सितारे सड़कों पर नहीं केवल फरहान सड़क पर
विवेक पाठक
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नागरिक संशोधन अधिनियम देश में क्या लागू हुआ देश में अफवाहों की धारा बह निकली। नागरिकता देने वाले इस कानून को जिस तरह नागरिकता छीनने वाला बताकर हुड़दंग किया गया वो वाकई शर्मनाक था। इसमें जामिया मिलिया इस्लामिया विश्विद्यालय से लेकर देश में दिमागी अभिमान की कुंठा पाले हुए कुछ सैकड़ा नामचीन लोग भी दृश्य अदृश्य रुप में शामिल रहे। इन्हीं के उकसावे पर फरहान अख्तर सरीखे कुछ कलाकार विरोध में आए तो नामी अखबारों के बड़े बड़े शीर्षक पत्रकारिता के उसूलों का मजाक उड़ाते नजर आए। फरहान और उनकी गर्लफ्रेंड के सड़क पर उतरने को वे सितारे सड़कों पर लिख गए। इन उत्साही कलम जादूगरों से पूछा जाए कि क्या वाकई मुंबई सिनेमा सड़कों पर उतर आया था या अकेले फरहान सरीखे दो चार को वे पूरा मुंबई सिनेमा बताकर खुद के पेशे को ही शर्मिन्दा करने पर तुले थे।
मुंबई सिनेमा को लेकर इस तरह की अतिरंजित खबरें कई भ्रम पैदा करती हैं। करीब हजारों नामचीन कलाकारों और लाखों छोटे बड़े सिने उद्यमियों के इस फिल्मी संसार के बारे में खबरें जिस गैर जिम्मेदारी से लिखी जाती हैं उस पर चर्चा होनी ही चाहिए। इस तरह की आधी अधूरी और असत्यतापूर्ण खबरें टीवी चैनलों पर भी एंकर चलाते रहते हैं। नागरिकता संशोधन कानून मसले को लेकर ही बात करें तो बॉलीवुड इस मामले को लेकर शांत ही रहा केवल फरहान अख्तर उनकी गर्लफ्रैंड शिवानी दांडेकर, सावधान इंडिया वाले सुशांत सिंह ही विरोध में आए। बाकी विरोध में आने वाले वे चंद चेहरे रहे जो सीएबी नहीं बल्कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हर फैसले और नियम कानून का भारी सहिष्णुता के साथ विरोध करते रहे हैं। इनमें भी पहचाने वाले चेहरों में केवल शबाना आजमी, जावेद अख्तर, स्वरा भास्कर, कांकणासेन शर्मा आदि शामिल हैं। तो बात फिर वही कि जब मुंबई सिनेमा में जब अमिताभ हैं, धर्मेन्द्र हैं दिलीप कुमार हैं, रेखा हैं, जितेन्द्र हैं, बंगाल से मिथुन हैं, उत्तर पूर्व से डैनी हैं, साउथ से तमाम अभिनेत्रियां और अभिनेता हैं वे सब सीएबी के विरोध में नहीं बोले तो अकेले फरहान के बोलने से क्या। फरहान शबाना और जावेद अख्तर का विरोध पूरी मुंबई सिनेमा का विरोध नहीं होता और अगर ये सही है तो फिर अखबारों में किस हक से सनसनी से सराबोर हैडिंग लिखे अखबार सुबह हमारे घर की दहलीज पर होते हैं कि सीएबी के विरोध में सितारे सड़कों पर। सवाल छोटा है मगर इस पर बड़े और गहरे चिंतन की आवश्यकता है। अखबारों और तमाम मीडिया माध्यमों को इस विषय पर चिंतन करना ही चाहिए कि खबर की विषयवस्तु और उनके शीर्षक के बीच क्या तालमेल है। क्या वे बड़े बड़े अतिरंजित शीर्षक लगाकर ठंडी दाल में सनसनी का छौंक तो नहीं लगाते।
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