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लोकतंत्र की वास्तविकता से दूर भागता विपक्ष

लोकतंत्र की वास्तविकता से दूर भागता विपक्ष
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हम यह भी जानते हैं कि केजरीवाल ने तो अपनी पूरी राजनीति हंगामा खड़ा करते हुए ही की है। लेकिन जब इनका असली चरित्र सामने आया तो जनता को लगा कि वह ठगी गई है। विपक्षी दलों के नेताओं की कार्यशैली ऐसी होती जा रही है कि वे देश की सूरत ही बदलना नहीं चाहते। बिहार के दबंग नेता की पहचान लालू यादव की है। वे और उनकी पत्नी राबड़ी देवी मुख्यमंत्री रहे, दोनों बेटे बिहार की वर्तमान नीतीश सरकार में मंत्री है। परिवार का प्रभाव और वैभव बढ़ता रहा, लेकिन बिहार वही रहा। गरीबी, अशिक्षा और बेकारी की पीड़ा से बिहार त्रस्त है।

भारत एक लोकतांत्रिक देश है। लोकतंत्र का आशय स्पष्ट है जनता का राज। हमारे देश में चुनाव के माध्यम से भले ही जनता अपना प्रतिनिधि चुनती है, लेकिन राजनेता जनप्रतिनिधि बनने के बाद आम जनता से बहुत दूर हो जाते हैं। इतना ही नहीं आम जनता में शामिल कोई भी व्यक्ति अपने इस जनप्रतिनिधि से मिलने का प्रयास करने के बाद भी मिल नहीं पाते हैं। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या वास्तव में नेता चुनाव जीतने के बाद जनप्रतिनिधि की भूमिका का सही तरीके से पालन करते हुए दिखाई देते हैं? यकीनन इसका उत्तर नहीं में ही होगा, क्योंकि जनप्रतिनिधि महज कुछ चाटुकारों के प्रतिनिधि बनकर ही रह जाते हैं। सवाल यह भी है कि देश में फिर कैसा लोकतंत्र? क्या जनप्रतिनिधियों का जनता से दूर होना लोकतंत्र का परिचायक माना जा सकता है? ऐसे में लगता है कि देश में लोकतंत्र के मायने बदल गए हैं, या बदल रहे हैं।

वर्तमान राजनीतिक वातावरण में जिस प्रकार की स्वार्थी राजनीति का चलन बढ़ रहा है, उसमें दिख रहा है कि राजनेता अपने हर कार्य को या तो सही सिद्ध करने का प्रयास करता है या फिर वह सीधे तौर पर सरकार पर बदले की कार्यवाही का आरोप लगा देता है। ऐसे में स्वच्छ और स्वस्थ लोकतंत्र की कल्पना कैसे कर सकते हैं? लोकतांत्रिक जीवन मूल्यों को बचाए रखने के लिए वर्तमान में रचनात्मक विपक्ष का होना समय की मांग है, लेकिन हमारे देश में विपक्ष की रचनात्मकता समाप्त होती जा रही है।

कहीं न कहीं अपने दोषों को छिपाने के लिए सरकार पर आरोप लगाना तो जैसे विपक्ष का स्वभाव ही बन गया है। यह बात सर्वथा सही है और देश की जनता भी इसको सही का दर्जा दे रही है कि देश की केन्द्र सरकार के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश को सही रास्ते पर ले जाने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन हमारे देश का विपक्ष अपने स्वभाव के अनुसार अच्छे काम में आलोचना की गुंजाइश तलाशने को मजबूर हो रहा है, जो लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं कहा जा सकता है।
हालांकि लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करने के लिए विपक्ष का होना अत्यंत जरूरी कहा गया है, लेकिन विपक्ष अपनी भूमिका का सही रुप से प्रतिपादन नहीं करे तो विपक्ष की भूमिका पर सवालिया निशान लग जाना स्वाभाविक है। इस वास्तविकता को भले ही देश की जनता स्वीकार करने लगी हो, लेकिन विपक्ष इस सच्चाई से दूर भागता हुआ दिखाई दे रहा है। विपक्ष सच्चाई को जाने बिना ही अपना बयान देकर देश की वास्तविक सरकार यानी जनता को गुमराह करने का दुष्कृत्य कर रहा है।

हम जानते हैं कि नरेन्द्र मोदी की सरकार देश की जनता द्वारा लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार है। लेकिन विपक्ष का रवैया ऐसा दिखाई देता है कि मोदी ने आक्रमण करके उनसे सत्ता छीन ली हो। यह एक प्रकार से लोकतंत्र का अपमान ही तो कहा जाएगा। वास्तव में जो दल जनादेश का सम्मान नहीं करता, उसे देश में राजनीति करने का कोई अधिकार ही नहीं है, क्योंकि यह देश आम जनता का है और देश में आम जनता की सरकार है। ऐसे में यह भी कहा जा सकता है कि विपक्ष देश की असली सरकार यानी जनता के निर्णय का अपमान कर रहा है।

