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जम्मू-कश्मीर में लोकतांत्रिक प्रक्रिया जरूरी

जम्मू-कश्मीर में लोकतांत्रिक प्रक्रिया जरूरी
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- अरविंद कुमार शर्मा

जम्मू-कश्मीर से मिलीजुली खबरें आ रही हैं। इंटरनेट सेवाओं में फिर बाधा आई। पोस्टपेड मोबाइल फोन की सेवा शुरू कर दी गई। लैंडलाइन नंबर काम कर रहे हैं। यह तो संचार के साधनों के बारे में समाचार हैं। राजनीतिक दुनिया में वहां ब्लॉक डेवलपमेंट कमेटीज (बीडीसी) की चुनाव प्रक्रिया चल रही है। दो दिन बाद 24 अक्टूबर को चुनाव होने हैं। इस चुनाव के बारे में भी संचार सुविधाओं जैसे हालात हैं। कुछ पार्टियां चुनाव में हिस्सा ले रही हैं। अधिकांश बड़ी पार्टियों ने बहिष्कार किया है। बहिष्कार करने वालों में फारूक अब्दुल्ला की नेशनल कान्फ्रेंस, महबूबा मुफ्ती की पीडीपी के साथ कांग्रेस भी शामिल है। चुनाव में भारतीय जनता पार्टी और नेशनल पैंथर्स पार्टी सक्रियता के साथ हिस्सेदारी कर रही हैं। एक नये राजनीतिक दल ने भी राजनीतिक शून्यता भरने का दावा किया है। सवाल यह है कि चुनाव जैसे लोकतांत्रिक अभियान का बहिष्कार करने वालों का तर्क क्या है? कांग्रेस पार्टी कहती है कि वह अपने नेताओं से संपर्क नहीं कर पा रही है। ऐसे में चुनाव का कोई मतलब नहीं रह जाता। फारूक अब्दुल्ला की नेशनल कान्फ्रेंस ने भी करीब-करीब इसी तरह के तर्क दिए। फारूक अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला से श्रीनगर में मिलकर आये नेताओं ने जम्मू में आकर मांग की थी कि पहले सामान्य राजनीतिक प्रक्रिया का बहाल होना जरूरी है।

नेशनल कान्फ्रेंस के सामान्य राजनीतिक माहौल बहाल करने की मांग को समझना जरूरी है। पार्टी कहती है कि नजरबंद अथवा गिरफ्तार सभी नेताओं को मुक्त करने से ही यह माहौल बनाया जा सकता है। नेशनल कान्फ्रेंस का यह बयान एकतरफा है। किसी राजनीतिक दल से उसका अपना पक्ष ही रखने की उम्मीद की जानी चाहिए। वस्तुस्थिति समझने के लिए हमें पिछले तीन सप्ताह के प्रशासनिक फैसलों पर भी नजर डालनी होगी। राज्यपाल के एक निर्णय के बाद बहुत सारे नेता रिहा कर दिए गये थे। ऐसे नेताओं में कांग्रेस के रविंदर शर्मा, नेशनल पैंथर्स पार्टी के हर्षदेव सिंह और नेशनल कान्फ्रेंस के देवेंदर सिंह राणा भी शामिल हैं। और तो और, तीन मुख्यमंत्रियों फारूक अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती सहित कई दूसरे नेताओं की नजरबंदी भी खत्म कर दी गयी है।

