गातीं ही नहीं हैं, बल्कि व्याख्या भी अच्छी करतीं हैं। तो मैंने उनसे कहा कि हम जो गा रहे हैं, पहले उसकी समझ होनी चाहिए। फिर उन्होंने कहा कि हम राम नवमी पर कार्यक्रम करते हैं, भगवान राम पर बात करेंगे। जैसा राम को हम पाते हैं, वैसा गायन अयोध्या में हुआ और लोकप्रिय भी रहा।

प्रश्न- इसके अलावा और कौन से कार्यक्रम चर्चित हुए?

उत्तर- आज से 24 वर्ष पहले अंताक्षरी में मैंने विरह गाया था, होली में। शब्द थे 'और महीनवा मा बरसे ना बरसे, फगुनवा मा रंग रच रच बरसेÓ। उसी के अगले साल लंदन में 'सारेगामापÓ कार्यक्रम हुआ। वहां कहा गया कजरी सुनाओ। हमने कहा कौन सी सुनाएं। आयोजक चौंक गए कि कजरी के भी प्रकार होते हैं। दरअसल कजरी तीन तरह की होती है और तीनों का गायन किया। बाद में जुनून कार्यक्रम दूरदर्शन के बाद ऐसा कार्यक्रम था, जिसने लोकगीतों पर ही फोकस किया। उस कार्यक्रम ने पूरी दुनिया में रात तो रात मुझे मशहूर कर दिया।

प्रश्न- जैसा आपने बताया कजरी के प्रकार, क्या ठुमरी के भी प्रकार होते हैं?

उत्तर- ठुमरी के घराने अधिक प्रचलित हैं। एक बनारस तो दूसरा पटियाला घराना। दो घरानों की गायकी अलग है। रागों का चलन अलग है। जानकार लोग गायन सुनकर बता देते हैं कि किस घराने की ठुमरी गाई जा रही है।

प्रश्न- दोनों घरानों में क्या अन्तर है, क्या ख्याल राग तो अधिक प्रयोग नहीं होता?

उत्तर- ख्याल से कोई मतलब नहीं। ख्याल तो अपने आप में एक विधा है। बड़ा ख्याल या छोटा ख्याल। पटियाला घराने में ठुमरी में खटकी, मुर्की, मीढ़ का प्रयोग अधिक है और चंचलता ऐसी कि जल्दी-जल्दी रागों की तान ली जाती हैं। जबकि बनारस में बोल-बनावट की ठुमरी प्रसिद्ध है। जैसे 'ठाड़े रहिए बांके श्यामÓ। इसमें श्याम कैसे ठाढ़े रहें और कितनी देर तक, इस भाव को गायन में दर्शाना है। बनारस अंग में चैन-सुकून ज्यादा है। हां, जिसने ख्याल का अध्ययन किया है, वह ज्यादा बोल-बनाव कर सकता है। भावों के साथ गमक, मीत, रागात्मकता-रंजकता आ जाए, ऐसा बनारस का अंदाज है। सभी बड़े ठुमरी गायक बनारस से हुए हैं।

प्रश्न- आप भोजपुरी, अवधी, बुंदेली में लोकगीतों का गायन करती हैं, ब्रजभाषा कैसे छूट गई?

उत्तर- छूटी नहीं है। ब्रज भी गाती हूं। जब मेरे नाम के साथ उत्तरप्रदेश जुड़ गया है और कहीं पर भी जातीं हूं तो परिचय में बताया जाता है, उत्तरप्रदेश की लोकगायिका, ऐसे में बिना ब्रज को गाए-बिना कृष्ण को गाये, गाना पूरा नहीं होता। कमाल की बात यह है कि बनारस में जिनते भी ठुमरी-दादरा के पद हैं, वह सब ब्रजभाषा में निबद्ध हैं। ब्रज और बनारस का बड़ा ही सात्विक सम्बंध है। ब्रजभाषा में निगुण का सगुण से समन्वय, यह तो बनारसी गायकी का सबसे बड़ा अंग है। मैं तो लोकसंगीत में ब्रज के रसिया भी बड़ा आनंद से गाती हूं।

प्रश्न- क्या आपको नहीं लगता कि लोक संगीत पर कुछ अच्छे साहित्य की कमी है?

