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हिंदुत्व पर भ्रमित मीडिया और नेता

हिंदुत्व पर भ्रमित मीडिया और नेता
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गत 12 दिसंबर को गुजरात में चुनाव प्रचार का शोर थम गया। विकास के मुद्दे पर शुरू हुआ प्रचार इधर-उधर भटकता रहा परंतु लंबे समय तक हिंदुत्व पर अटका रहा। देखने में आया कि न केवल मीडिया में बल्कि राजनीतिक चर्चाओं से लेकर बौद्धिक बहसों में जो अन्याय हिंदुत्व के साथ हुआ और राष्ट्रीयता के पर्याय इस शब्द की व्याख्या पर जो भ्रम फैला वह अत्यंत दुखद रहा। एक विराट अर्थ वाले शब्द को जनेऊ, त्रिपुंड, चंदन, आरती, मंदिर आदि शब्दों के साथ केवल एक उपासना पद्धति में समेटने का प्रयास हुआ। ऐसा करते हुए मीडिया से लेकर तमाम बुद्धिजीवियों ने देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 1995 में हिंदुत्व की दी गई उस व्याख्या को भी दरकिनार कर दिया जिसमें इसका अर्थ जीवनपद्धति बताया गया।
हिंदुत्व शब्द का प्रयोग करते समय हमें ध्यान में रखना चाहिए कि यह हमारी राष्ट्रीयता का द्योतक है। यह सिंधु का अपभ्रंश है, सिंध से ही हिंद बना है। प्राचीन फारसी में 'स' को 'ह' बोला जाता था, जैसे सप्ताह को हफ्ता! सिंध का हिंद हो गया। स्थान का स्तान हो गया। हिंद और स्तान मिलकर 'हिंदुस्तान' बन गया। हिंद से ही 'हिंदू', 'हिंदी', 'हिंदवी', 'इंडीज', 'इंडिया' और 'इंडियन' आदि शब्द निकले हैं। विदेशियों के लिए हिंदू शब्द भारतीय का पर्याय है। आज भी हरियाणा में 'है' के लिए 'सै' का प्रयोग होता है, जैसे -कित्त जा रहैया सै अर्थात कहां जा रहे हो। पारसियों की धर्म पुस्तक 'जेंद अवेस्ता' में 'हिन्दू' और 'आर्य' शब्द का उल्लेख मिलता है जो उन्होंने भारतीयों के लिए प्रयोग किया। चीनी यात्री हुएनसांग के समय में भी भारतीयों के लिए हिंदू शब्द का प्रयोग हुआ, इसकी उत्पत्ति इंदु से हुई थी। इंदु शब्द चंद्रमा का पर्यायवाची है। भारतीय ज्योतिषीय गणना का आधार चंद्रमास ही है। अत: चीन के लोग भारतीयों को 'इन्तु' या 'हिंदू' या 'इंदुरैन' कहने लगे। वेदों, दर्शनशास्त्रों, उपनिषदों, आरण्यकों, रामायण, महाभारत या गीता में कहीं भी हिंदू शब्द कभी नहीं है। इस शब्द का प्रयोग तुर्की, पठानों और मुगलों ने पहले-पहल किया। वे सिंधू नदी पार करके भारत आए थे। इसलिए उन्होंने इस सिंधु-पर क्षेत्र को हिंदू कह दिया परंतु आज इस शब्द का सीमित अर्थ करने का प्रयास हो रहा है।
देश के सर्वोच्च न्यायालय में न्यायामूर्ति जेएस वर्मा के नेतृत्व वाली तीन सदस्यीय पीठ ने दिसंबर 1995 में फैसला दिया था कि हिंदुत्व धर्म नहीं बल्कि एक जीवन शैली है। 'हिंदुत्व शब्द भारतीय लोगों के जीवन पद्धति की ओर इशारा करता है। छत्रपति शिवाजी ने इसी हिंदुत्व की राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत हो 'हिंदवी राज' का उद्देश्य देश के सम्मुख रखा। हिंदुत्व को सिर्फ उन लोगों तक सीमित नहीं किया जा सकता, जो अपनी आस्था के कारण हिंदू धर्म को मानते हैं। इस फैसले के तहत, न्यायालय ने जनप्रतिनिधि कानून की धारा 123 के तहत हिंदुत्व के धर्म के तौर पर इस्तेमाल को 'भ्रष्ट क्रियाकलाप' मानने से इनकार कर दिया था। महान चिंतक व स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर ने हिंदुत्व की परिभाषा करते हुए लिखा है -
आ सिंधु-सिंधु पर्यन्ता, भारत भूमिका यस्य,
पितृभू-पुण्यभू भुश्चेव सा वै हिंदू रीती स्मृत:
