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कर्नाटक चुनाव की राजनीति की बिसात पर लिंगायत



बृहद हिंदू समाज से मामूली भिन्न समुदाय को राजनीति की बिसात पर छलने का उपक्रम राजनीतिक दल किस कुशलता से करते हैं, इसे लिंगायतों के परिप्रेक्ष्य में आसानी से समझा जा सकता है। हाल ही में कर्नाटक विधानसभा ने बड़ा राजनीतिक दांव चलते हुए कांग्रेस की सिद्धारमैया सरकार ने लिंगायत और वीरशैव समुदाय को हिंदुओं से पृथक धर्म की मान्यता देने के साथ अल्पसंख्यक दर्जा देने की कुटिल चाल चली है। फैसले पर पलटवार के लिए भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने कर्नाटक में होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर ऐलान किया कि यह दांव लिंगायतों की भलाई के लिए नहीं बल्कि भाजपा के नेता व कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा फिर से मुख्यमंत्री न बनें, इसीलिए खेला गया है। यहां उल्लेखनीय है कि येदियुरप्पा स्वयं लिंगायत समुदाय से हैं और उनकी इस समुदाय की 18 प्रतिशत आबादी पर मजबूत पकड़ है। कर्नाटक सरकार की सिफारिश के बाद गेंद अब केंद्र सरकार के पाले में है। अलबत्ता अब निर्वाचन आयोग द्वारा कर्नाटक विधानसभा चुनाव का ऐलान कर दिए जाने के बाद आदर्श आचार संहिता लागू हो गई है, लिहाजा सरकार इस बाबत चुनाव परिणाम आने तक कोई फैसला नहीं ले पाएगी। नतीजतन सिद्धारमैया ने दांव जरूर चल दिया है, लेकिन लाभ कितना मिलता है यह 15 मई को चुनाव परिणाम आने के बाद पता चलेगा। अलबत्ता इस तरह की सिफारिशों से इतना जरूर तय होता है कि हमारे राजनेता लाभ के लिए बृहद हिंदू समाज को बांटने से भी नहीं सकुचाते।
इसके कारण चुनाव में कांग्रेस को फायदा हो अथवा न हो येदियुरप्पा को जरूर फायदा हो गया है। इस प्रदेश के नारियल उत्पादक किसानों के सम्मेलन में अमित शाह ने ऐलान कर दिया कि चुनाव में भाजपा जीती तो येदियुरप्पा ही राज्य के मुखमंत्री होंगे। भाजपा के पास सिद्धारमैया द्वारा चले दांव की एक मात्र यही काट थी। दरअसल कर्नाटक विधानसभा की 224 सीटों में से करीब 110 पर इस समुदाय का प्रभुत्व है। इन्हें भाजपा का परंपरागत समर्थक वोट माना जाता है। येदियुरप्पा के अलावा राज्य के जो दूसरे कद्दावर नेता जगदीश शेट्टार भी लिंगायत हैं। भाजपा इस समुदाय को धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों की श्रेणी में रखने का विरोध करती रही है। हालांकि यह समुदाय बीच-बीच में हिंदू धर्म से अलग होने की मांग करता है। इनकी मांगों के आधार पर ही न्यायमूर्ति नागमोहन दास समिति की सिफारिशों को मानते हुए सिद्धारमैया सरकार ने इस प्रस्ताव को अंतिम स्वीकृति के लिए केंद्र सरकार के पास भेजा है। जबकि नवंबर-2013 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस संदर्भ में कहा था कि अलग धर्म का दर्जा देने से हिंदू समाज और बंट जाएगा।

इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि तात्कालिक राजनीतिक स्वार्थपूर्ति के लिए कांग्रेस पांच साल पहले किए गए फैसले से पलट रही है। इस सिलसिले में महापंजीयक व जनगणना आयुक्त ने भी एक पत्र कर्नाटक सरकार को 14 नवंबर 2013 को लिखा था। इसमें लिंगायत और वीरशैवों को हिंदुओं का समुदाय बताया गया था। इस नाते इन्हें अलग धर्म का दर्जा देना नामुमकिन है। सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश और कर्नाटक के पूर्व लोकायुक्त संतोष हेगड़े ने भी इस समुदाय को हिंदुओं से जुदा धर्म का दर्जा दिए जाने की सिफारिश पर सिद्धारमैया सरकार की अलोचना की है। उनका कहना है कि किसी भी समुदाय को धर्म का दर्जा देना सरकार का काम नहीं है। हमारे संविधान के अंतर्गत कोई भी राज्य सरकार एक धर्मनिरपेक्ष सरकार है। इस लिहाज से किसी भी समुदाय के आंतरिक मामले में कोई भी राजनीतिक दल या सरकार हस्तक्षेप नहीं कर सकती है।