एक ताजा मामले में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव की भाषा को ही ले लीजिए। जब लालू और उनके परिजनों के ठिकाने पर छापे की कार्यवाही की गई, तो उन्होंने इस छापे की कार्यवाही को केन्द्र सरकार द्वारा बदले की कार्यवाही बता कर उस सत्य पर परदा डालने का कुत्सित प्रयास किया है, जो भ्रष्टाचार की कहानी को बयान करता है। वास्तव में लालू और उनके परिजनों ने फर्जी संस्थाएं बनाकर जमकर गोलमाल किया है। इस गोलमाल की जांच तो होनी ही चाहिए, लेकिन चारा घोटाले में दोषी सिद्ध हो चुके लालू प्रसाद यादव ने वही पैंतरा अपनाया, जो गैर जिम्मेदाराना है। वास्तव में लालू को जांच संस्थाओं का सहयोग करना चाहिए, लेकिन सहयोग करना तो दूर उन्होंने जनता के सामने गलतफहमी पैदा कर वास्तविकता को छिपाने का प्रयास किया है। ऐसे में सवाल यही आता है कि क्या विपक्षी नेताओं से रचनात्मकता की अपेक्षा की जा सकती है?

इसी प्रकार का मामला पी. चिदम्बरम के पुत्र कार्ति चिदम्बरम का भी कहा जा सकता है। कार्ति का व्यापार देश में ही नहीं, बल्कि विदेश में भी फैला हुआ है। इन्होंने भी संस्था बनाकर गोलमाल किया है। सवाल यह आता है कि जब सब सही है, तो जांच करने से क्यों घबरा रहे हैं। हम जानते हैं कि पूर्व में हंगामे की राजनीति केवल जनता के हित के लिए की जाती थी, लेकिन आज हंगामे की राजनीति केवल अपना स्वार्थ साधने का माध्यम बनती हुई दिखाई देने लगी है।
चाहे वह लालू प्रसाद यादव हों, चिदम्बरम हों या फिर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल। इस सबके विरोध में कोई न कोई प्रमाणों के साथ आवाज उठा रहा है। इन प्रमाणों में कितना दम है, यह तो समय बताएगा, लेकिन आग लगने पर धुंआं उठता ही है। केन्द्र सरकार का उद्देश्य यही है कि सिर्फ हंगामा करना मेरा मकसद नहीं, मेरा मकसद है देश की सूरत बदलना चाहिए। लेकिन यह विपक्षी राजनेता अपने आपको ऐसे प्रस्तुत कर रहे हैं, जैसे यह प्रधानमंत्री के बराबर हों और देश की जनता ने ऐसे ही कामों के लिए इनको चुना है।
हम यह भी जानते हैं कि केजरीवाल ने तो अपनी पूरी राजनीति हंगामा खड़ा करते हुए ही की है। लेकिन जब इनका असली चरित्र सामने आया तो जनता को लगा कि वह ठगी गई है। विपक्षी दलों के नेताओं की कार्यशैली ऐसी होती जा रही है कि वे देश की सूरत ही बदलना नहीं चाहते। बिहार के दबंग नेता की पहचान लालू यादव की है। वे और उनकी पत्नी राबड़ी देवी मुख्यमंत्री रहे, दोनों बेटे बिहार की वर्तमान नीतीश सरकार में मंत्री है। परिवार का प्रभाव और वैभव बढ़ता रहा, लेकिन बिहार वही रहा। गरीबी, अशिक्षा और बेकारी की पीड़ा से बिहार त्रस्त है। लालूजी का असली चेहरा उस समय दिखाई दिया, जब इनके बेटे-बेटियों और नजदीकियों की एक हजार करोड़ की बेनामी संपत्ति का पर्दाफाश हुआ। देश-दुनिया को पता चल गया कि लालूजी चारा घोटाला ही नहीं, बल्कि उनके हंगामे की राजनीति में करोड़ों की संपत्ति बँटोरी है।

अब अपने आपको उलटा चोर कोतवाल को डाटे की भूमिका में लालू प्रसाद लाते जा रहे हैं। हंगामा खड़ा करके सच्चाई को दबाने का प्रयास किया जा रहा है। विपक्षी दल के हंगामा खड़ा करने वाले ये राजनेता कितना सही हैं, और कितना गलत, यह आने वाले समय में पता चल ही जाएगा, लेकिन अगर गलत नहीं है तो जांच संस्थाओं और सरकार की कार्यप्रणाली पर सवाल नहीं उठाना चाहिए।

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Updated : 24 May 2017 12:00 AM GMT
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