अर्थात जो भारत भूमि को पितृ-भूमि व पुण्य भूमि मानता है वह हिंदू है। जो इस देश के महापुरुषों को अपना पूर्वज मानता है वह हिंदू है। जनसंघ के संस्थापक सदस्य प्रो. बलराज मधोक ने मुसलमानों के लिए मोहम्मदपंथी हिंदू, ईसाइयों के लिए इशूपंथी हिंदू नाम सुझाए थे। उनका मत था कि उपासना पद्धत्ति के आधार पर किसी को बाहर से आए प्रवासी होने का एहसास नहीं होना चाहिए। हिंदू शब्द राष्ट्रीयता के रूप में इन सभी उपासान पद्धत्तियों के लिए गोंदा का काम कर सकता है। बैतूल में अपने संबोधन के दौरान हिंदुत्व शब्द की अत्यधिक उदार व्याख्या करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डा. मोहन भागवत ने कहा कि हिंदुस्तान में रहने वाला हर नागरिक उसी तरह हिंदू कहलाएगा, जैसे अमेरिका में रहनेवाला हर नागरिक अमेरिकी कहलाता है, उसका धर्म चाहे जो हो। उनके इस तर्क था कि किसी नागरिक के पुरखे या वह स्वयं भी चाहे किसी अन्य देश में पैदा हुआ हो, यदि उसे नागरिकता मिल जाए तो वह खुद को अमेरिकी घोषित कर सकता है। यानी किसी के हिंदू होने में न धर्म आगे आता है और न ही उसके और उसके पुरखों का जन्म-स्थल। उन्होंने हिंदुत्व के साथ 'पुण्यभू' के साथ 'पितृभू' की शर्त से भी छूट दे दी।
लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान देश का मीडिया से लेकर राजनेता व बुद्धिजीवी हिंदुत्व की उस वामपंथी व्याख्या को आगे बढ़ाते हुए दिखे जिसमें इसे एक संप्रदायिक पहचान दी जाती है। अर्थात जैसे इस्लाम और इसाईयत वैसे ही हिंदुत्व, एक नीरस सरकारी व प्रशासनिक व्याख्या। जब भारतीयों ने विदेशियों द्वारा दिए गए इस हिंदू शब्द को स्वीकार कर लिया तो ऐसे में विदेशी मूल के मजहबों को मानने वालों हमारे ही भाईयों को हिंदू कहने में एतराज क्यों होना चाहिए? यदि मजहब के आधार पर भारत के 130 करोड़ लोगों को अलग-अलग मानेंगे तो देश में राष्ट्रीय भावना का विकास कैसे होगा? क्या इस देश को हम मजहब के आधार पर बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक में बांट देंगे। यही काम तो मोहम्मद अली जिन्ना ने किया था जिसके चलते पाकिस्तान का निर्माण हुआ। पूरी दुनिया में पाकिस्तान ही एक मात्र देश है, जो मजहब के आधार पर बना है। पाकिस्तान की ज्यादातर परेशानियों का कारण भी यही है। भारत का निर्माण या अस्तित्व किसी धर्म, संप्रदाय, मजहब, वंशवाद या जाति के आधार पर नहीं हुआ है। सामान्यत: लोग भारत के संपूर्ण निवासियों को भारतीय व हिंदुस्तानी शब्द से परिभाषित करते हैं और हिंदुत्व भी इन्हीं दो शब्दों का प्रयाय है। यह मंतव्य अत्यंत पवित्र है, क्योंकि यह 'हम' और 'तुम' के भेद को खत्म करता है। 'हिंदू' की इस परिभाषा से सहमत होने का अर्थ है, सभी पूजा-पद्धतियों को स्वीकार करना। गांधीजी इसे ही सर्वधर्म समभाव कहते थे। इसे आधार बनाएं तो फिर राष्ट्रवादिता से कोई भी अछूता नहीं रह सकता।
प्रसिद्ध चिंतक व लेखक वेदप्रकाश वैदिक बताते हैं कि बादशाह खान ने अब से लगभग 50 साल पहले उन्हें काबुल में कहा था कि मैं पाकिस्तानी तो पिछले 19-20 साल से हूं, मुसलमान तो मैं हजार साल से हूं, बौद्ध तो मैं ढाई हजार साल से हूं और आर्य-पठान तो पता नहीं कितने हजारों वर्षों से हूं। यदि इस तथ्य को सभी भारतीय स्वीकार करें तो सोचिए, हमारा राष्ट्रवाद कितना सुदृढ़ होगा। उक्त संदर्भों से स्पष्ट है कि हिंदुत्व को पूजा पद्धति, पंथ, संप्रदाय या कर्मकांर्डों से ही जोड़ कर देखना अनुचित और राष्ट्रीयता की व्याख्या से वंचित करने जितना अपराध है। राजनेता व मीडिया हिंदुत्व के मर्म समझ कर ही इस शब्द का प्रयोग करें तो उचित होगा।

Updated : 14 Dec 2017 12:00 AM GMT
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