उत्तर- बहुत अच्छे ग्रंथ उपलब्ध हैं। जिस भी कवि ने अगर लोकसंगीत पर काम किया है तो वह भारतीयता पर किया है। लोक से ज्यादा संपूर्ण, परिपक्व दृष्टि कोई है ही नहीं। भारतीय संस्कृति केवल लोक संगीत में है और बहुतों ने काम भी किया है। राम नरेश त्रिपाठी जी ने काम किया। उनकी किताब 'ग्राम गीतÓ बहुत प्रसिद्ध है। कृष्णदेव उपाध्याय जी ने पटना से भोजपुरी लोकसंगीत पर बहुत साहित्य निकाले। विद्याबिंदु जी, जगदीश पियूष जी, शांति जैन और ब्रज में मोहन स्वरूप भाटिया जी ने लोक साहित्य पर बहुत काम किया है, जो मनोरंजन की दृष्टि से संगीत को लेता है, वह नाचता है और जो अंदर साहित्य में झांकेगा, उसे भारतीय तत्वनिष्ठ जीवन का दर्शन होगा।

प्रश्न- क्या आपको नहीं लगता कि सोशल मीडिया के दौर में लोक साहित्य पिछड़ रहा है?

उत्तर- नहीं, बल्कि बढ़ गया है। सोशल मीडिया के दौर में लोग लिख रहे हैं, पढ़ रहे हैं। बस अंतर केवल इतना है कि आज कागज की जगह इलेक्ट्रोनिक माध्यम है। पहले लेखक कम थे, आज हर एक के पास कलम है। लोग अपने मोबाइल से लोकगीतों को शेयर कर रहे हैं। मुझे लगता है कि तकनीक आ जाए, संसाधन आ जाएं लेकिन, लोक संस्कृति की अमर बेल को तोडऩा असंभव है। सोशल मीडिया का इतना अधिक सकारात्मक लाभ हुआ है कि लोग किताबें भले ही न पढें़, लेकिन मोबाइल पर छोटी-छोटी रचनाएं अवश्य ही पढ़ते हैं।

प्रश्न- हाल ही में आपको बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में चेयर प्रोफेसर का पद दिया गया है। आपने इस पद के लिए कोई वेतन नहीं लेने का निर्णय किया है। इसके पीछे क्या कारण है?

उत्तर- भारत रत्न पंडित मदन मोहन मालवीय जी के जन्मदिवस पर चेयर प्रोफेसर का प्रभार लिया। चूंकि मैं वहां प्रतिदिन नहीं जा सकूंगी, क्योंकि मंचीय प्रस्तुति के कारण व्यस्तता रहेगी। दूसरा वेतन लेना मेरा उद्देश्य नहीं है। पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने लोगों से दान लेकर अथक परिश्रम से काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। ऐसे पुण्य कर्मों से बने विवि से वह धन नहीं ले सकतीं। काशी हिंदू विश्वविद्यालय से जुडऩा ही मेरे लिए सौभाग्य है। मेरी इच्छा है कि वेतन की रकम लोककला के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम करने वाली छात्राओं की छात्रवृत्ति में प्रयोग किया जाए।

प्रश्न- आजकल देखा जा रहा है, जरा-जरा सी बात पर समाज में आपसी वैमनस्य बढ़ रहा है। इस वातावरण को बदलने में लोक संगीत कितना सहायक सिद्ध हो सकता है?

उत्तर- सबसे बड़ी सहायता तो यही है कि संगीतकार कभी भी बहस नहीं करते। केवल गाना-बजाना करते हैं। सोशल मीडिया के दौर में बहस बढ़ रही है। हर चीज पर चर्चा हो रही है। चूंकि आजकल हर एक के पास पावर है। इसलिए बहस बढ़ रही है और विषयांतर व मतांतर हो रहा है। संगीत तो सभी को जोडऩे का काम बहुत पहले से करता चला आ रहा है। अच्छा संगीत सुनकर मन के विकार को दूर किया जा सकता है।

प्रश्न- विदेशों में भारतीय लोकगीतों को लेकर क्या माहौल है?

