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ताल के बिना शास्त्रीय संगीत की कल्पना असंभव: पं. डालचंद्र

ताल के बिना शास्त्रीय संगीत की कल्पना असंभव: पं. डालचंद्र
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मधुकर चतुर्वेदी/आगरा।
भारतीय संगीत में ताल के बिना संगीत की कल्पना असंभव ही है और ताल भी ऐसी कि बिना गायन और नृत्य के अपने आप में संपूर्ण सामवेदिय संगीत को श्रोताओं के पटल पर स्थापित कर दे। जी हां यह सब गायन से संभव नहीं है। बल्कि ताल के आरोह-अवरोह से। नाथद्वारा घराने के सुप्रसिद्ध पखावज वादक पंडित डालचंद्र शर्मा के हाथों में वह चमत्कृति है, जिससे संगीत का संपूर्ण शास्त्र ताल ‘धमार’ में उतर आए। पंडित डालचंद्र शर्मा को ग्वालियर में आयोजित विश्व प्रसिद्ध तानसेन संगीत समारोह के अंतर्गत तानसेन संगीत कला रत्न से अलंकृत किया जा रहा है। शुक्रवार को पंडित डालचंद्र जी ने स्वदेश से वार्ता में इस सम्मान के लिए भारतीय कला रसिकों के प्रति आभार व्यक्त किया।

उन्होंने कहा कि भारतीय शास्त्रीय संगीत के सिरमौर संगीत सम्राट तानसेन के नाम से उन्हेें जो सम्मान मिल रहा है, यह उनके लिए गर्व की बात है। पंडित जी नाथद्वारा घराने के पखावज वादक है। इस कारण उनके वादन में ब्रज की प्राचीन संगीत शैलियों की छाप स्पष्ट देखी जा सकती है। स्वयं उन्होंने इसके रहस्य का उद्घाटन करते हुए कहा कि हवेली संगीत विधा अलग है, इसमें नाथद्वारा परंपरा का घिरनक का बाज है। जिसके अंतर्गत उठान और झाला के बोल विशेष हैं। पंडित जी ने अपने पखावज वादन में आरोह-अवरोह की शैली के बारे में बताते हुए कहा कि जिस प्रकार गायन में आरोह अवरोह होता है, उसी प्रकार पखावज के स्वतंत्र वादन में ‘धा’ के माध्यम से आरोह-अवरोह श्रोताओं को ताल की वैज्ञानिक से जोड़ता हैं। पंडित ने बताया कि उन्हें उनके गुरू नाथद्वारा घराने के मूर्धन्य पखावजी पं. पुरूषोत्तम जी से पंचदेव परन, स्तुतिपरन, गणेश परन, शिवस्तुति आदि परन प्राप्त हुई, यह उनके जीवन में पुण्यपुष्प से कम नहीं हैं।

वैसे आपको बता दें कि पंडित जी पखावज वादक होने के साथ ही एक अच्छे गायक भी हैं। उन्होंने बाबा जीवनदास जी से हवेली संगीत की शिक्षा ग्रहण की है, यह उनके संगीत की चरमसीमा भी है। भारतीय धुप्रद गायन परंपरा का शायद ही कोई ऐसा बड़ा कलाकार जिसके साथ पंडित डालचंद्र जी ने संगत ना की हो और कई तो देखने में आया है कि पखावज पर अंगुलियों को विराम देने के बाद भी श्रोताओं का संगीत से सम्मोहन टूटा नहीं। पखावज के मौन हो जाने पर भी रसवर्षा थमीं नहीं। डागर बंधु हों या पंडित गोकुलोत्सव जी, सान्याल जी हों या रूद्रवीणा पर असद अली खां सहाब और जब ब्रज के प्राचीन पद गायन की हो तो पंडित का पखावज वादन सच मानिए प्रिया-प्रियतम के निकुंज से कम नहीं हैं और संपूर्ण वृंदावन की शोभा तालमाला में उतर आई हो।

Updated : 10 Dec 2016 12:00 AM GMT
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