हाल में खबर यह भी आयी है कि फारूक और उमर अब्दुल्ला सरीखे नेताओं ने अपने ऊपर कानूनी प्रक्रिया खत्म करने के लिए सरकार पर बिना शर्त रिहाई के लिए जोर डाला। साफ है कि ये नेता अब अपने आधार को फिर से पकड़ने की जुगत में हैं। राज्य से अनुच्छेद 370 और 35ए की समाप्ति के बाद नेशनल कान्फ्रेंस और महबूबा मुफ्ती की पीडीपी जैसी क्षेत्रीय पार्टियों के पैरों तले से राजनीतिक जमीन सरक गई। दोनों पार्टियों की राजनीति जम्मू और कश्मीर की स्वायत्तता के इर्द-गिर्द ही घूमती रही है। केंद्र सरकार और सत्तारूढ़ भाजपा ने पूरे देश में सम विकास के तर्क पर राज्य को मिले विशेष दर्जे की समाप्ति के बूते पूरे देश में समर्थन हासिल किया है। जम्मू-कश्मीर में भी जैसे-जैसे हालात सामान्य हो रहे हैं, लोग इस सच्चाई को समझने लगे हैं कि कागजों में खास तवज्जो मिलने की जगह जमीन पर सुविधाओं को हासिल करना ज्यादा जरूरी है।

जम्मू-कश्मीर में लोगों को पूरे देश के समान हर तरह की सुविधा मिल सके, इसके लिए वहां की लोकतांत्रिक और चुनी हुई संस्थाएं ही बेहतर काम कर सकती हैं। बीडीसी चुनावों का विरोध करने वाले दलील दे रहे हैं कि घाटी में 19 हजार 582 पंच और सरपंच की सीटें हैं। इनमें सात हजार 528 पद ही भरे हैं, शेष खाली हैं। मतलब यह हुआ कि 64 प्रतिशत सीटें खाली हैं। यही पंच और सरपंच बीडीसी प्रमुख के लिए वोट डालेंगे। जब उनकी संख्या ही नहीं है, तो चुनाव कैसे संभव होगा? ध्यान से देखें तो यह पूरी संख्या है। यानी खाली सीटें पूरे प्रदेश में फैली हैं। ऐसा नहीं कि मतदाता नहीं होने से किसी कमेटी का चुनाव न हो सके। सच यह है कि राज्य में 316 ब्लॉक कमेटियां हैं। इनमें से 310 में चुनाव हो रहे हैं। भाजपा जबसे ज्यादा 290 ब्लॉक में चुनाव लड़ते हुए बाकी सीटों पर निर्दलियों को समर्थन कर रही है। यहीं एक सच्चाई को याद कर लें कि राज्य की दोनों पार्टियों नेशनल कान्फ्रेंस और पीडीपी ने पंच और सरपंच चुनावों का बहिष्कार किया था। यदि वे ब्लॉक कमेटियों का चुनाव लड़तीं तो उन्हें वोट डालने के लिए पंच और सरपंच कहां से मिलते? बहरहाल, बात खबरों की हो रही है तो यह भी देखना होगा कि फारूक और उमर अब्दुल्ला जैसे नेता 370 की समाप्ति पर चुप हैं। उनकी पार्टी अब राजनीतिक शून्यता खत्म करने के लिए नेताओं की रिहाई की मांग कर रही है। पीडीपी नेताओं ने भी कहा है कि प्रशासन की ओर से महबूबा मुफ्ती से मिलने की छूट के बीच समय कम होने से मुलाकात नहीं हो सकी। उधर, राजभवन ने संकेत दिया है कि लोकतंत्र में भरोसा करने वाले नेता एक-एक कर रिहा कर दिए जाएंगे। फारूक अब्दुल्ला पर तो रोक उनके आग उगलते बयानों के कारण ही लगे थे। जहां तक चुनाव में मतदाताओं की भागीदारी का सवाल है, याद करना होगा कि खुद फारूक कितने प्रतिशत मत पाकर लोकसभा पहुंचते हैं। यह उदाहरण सिर्फ इसलिए कि पहली जरूरत लोकतांत्रिक प्रक्रिया का जारी रहना है।

(लेखक पत्रकार हैं।)

Submitted By: Radha Raman Edited By: Radha Raman Published By: Radha Raman at Oct 21 2019 9:46AM

Updated : 21 Oct 2019 7:39 AM GMT
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