उत्तर- अभी हाल ही में हॉलैंड व टर्की गई। वहां ना मैंने फिल्म म्यूजिक गाया और ना ही अंग्रेजी। पूरी तरह से भारतीय भाषाओं के लोकगीतों का गायन किया। विदेशों में जो भारतीय रहते हैं, उनके लिए लोकगीत मातृभूमि की वंदना के समान है। विदेशों में रह रहे भारतीयों के लिए अपनी संस्कृति से जुडऩे का सबसे बड़ा माध्यम लोकगीत ही हैं।

प्रश्न- आपके पति वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी हैं और उनकी विनम्रता आज सभी के लिए अनुकरणीय है। आपकी संगीत यात्रा में उनका किस प्रकार से योगदान रहता है?

उत्तर- किसी भी जीवनसाथी का जो होता है, उसी प्रकार का रहता है। बतौर पत्नी उनके सपने मेरे सपने हैं। उनके अपने प्रशासनिक कार्य हैं और मैं गा रही हूं। एक सहयोगी के रूप में हमेशा मनोबल बनाए रखते हैं। जहां आवश्यकता होती है, सलाह भी लेती हूं।

प्रश्न- क्या आपकी संतानें भी संगीत विधा में रुचि रखती हैं?

उत्तर- चूंकि उन्होंने अपनी मां को बचपन से गाते देखा है। मंच पर प्रस्तुति करते देखा है। स्वाभाविक है, उनमें रुचि अवश्य ही होगी। उनका पालन-पोषण संगीत के माहौल में हुआ है। बेटी तो गाती भी है, उसको तो पूरा माहौल भी मिला है। आगे उसका निर्णय है। जैसे हमने निर्णय लिया। अच्छी बात यह है कि बच्चों की लोकविधा में भी रुचि है।

संक्षिप्त परिचय

मालिनी अवस्थी भारतीय लोक गायक हैं। मालिनी हिन्दी भाषा की बोलियों जैसे अवधी, बुंदेली और भोजपुरी में गाती हैं। वह ठुमरी और कजरी में भी प्रस्तुत करती है। मालिनी अवस्थी का जन्म कन्नौज उत्तर प्रदेश में 11 फरवरी को हुआ। उन्होंने भातखंडे संगीत संस्थान लखनऊ से शिक्षा प्राप्त की। वे बनारस की पौराणिक हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायिका गिरिजा देवी जी की शिष्या हैं। उनकी शादी भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी एवं उप्र सरकार के सूचना सचिव अवनीश अवस्थी से हुई। मालिनी अवस्थी को कई पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है, जिसमें प्रमुख पुरस्कार पद्मश्री 2016, कालिदास सम्मान 2014, यश भारती सम्मान 2006, सहारा अवध सम्मान 2003, नारी गौरव 2000 शामिल हैं। इसके अलावा उन्होंने फिल्मोग्राफी के क्षेत्र में भी अपनी कला का प्रदर्शन किया है। जय हो छठ मैया- शैलेंद्र सिंह, मालिनी अवस्थी, भोले सिवप्त शंकर, बम-बम बोले, एजेंट विनोद, दम लगा के हईशा, चारफुटिया छोकरे (2014) आदि फिल्में प्रमुख हैं। मालिनी ने इंग्लैंड, अमेरिका, मॉरिशस और फिजी के साथ-साथ पाकिस्तान जैसे देशों में भी लोक संगीत को पहुंचाया। उनकी मां की इच्छा थी कि बेटी क्लासिकल संगीत सीखे और इसे जन-जन तक पहुंचाए। मालिनी अवस्थी लोक गायिका हैं और उनके पति आईएएस अधिकारी, इसके बाद भी दोनों के बीच परस्पर समन्वय अद्भुत है। इसी वजह से उन्होंने विलुप्त हो रहे लोक संगीत को भारत के कोने-कोने तक पहुंचाया।

Updated : 21 Jun 2018 9:32 PM GMT
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Swadesh Digital

स्वदेश वेब डेस्क www.swadeshnews.in


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