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'एक देश-एक चुनाव' समय की मांग

एक देश-एक चुनाव समय की मांग
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देश की लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराये जाने के प्रस्ताव पर लंबे समय से बहस चल रही है। प्रधानमंत्री मोदी ने इस मुद्दे पर जोरदार पहल कर इसे आगे बढ़ाया है। उन्होंने बुधवार को इस पर विचार के लिए 40 प्रमुख दलों के नेताओं को आमंत्रित किया था। बैठक में करीब 24 दलों के नेता पहुंचे। कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, सपा, बसपा, टीडीपी और डीएमके समेत कई दलों के नेता बैठक में नहीं आए और न ही उन्होंने अपना कोई प्रतिनिधि भेजा। शायद, उन्हें देशहित से मतलब नहीं हैं। नि:संदेह 'एक देश-एक चुनाव' समय की मांग है। अभी हाल ही में विधि आयोग इस बाबत विभिन्न राजनीतिक दलों और प्रशासनिक अधिकारियों की राय जानने के लिए उनका एक तीन दिवसीय सम्मेलन आयोजित किया था। उसमें कुछ दलों ने तो इसके प्रति सहमति जताई किन्तु अधिकतर दलों ने इसका विरोध ही किया। विरोध करने वाले दलों के नेताओं का कहना है कि एक साथ चुनाव कराने का प्रस्ताव लोकतांत्रिक प्रक्रिया के खिलाफ है। जाहिर है, जब तक इस प्रस्ताव पर आम राय नहीं बनती, तब तक इसे धरातल पर उतारना संभव नहीं होगा।

भारत का लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। लिहाजा यहां प्रायः हर वर्ष किसी न किसी राज्य में चुनाव होते ही रहते हैं। इससे न केवल प्रशासनिक व नीतिगत निर्णयों का क्रियान्वयन प्रभावित होता है, बल्कि सरकारी खजाने पर भारी बोझ भी पड़ता है। इस सबसे बचने का एक मात्र उपाय तो यही है कि ग्राम-पंचायतों व नगरपालिकाओं-निगमों को छोड़कर देश की लोकसभा व राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही कराये जाएं। यह कोई नया विचार-प्रस्ताव नहीं है। अपने देश में लोकतंत्र की स्थापना के शुरुआती दौर में इन दोनों ही व्यवस्थापिका-सभाओं के चुनाव एक साथ ही हुआ करते थे। सन 1952, 1957, 1965 और 1967 में अर्थात चार बार ऐसा हो चुका है। यह क्रम तब टूटा, जब सन 1968-69 में कुछ राज्यों की विधानसभाएं कतिपय कारणों से समय-पूर्व ही भंग कर दी गई थीं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि जब उस समय कोई समस्या उत्पन्न नहीं हुई थी, तो अब एक साथ चुनाव कराने से लोकतंत्र का क्या नुकसान हो जाएगा?