दक्षिण के कर्नाटक, आंध्र-प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र और केरल तक फैले इस समुदाय को वर्चस्वशाली समुदाय माना जाता है। लिंगायत और वीरशैव 92 उपजातियों में बंटे हैं। हालांकि दोनों समुदायों की पूजा पद्धति में थोड़ी भिन्नता है। इस दृष्टि से लिंगायतों में यह विचार मंथन भी चल रहा है कि आखिर 12वीं सदी में बदलाव लाने वाले धर्मगुरू बासवन्ना की वास्तविक शिक्षाएं क्या हैं। दरअसल बासवन्ना जाति व्यवस्था, पितृसत्तामक मूल्यों के साथ ब्राह्मणवादी संस्कारों के भी आलोचक थे। इसीलिए उन्होंने जाति-प्रथा और मूर्ति पूजा का जबरदस्त विरोध किया। इस विरोध के फलस्वरूप पूरे दक्षिण भारत में एक बड़ा आंदोलन खड़ा हो गया, जो कालांतर में नवजागरण का प्रतीक बना। बदलाव के इस क्रम में जो नई धार्मिक मान्यताएं सामने आईं, उनके परिप्रेक्ष्य में वीरशैव और लिंगायत हैं लेकिन इनमें भी पूजा पद्धतियों को लेकर थोड़ा भेद है। लिंगायत इष्टलिंग धारण करते हैं, जबकि वीरशैव शिव के उपासक हैं। इष्टलिंग की पूजा हो अथवा शिव की दोनों की उपासनाएं हिंदू धर्म के अभिन्न अंग है, इसलिए इन्हें धार्मिक अल्पसंख्यक घोषित करना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है।

शायद इन्हीं तथ्यों के मद्देनजर वीरशैवों के संत और बलेहोनुर स्थित रंभापुरी पीठ के श्री वीरसोमेश्वर स्वामी ने इस फैसले को साजिश करार देते हुए, इस कानूनी विकल्प पर पुनर्विचार के लिए कहा है। इस परिप्रेक्ष्य में गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय ने 1966 में स्वामी नारायण संप्रदाय और 1995 में रामकृष्ण मिशन को हिंदू धर्म से अलग मान्यता देने से साफ इनकार कर दिया था। साफ है, यदि केद्र सरकार राज्य की सिफारिशों को मान भी लेती है तो चुनौती मिलने पर शीर्ष न्यायालय इसे निरस्त भी कर सकती है।
कांग्रेस इस तरह से हिंदुओं को बांटकर हिंदू-हितचिंतक नहीं हो सकती। यह देश का दुर्भाग्य ही है कि हमारे राजनेता हिंदुओं को बांटों और राज करो अंग्रेजों के दिए हथकंडे को तो अमल में लाते हैं, लेकिन जातियों को तोड़कर उन्हें बृहद हिंदू समाज से जोड़ने का उपक्रम करते दिखाई नहीं देते हैं। अब समय की मांग है कि हम जातीय श्रेष्ठता और निकृष्टता के भेद से मुक्त हों और समान नागरिकता के धर्म का पालन करें।

बहरहाल, लिंगायत और वीरशैवों को धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा देना एक बेहद संवेदनशील मुद्दा है। यह ऐसी दोधारी तलवार है, जिस पर चढ़कर कांग्रेस भयभीत नजर आ रही है, क्योंकि इस फैसले के पक्ष में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। जबकि राहुल के अध्यक्ष बनने के बाद किसी राज्य में पहला चुनाव होने जा रहा है। शायद इसीलिए राहुल ने धर्म से जुड़े इस प्रस्ताव को स्वीकृति नहीं दी है। राजनीतिक विश्लेशकों का यह भी अनुमान है कि यह प्रस्ताव कांग्रेस के लिए नुकसानदायी साबित होगा। इससे मुस्लिम वोटों के छिटकने की भी आशंका बढ़ गई है। दूसरी तरफ अमित शाह ने कर्नाटक के भावी मुख्यमंत्री के रूप में येदियुरप्पा का नाम भले ही घोषित कर दिया है, किंतु फैसले का तीखा विरोध नहीं किया है। क्योंकि धार्मिक अल्पसंख्यक दर्जा देने का यह मामला ऐसा चुनावी मुद्दा बनने जा रहा है, जिसे कर्नाटक में आमने-सामने रहने वाले दोनों ही प्रमुख दल कांग्रेस और भाजपा अहम मुद्दा मानकर भुनाने की कोशिश में हैं। इससे साफ है कि चुनाव में जब मुकाबला कांटा का हो तो हिंदू समाज से जुड़े इस संवेदनशील मुद्दे को यदि समझने व परखने में थोड़ी सी ही चूक हुई तो किनारे लगना मुश्किल होगा? गोया, भाजपा इस मुद्दे को लेकर ज्यादा सचेत इसलिए है, क्योंकि लिंगायत और वीरशैव उसके परंपरागत मतदाता हैं। गोया इन मतदाताओं के भाजपा से दूर जाने का क्या हश्र होता है, इसका कड़वा स्वाद पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा चख चुकी है। भाजपा के लिए यह चुनाव जीतना इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसे जीतने के बाद ही उसके लिए दक्षिण भारत में प्रवेश के द्वार खुलेंगे। कांग्रेस के लिए संकट इसलिए है, क्योंकि यह समुदाय अनुसूचित जाति के कोटे में मिलने वाले लाभ से वंचित हो जाएगा।

(लेखक, साहित्यकार एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Updated : 29 March 2018 12:00 AM GMT
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