एक साथ चुनाव कराने का प्रस्ताव देश के लिए हितकारी भी है और विकासोन्मुखी भी। लगभग हर साल कहीं न कहीं होते रहने वाले चुनावों के कारण देश के सम्बन्धित प्रदेशों में बार-बार आदर्श आचार संहिता लागू करनी पड़ती है। इसकी वजह से सरकार आवश्यक नीतिगत निर्णय नहीं ले पाती और विकास की तमाम योजनाओं का क्रियान्वयन भी अधर में लटक जाता है। इससे अन्ततः नुकसान तो जनता को ही होता है। भिन्न-भिन्न प्रदेशों में अलग-अलग समय पर चुनाव होने से जनता की गाढ़ी कमाई से निर्मित सरकारी खजाने का एक प्रकार से दुरुपयोग ही होता है। इससे विकास-योजनाएं भी प्रभावित होती हैं और महंगाई बढ़ जाती है। एक साथ चुनाव कराये जाने पर एक ही खर्च में देश-प्रदेश की चुनावी प्रक्रियाएं सम्पन्न हो जाने से उस धन की बर्बादी रुक सकती है। इस उपाय से कालेधन के सृजन और भ्रष्टाचार के प्रचलन पर बहुत हद तक काबू पाया जा सकता है। यह तो सर्वविदित है कि चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों द्वारा चन्दा के नाम पर मोटी राशि की जो हेराफेरी की जाती है, उससे कालाधन ही निर्मित होता है। इसी तरह, लगभग हर साल चुनाव होते रहने से राजनीतिक दलों व राजनेताओं को एक-दूसरे के पक्ष-विपक्ष में जनमत आकर्षित करने के लिए जातीयता का विष-वमन करने अथवा अन्य संवेदनशील मसलों को उभारने में सक्रिय हो जाना पड़ता है। इससे सामाजिक समरसता भंग होते रहती है। पांच साल पर एक ही साथ चुनाव कराये जाने से ऐसे अवांछित अवसर हर साल तो उत्पन्न नहीं ही होंगे। इसका एक और लाभ यह है कि सरकारी कर्मचारियों और सुरक्षा बलों को बार-बार चुनावी कार्यों पर लगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। इससे उनका समय बचेगा, तो उनके मूल कार्यों के क्रियान्वयन में बाधा उत्पन्न नहीं होगी। आज तो चुनाव कराने के लिए स्कूली शिक्षकों और सरकारी कर्मचारियों-अधिकारियों का जो प्रतिनियोजन किया जाता है उससे महीनों तक स्कूलों में पढ़ाई-लिखाई बाधित हो जाती हैं और अन्य कार्य भी प्रायः ठप ही हो जाया करते हैं।

'एक देश एक चुनाव' के विरोध में बेदम तर्क दिया जा रहा है कि यह देश के संघीय ढांचे के विपरीत और संसदीय लोकतंत्र के लिए घातक होगा। लोकसभा और विधानसभाओं का चुनाव एक साथ करवाने पर अधिक से अधिक सिर्फ एक बार कुछ विधानसभाओं के कार्यकाल उनकी निर्धारित सीमा के आगे या पीछे करने पड़ सकते हैं। इससे राज्यों की स्वायत्तता कतई प्रभावित नहीं हो सकती; क्योंकि जिन प्रदेशों में एक बार या दो बार राष्ट्रपति शासन लागू हो चुके हैं, वहां की स्वायत्तता आज तक मरी नहीं है। एक साथ चुनाव के विरोध में एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि ऐसा होने पर राष्ट्रीय मुद्दों के सामने क्षेत्रीय मुद्दे गौण हो जाने अथवा क्षेत्रीय मुद्दों के सामने राष्ट्रीय मुद्दों का महत्व कम हो जाने की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। यह तर्क भी निराधार है, क्योंकि लोकसभा एवं विधानसभाओं के चुनाव के मुद्दे स्वाभाविक ही भिन्न-भिन्न होते हैं और हमारे देश के मतदाता अब इतने जागरूक हो चुके हैं कि वे राष्ट्रीय और स्थानीय मुद्दों में भेद करना जानते हैं। एक साथ चुनाव के विचार का विरोध करने वालों का यह भी कहना है कि अलग-अलग समय पर चुनाव होते रहने से जनप्रतिनिधियों को जनता के प्रति लगातार जवाबदेह बने रहना पड़ता है, क्योंकि उन्हें छोटे-छोटे अंतरालों पर किसी न किसी चुनाव का सामना करना पड़ता है। यह बेकार की बात है। जन-प्रतिनिधियों में कर्त्तव्य-बोध केवल चुनावी पेंच के कारण ही पैदा नहीं किया जा सकता है।

'एक देश एक चुनाव' की अवधारणा में कोई बड़ी खामी नहीं है। यदि हमारे देश में 'एक देश-एक कर प्रणाली', अर्थात 'जीएसटी' लागू की जा सकती है, तो 'एक देश-एक चुनाव' की व्यवस्था आखिर क्यों नहीं लागू की जा सकती है? क्या सिर्फ इसलिए कि इससे कुछ राजनीतिक दलों और उनके राजनेताओं को चुनावी दांव-पेंच का खेल खेलने में असुविधा हो सकती है?

(लेखक : मनोज ज्वाला, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

Updated : 27 Jun 2019 2:12 PM GMT
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